2400 पेड़ बचाने के लिए 27 महिलाओं ने की थी पहल चूंकि पुरुष गांव में मौजूद नहीं थे इसलिए महिलाओं ने मोर्चा संभालने का निर्णय लिया। गौरा देवी सहित 27 महिलाएं 2400 पेड़ों की कटाई रोकने के लिए उनके साथ चिपक गई। उनका कहना था कि पेड़ काटने से पहले उनके शरीर पर आरी चलानी पड़ेगी। वह कई दिनों तक भूखे प्यासे पेड़ों से चिपकी रहीं, ताकि उनकी कटाई रोकी जा सके।
'चिपको वुमन' के नाम से हुईं मशहूर
उनकी इस पहल से उन्हें दुनियाभर में 'चिपको वुमन' के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने पेड़ों को बचाने के लिए जो किया वो कभी नहीं भुलाया जा सकता है।
कौन थीं गौरा देवी?
गौरा देवी की शादी महज 12 साल की उम्र में कर दी गई थी। उन्हें कठिनाओं का सामना तो तब करना पड़ा जब 22 साल की उम्र में उनके पति की मृत्यु हो गई। ढाई साल के बेटे और बूढ़े सास-ससुर की जिम्मेदारी गौरा पर आ गई। अपने खेतों में हल जुतवाने के लिए उन्हें दूसरे पुरुषों से विनती करनी पड़ती थी लेकिन उन्होंने कभी भी हार नहीं मानी। इसी बीच उनके सास-ससुर की भी मौत हो गई।
नहीं गई स्कूल लेकिन वेद-पुराणों की थी पूरी जानकारी
भले ही गौरा देवी कभी स्कूल ना जा सकी हो लेकिन पेड़ों व पर्यावरण का महत्व वह भली-भांति जानती थी। उनका कहना था कि जंगल हमारे घर जैसा है, जहां से हमें फल-फूल, सब्जियां आदि मिलती है। अगर पेड़ काटोगे तो बाढ़ आएगी और तबाही होगी। यही नहीं, उन्हें वेद-पुराणों, रामायण, भगवत गीता, महाभारत यहां तक कि प्राचीन ऋषि-मुनियों की भी काफी जानकारी थी।
महिला मंगल दल की रही अध्यक्ष
घर चलाने के साथ गौर गांव के कामों में हाथ बटाती रहीं, जिसे देखकर गांव वालों ने उन्हें महिला मंगल दल की अध्यक्ष बना दिया। अफसोस, 66 साल की उम्र साल 199 में गौरा देवी इस दुनिया को अलविदा कह गईं।
चिपको आन्दोलन की जननी गौरादेवी / इतिहास स्मृति 26 मार्च
गौरा ने देखा कि मजदूर जंगल काटने जा रहे थे। गौरादेवी ने शोर मचाकर अन्य महिलाओं को भी बुला लिया। महिलाएं पेड़ों से लिपट गयीं। उन्होंने ठेकेदार को बता दिया कि उनके रहते जंगल नहीं कटेगा
आज पूरी दुनिया लगातार बढ़ रही वैश्विक गर्मी से चिन्तित है। पर्यावरण असंतुलन, कट रहे पेड़, बढ़ रहे सीमेंट और कंक्रीट के जंगल, बढ़ते वाहन, ए.सी, फ्रिज, सिकुड़ते ग्लेशियर तथा भोगवादी पश्चिमी जीवन शैली इसका प्रमुख कारण है।
हरे पेड़ों को काटने के विरोध में सबसे पहला आंदोलन पांच सितम्बर, 1730 में राजस्थान में इमरती देवी के नेतृत्व में हुआ था, जिसमें 363 लोगों ने अपना बलिदान दिया था। इसी प्रकार 26 मार्च, 1974 को चमोली गढ़वाल के जंगलों में भी ‘चिपको आंदोलन’ हुआ, जिसका नेतृत्व ग्राम रैणी की एक वीरमाता गौरादेवी ने किया था।
गौरादेवी का जन्म 1925 में ग्राम लाता (जोशीमठ, उत्तरांचल) में हुआ था। विद्यालयीन शिक्षा से विहीन गौरा का विवाह 12 वर्ष की अवस्था में ग्राम रैणी के मेहरबान सिंह से हुआ। 19 वर्ष की अवस्था में उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई और 22 वर्ष में वह विधवा भी हो गयी। गौरा ने इसे विधि का विधान मान लिया।
पहाड़ पर महिलाओं का जीवन बहुत कठिन होता है। सबका भोजन बनाना, बच्चों, वृद्धों और पशुओं की देखभाल, कपड़े धोना, पानी भरना और जंगल से पशुओं के लिए घास व रसोई के लिए ईंधन लाना उनका नित्य का काम है। इसमें गौरादेवी ने स्वयं को व्यस्त कर लिया।
1973 में शासन ने जंगलों को काटकर अकूत राजस्व बटोरने की नीति बनाई। जंगल कटने का सर्वाधिक असर पहाड़ की महिलाओं पर पड़ा। उनके लिए घास और लकड़ी की कमी होने लगी। हिंसक पशु गांव में आने लगे। धरती खिसकने और धंसने लगी। वर्षा कम हो गयी।हिमानियों के सिकुड़ने से गर्मी बढ़ने लगी और इसका वहां की फसल पर बुरा प्रभाव पड़ा। लखनऊ और दिल्ली में बैठे निर्मम शासकों को इन सबसे क्या लेना था, उन्हें तो प्रकृति द्वारा प्रदत्त हरे-भरे वन अपने लिए सोने की खान लग रहे थे।
गांव के महिला मंगल दल की अध्यक्ष गौरादेवी का मन इससे उद्वेलित हो रहा था। वह महिलाओं से इसकी चर्चा करती थी। 26 मार्च, 1974 को गौरा ने देखा कि मजदूर बड़े-बड़े आरे लेकर ऋषिगंगा के पास देवदार के जंगल काटने जा रहे थे। उस दिन गांव के सब पुरुष किसी काम से जिला केन्द्र चमोली गये थे। सारी जिम्मेदारी महिलाओं पर ही थी। अतः गौरादेवी ने शोर मचाकर गांव की अन्य महिलाओं को भी बुला लिया। सब महिलाएं पेड़ों से लिपट गयीं। उन्होंने ठेकेदार को बता दिया कि उनके जीवित रहते जंगल नहीं कटेगा।
ठेकेदार ने महिलाओं को समझाने और फिर बंदूक से डराने का प्रयास किया; पर गौरादेवी ने साफ कह दिया कि कुल्हाड़ी का पहला प्रहार उसके शरीर पर होगा, पेड़ पर नहीं। ठेकेदार डर कर पीछे हट गया। यह घटना ही ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुछ ही दिनों में यह आग पूरे पहाड़ में फैल गयी। आगे चलकर चंडीप्रसाद भट्ट तथा सुंदरलाल बहुगुणा जैसे समाजसेवियों के जुड़ने से यह आंदोलन विश्व भर में प्रसिद्ध हो गया।
चार जुलाई, 1991 को इस आंदोलन की प्रणेता गौरादेवी का देहांत हो गया। यद्यपि जंगलों का कटान अब भी जारी है। नदियों पर बन रहे दानवाकार बांध और विद्युत योजनाओं से पहाड़ और वहां के निवासियों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। गंगा-यमुना जैसी नदियां भी सुरक्षित नहीं हैं; पर रैणी के जंगल अपेक्षाकृत आज भी हरे और जीवंत हैं। सबको लगता है कि वीरमाता गौरादेवी आज भी अशरीरी रूप में अपने गांव के जंगलों की रक्षा कर रही हैं।
#ChipkoAndolan #Gauradevi
टिप्पणियाँ