उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं गौरा देवी (Famous Women of Uttarakhand Gaura Devi)

गौरा देवी 

 गौरा देवी : (जन्म 1925-4 जुलाई, 1991) चिपको आन्दोलन की प्रथम सूत्रधार महिला। 19 नवम्बर, 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार से सम्मानित। चिपको वूमन के नाम से ख्याति प्राप्त ।
उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं गौरा देवी


उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं गौरा देवी Famous Women of Uttarakhand Gaura Devi
जानिए गौरा देवी के बारे में जिन्होंने की थी 'चिपको मूवमेंट' की शुरुआत  उत्तराखंड की गौरा देवी ने वो काम कर दिखाया था जो सरकार भी ना कर पाई थी। आज जानते हैं उनकी इंस्पायरिंग कहानी। 
गौरा देवी: छोटे से गांव की वो महिला जिसकी ज़िद ने शुरू किया दुनिया का सबसे अनोखा 'चिपको आंदोलन'
उत्तराखंड की धरती को अगर आंदोलनों की धरती कहा जाए तो गलत नहीं होगा. 1921 का कुली बेगार आन्दोलन, 1930 का तिलाड़ी आन्दोलन, 1984 का नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन, 1994 का उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आन्दोलन, ऐसे छोटे बड़े कई आंदोलनों ने यह बात सिद्ध की है कि यहां की मिट्टी में पैदा हुआ हर इंसान अपने हक की लड़ाई लड़ना जानता है, फिर वो पुरुष हो या फिर महिला. आज हम उत्तराखंड के एक ऐसे आंदोलन की बात करेंगे जिसने एक साधारण सी महिला को इतने बड़े आंदोलन की नेत्री बना दिया. उत्तराखंड के रैणी गाँव की गौरा देवी का व्यक्तिगत जीवन संघर्षपूर्ण रहा. उनके जीवन की कहानी प्रेरक है

कौन थी Chipko Andolan शुरू करने वाली गौरा देवी?

सन 1976 को आज ही के दिन यानी 24 मार्च को चिपको आंदोलन की मुख्य घटना हुई थी. इस दिन रैणी के जंगलों को काटने का आदेश दिया गया. हालांकि इन जंगलों को बचाने के लिए पिछले तीन सालों से आंदोलन चल रहा था. यहां के पुरुषों ने पूरी मुस्तैदी से मोर्चा संभाला था लेकिन सरकार की कूटनीति कहिए या फिर संयोग कि इसी दिन लोगों को उनके उन खेतों का मुआवजा दिए जाने का आदेश हुआ जो 1962 के बाद सड़क बनने के कारण उनसे छिन गए थे. किसी भी आंदोलन पर गरीबी भारी पड़ने लगती है, यही कारण रहा कि यहां के मलारी, लाता तथा रैणी के सभी पुरुष मुआवजा लेने चमोली चले गए. 
पेड़ काटने के लिए मजदूर जंगल की तरफ बढ़ने लगे. उन्हें रोकने के लिए गाँव में कोई पुरुष नहीं था ऐसे में गौरा देवी ही थीं जिन्होंने इस आंदोलन की अगुवाई करते हुए 27 अन्य महिलाओं को अपने साथ लिया और 2400 पेड़ों की कटाई रोकने के प्रयास में जुट गईं. गौरा देवी सहित अन्य महिलाएं पेड़ों को बचाने के लिए उनके साथ चिपक गईं. इनका कहना था कि पेड़ों को काटने से पहले आरी उनके शरीर पर चलेगी. बता दें कि इन पेड़ों की कटाई रोकने का प्रयास में यह आंदोलन तीन साल पहले 1973 में शुरू हुआ था. इसकी नींव सुंदरालाल बहुगुणा, कामरेड गोविंद सिंह रावत, चंडीप्रसाद भट्ट और श्रीमती गौरा देवी के नेतृत्व में सन 1970 में रखी थी.

गौर देवी और उनका संघर्षपूर्ण जीवन  

उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं गौरा देवी

गौरा देवी का जन्म सन 1925 में गांव लाता में हुआ था. इनका जीवन बेहद संघर्षपूर्ण रहा. पुराने चलन के मुताबिक गौरा देवी का विवाह मात्र 12 साल की उम्र में रैंणी के मेहरबान सिंह के साथ कर दिया गया. आज की तरह लोग तब जागरुक नहीं थे, ना ही गौरा देवी को ये अंदाज़ा था कि उनके साथ क्या हो रहा है. वह अपने गृहस्थ जीवन में व्यस्त रहने लगीं. पशुपालन, ऊनी कारोबार तथा थोड़ी बहुत खेती से इनके परिवार का गुजारा चलता था. गौरा देवी के जीवन की असल परीक्षा तब शुरू हुई जब मात्र 22 साल की उम्र में नियति ने इन्हें विधवा का जीवन जीने पर बाध्य कर दिया. गौरा के पति उनकी गोद में ढाई साल का बेटा छोड़ कर हमेशा के लिए इस दुनिया से चल बसे. पीछे रह गई तो सिर्फ गौरा, उनका बेटा और उनके बूढ़े सास ससुर. घर की सारी ज़िम्मेदारी गौरा के कंधों पर आ गईं. अपने खेतों में हल जुतवाने के लिए गौरा को गैर पुरुषों से विनती करनी पड़ती, नन्हें बेटे और बूढ़े सास-ससुर की देख रेख का जिम्मा भी इन्हीं के सिर था. 
इतनी मुश्किलों के बावजूद गौरा ने कभी हार नहीं मानी. इसी बीच उनके सार ससुर भी चल बसे. अब बच गए तो तो सिर्फ गौरा और उनका बेटा चन्द्र सिंह. गौरा ने बहुत मेहनत की और अपने बेटे को पैरों पर खड़ा कर उसे लायक बनाया, उसकी शादी कारवाई. अपनी जिम्मेदारियों के बाद जितना भी समय गौरा के पास बचता था वह उसे गाँव के कामों में लगा देती थीं. गौरा अपने गाँव के महिला मंगल दल की अध्यक्ष भी बनीं.

कैसी थी गौरा देवी की जिंदगी?

  1. गौरा देवी जंगल को वन देवता कहती थीं और पेड़ों को अपना मायका। उनका जन्म 1925 को हुआ था और वो चमोली के एक छोटे से गांव में मारछा समुदाय में पैदा हुई थीं। उनका परिवार वैसे तो ऊन के व्यापार में लगा था।
  2. शादी के बाद वो रेनी नामक एक गांव में चली गई थीं। जब गौरा 22 साल की थीं और उनका दो साल का बेटा था तब उनके पति की मृत्यु हो गई थी। उन्होंने खुद ही परिवार के व्यापार का जिम्मा संभाला था और अपने बेटे के साथ उन्होंने काम किया था।
  3. गौरा देवी के अपने स्ट्रगल से महिलाओं को आगे बढ़ने का जज्बा सिखाया। उन्होंने पंचायत में महिलाओं को आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया।
  4. उनके काम को देखते हुए गांव की महिलाओं ने उन्हें महिला मंगल दल की प्रमुख बनने का न्योता दिया। गौरा देवी उस वक्त 40 की उम्र पार कर चुकी थीं, लेकिन उन्होंने ये न्योता स्वीकारा। इस संस्था का काम था स्थानीय जंगल की रक्षा करना और सफाई का ध्यान रखना।
  5. गौरा देवी के इतने काम के बाद भी उनका नाम उस तरह से प्रसिद्ध नहीं हो पाया जितना होना चाहिए था। ये उनके कदम ही थे जिसके कारण सरकार ने 10 साल का बैन लगा दिया था उस इलाके के पेड़ों की कटाई पर।
  6. गौरा देवी की मौत 66 साल की उम्र में हो गई थी, लेकिन उनके बारे में ना तो कविताएं लिखी गईं और ना ही उन्हें वो उपलब्धि मिली जो मिलनी चाहिए थी। हालांकि, उन्हें मॉर्डन झांसी की रानी जरूर कहा जाता है।
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उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं गौरा देवी

महान गौरा के गांव की हालत 

गौरा द्वारा किये गए कामों ने उन्हें महान बना दिया लेकिन जिस गाँव से उनका संबंध था उस गाँव को पिछले दिनों बड़ी तबाही का सामना करना पड़ा. इसी साल की 7 फरवरी को चमोली जिले में ग्लेशियर फटने से यहां का जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया था. यह ग्लेशियर जिस गाँव के समीप फटा वह गौरा देवी का रैणी गाँव ही था. यह गांव चमोली जिले के जोशीमठ ब्लॉक मुख्यालय से 26 किलोमीटर दूर स्थित है. बता दें कि इस आपदा से उत्तराखंड के कई इलाकों में भारी क्षति पहुंची थी. कई लोगों के मारे जाने के अलावा, कई गांव उजड़ गए, रैणी गांव के करीब स्थित ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट भी तबाह हो गया था. प्रोजेक्ट को काफी नुकसान पहुंचने के अलावा इसमें काम करने वाले सैकड़ों लोग भी लापता हो गए थे.

चिपको वुमन के नाम से हुईं मशहूर 

भले ही गौरा देवी आज हमारे बीच ना हों लेकिन उन्होंने जो किया उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. लोग आज भी उन्हें चिपको वुमन के नाम से जानते हैं. एक साक्षात्कार में गौरा देवी ने जंगल के प्रति अपना स्नेह दर्शाते हुए कहा था कि ये जंगल हमारी माता के घर जैसा है. यहां से हमें फल ,फूल ,सब्जियां मिलती हैं. अगर यहां के पेड़ - पौधे काटोगे तो निश्चित ही बाढ़ आएगी. जुलाई 1991 में गौरा देवी 66 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गईं. 

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