श्री बद्रीनाथ जी... (shri badrinath ji...)

 श्री बद्रीनाथ जी...

  1. श्री बद्रीनाथ धाम उत्तराखंड के साथ ही साथ देश के चार धामों में से भी एक है। इस धाम के बारे में यह कहावत है, कि ‘जो जाए बदरी, वो ना आए ओदरी’ यानी जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है उसे पुनः माता के उदर यानी गर्भ में फिर नहीं आना पड़ता है। इसलिए शास्त्रों में बताया गया है कि मनुष्य को जीवन में कम से कम एक बार बद्रीनाथ के दर्शन जरूर करना चाहिए।
  2. श्री ब्रदीनाथजी के चरण पखारती है अलकनंदा। पुराणों में बताया गया है कि बद्रीनाथ में हर युग में बड़ा परिवर्तन। सतयुग तक यहां पर हर व्यक्ति को भगवान श्री विष्णु के साक्षात दर्शन हुआ करते थे। त्रेता में यहां देवताओं और साधुओं को भगवान के साक्षात् दर्शन मिलते थे। द्वापर में जब भगवान श्री कृष्ण रूप में अवतार लेने वाले थे उस समय भगवान ने यह नियम बनाया कि अब से यहां मनुष्यों को उनके विग्रह के दर्शन होंगे। तब से भगवान के उस विग्रह के दर्शन प्राप्त होते हैं।
  3. बद्रीनाथ को शास्त्रों और पुराणों में दूसरा बैकुण्ठ कहा जाता है। एक बैकुण्ठ क्षीर सागर है जहां भगवान विष्णु निवास करते हैं और श्री विष्णु का दूसरा निवास बद्रीनाथ है। जो धरती पर मौजूद है। बद्रीनाथ के बारे यह भी माना जाता है कि यह कभी भगवान शिव का निवास स्थान था। लेकिन श्री विष्णु भगवान ने इस स्थान को शिव से मांग लिया था।
  4. चार धाम यात्रा में सबसे पहले यमुनोत्री के दर्शनहोते हैं फिर गंगोत्री के दर्शन होते हैं यह है गोमुख जहां से मां गंगा की धारा निकलती है। फिर केदारनाथ जी के और इस यात्रा में सबसे अंत में बद्रीनाथ के दर्शन होते हैं। बद्रीनाथ धाम दो पर्वतों के बीच बसा है। इसे नर नारायण पर्वत कहा जाता है। कहते हैं यहां पर भगवान विष्णु के अंश नर और नारायण ने तपस्या की थी। नर अगले जन्म में अर्जुन और "नारायण" श्री कृष्ण हुए।
  5. बद्रीनाथ की यात्रा में पहले यमुनोत्री आता है। यहाँ देवी यमुना का मंदिर है। गंगोत्री में गंगा माता का मंदिर है  और केदार नाथ जी में केदारनाथ के दर्शन होते हैं। मान्यता है कि जब केदारनाथ और बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं उस समय मंदिर मे एक दीपक जलता रहता है। इस दीपक के दर्शन का बड़ा महत्व है। मान्यता है, कि ६ महीने तक बंद दरवाजे के अंदर इस दीप को देवता जलाए रखते हैं।
  6. जोशीमठ में नृसिंह मंदिर भी है। इस मंदिर का संबंध बद्रीनाथ से माना जाता है। ऐसी मान्यता है इस मंदिर भगवान नृसिंह की एक बाजू काफी पतली है जिस दिन यह टूट कर गिर जाएगा उस दिन नर नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे और बद्रीनाथ के दर्शन वर्तमान स्थान पर नहीं हो पाएंगे।
  7. बद्रीनाथ तीर्थ का नाम बद्रीनाथ कैसे पड़ा यह अपने आप में रोचक कथा है। कहते हैं एक बार देवी श्री लक्ष्मी... जब भगवान श्री विष्णु से रूठ कर मायके चली गई तब भगवान श्री विष्णु यहां आकर तपस्या करने लगे। जब देवी लक्ष्मी की नाराजगी दूर हुई तो भगवान विष्णु को ढूंढते हुए यहां आई। उस समय यहां बदरी का वन यानी बेर फल का जंगल था। बदरी के वन में बैठकर भगवान ने तपस्या की थी इसलिए देवी श्री लक्ष्मी ने भगवान श्री विष्णु को बद्रीनाथ नाम दिया।
  8. सरस्वती नदी के उद्गम पर स्थित सरस्वती मंदिर जो बद्रीनाथ से तीन किलोमीटर की दूरी पर माणा गांव में स्थित है। सरस्वती नदी अपने उद्गम से महज कुछ किलोमीटर बाद ही अलकनंदा में विलीन हो जाती है। कहते हैं कि बद्रीनाथ भी कलियुग के अंत में वर्तमान स्थान से विलीन हो जाएंगे और इनके दर्शन नए स्थान पर होंगे जिसे भविष्य मे बद्री के नाम से जाना जायगा।
  9. मान्यता है कि बद्रीनाथ में में भगवान शिव को ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी। इस घटना की याद दिलाता है वह स्थान जिसे आज ब्रह्म कपाल के नाम से जाना जाता है। ब्रह्मकपाल एक ऊंची शिला है जहां पितरों का तर्पण श्रद्घ किया जाता है। माना जाता है कि यहां श्राद्घ करने से पितरों को मुक्ति मिल जाती है।
  10. बद्रीनाथ के पुजारी शंकराचार्य के वंशज होते हैं जो रावल कहलाते हैं। यह जब तक रावल के पद पर रहते हैं इन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। रावल के लिए स्त्रियों का स्पर्श भी पाप माना जाता है।

भगवान बदरीनाथ अब 6 महीने घृत कंबल में लिपटे रहेंगे।

  • भगवान बदरीनारायण को जो घृत कंबल ओढ़ाया जाता है, उसे माणा गांव की महिलाएं और कन्याएं मिलकर तैयार करती हैं...
  • उत्तराखंड का बदरीनाथ धाम... भगवान विष्णु का ये धाम जितना विशेष है, उतनी ही विशेष हैं इस धाम से जुड़ी मान्यताएं।
  • कल बदरीनाथ धाम के कपाट शीतकाल के लिए बंद कर दिए गए। देश के अलग अलग हिस्सों से पहुंचे करीब हजारो श्रद्धालु इस मौके के गवाह बने।
  • बदरीश पंचायत (बदरीनाथ गर्भगृह) से उद्धव जी और कुबेर जी की उत्सव मूर्ति योग ध्यान बदरी मंदिर पांडुकेश्वर के लिए प्रस्थान करेगी। बदरीनाथ धाम के कपाट बंद होने के दौरान भगवान बदरीविशाल को विशेष घृत कंबल से लपेटा गया।
  • बदरीनाथ में ये परंपरा सदियों से निभाई जाती रही है। चलिए आज इस खास परंपरा और इसके महत्व के बारे में आपको बताते हैं। भगवान बदरीनाथ को ओढ़ाया जाने वाला घृत कंबल माणा गांव की कन्याएं और सुहागिन तैयार करती हैं।
  • कंबल बनाने की प्रक्रिया भी बेहद खास है। कंबल बनाने के लिए शुभ दिन चुना जाता है। कार्तिक माह में शुभ दिन पर माणा गांव की महिलाएं इस कंबल को तैयार करती हैं। महिलाएं ऊन को कातकर सिर्फ एक दिन के भीतर कंबल तैयार करती हैं। ये काम पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ किया जाता है।
  • जिस दिन कंबल बनाना होता है उस दिन महिलाएं और कन्याएं उपवास रखती हैं। कंबल तैयार होने के बाद कार्तिक माह में शुभ दिन निकाला जाता है और इस शुभ दिन पर माणा गांव वाले ये कंबल बदरी केदार मंदिर समिति को सौंप देते हैं।
  • जिस दिन मंदिर के कपाट बंद होते हैं, उस दिन मंदिर के मुख्य पुजारी रावल इस कंबल पर गाय के घी और केसर का लेप लगाकर इससे भगवान बदरीनाथ को ढक देते हैं, ताकि उन्हें ठंड ना लगे। ग्रीष्मकाल में जब भगवान बदरीनाथ के कपाट खुलते हैं तो इस कंबल को महाप्रसाद के रूप में श्रद्धालुओं को वितरित किया जाता है।
  • गुरुवार 19 नवम्बर मतलब आज के दिन ही धार्मिक परंपरानुसार रावल जी ने माता लक्ष्मी का वेश धारण कर लक्ष्मी जी की प्रतिमा को बदरीनाथ गर्भगृह में रखा और माणा गांव की महिलाओं द्वारा बनाए कंबल पर घी का लेपन कर इसे भगवान बदरीनाथ को ओढ़ाया।
  • अब आने वाले 6 महीने भगवान बदरीनाथ इसी घृत कंबल में विराजमान रहेंगे।
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