लोकतंत्र और पहाड़ की पीड़ा: एक काव्यिक दृष्टिकोण - Democracy and the pain of the mountains: a poetic perspective.
लोकतंत्र और पहाड़: स्वांग और सच्चाई की कथा
इस कविता में पहाड़ की वर्तमान स्थिति और लोकतंत्र की वास्तविकता को बेबाकी से व्यक्त किया गया है। कवि ने लोकतांत्रिक स्वांग और पहाड़ी समाज की कठिनाइयों को शब्दों में उकेरा है, जो इस बात को उजागर करता है कि कैसे चुनावी और राजनीतिक वादे पहाड़ के लोगों की असली समस्याओं से दूर हैं। कविता में पहाड़ के विभिन्न पहलुओं को शामिल किया गया है, जिसमें राजनीति, विकास, और समाज की वास्तविकता को दर्शाया गया है।
कविता:
लोकतंत्र पर पहाड़ की पीड़ा...
कस कसा स्वांग दिखाय
गांधी के सब ठगनैं आय
गौ का स्वैण दिखै बे
ठुल ठुल शहर बणाय
यौं मुख बगियै राय
ऊंठ सुकियै राय
अंग्रेजों के राज ग यो
सुकिल कपड़ि आय
पैली टोपि छाजि
बल्दूं की जोड़ि भाजि
जवाहार कट पैरि
गांव में आस जागि
चमचमान हौंस आय
लू में कांस सांटि ल्याय
सिलफरा भनां ल जसि
तौल कस्यार खाय
को झोपड़ी कं रौ
को दी कैं ल्यों रौ
जाति कुजाति क
को झगड़ लगौं रौ
हम लै पड़ा फैलां
बकार बाघ दगण रैंला
यस मुलुक बणल
गांव दिन बदई जैंला
विकास क औफिस खुला
प्रधानों की भाग खुला
जेल दन्याव नि हाल
छै ऊ किरसांण ठुला
कस य बखत आय
टोपि कैं ज्वत ल खाय
पहाड़ डाढ हालनीं
भाबर में बहि रै माय
भाबर का भाग जागा
मनखि सब उथैं भाजा
गांव की ठेकी ढिनाइ गई
दै दुध पैकेट में गा जा
खेती सब बंजै हाला
च्याल अब कहाँ जाला
रूपैं कतुक ल्याला
खांहणि त र्वटै खाला
ठुल ठुल औफिस बण
फैक्ट्री बाजारों रंन
बांणि बांणि मनखि आया
घर पन चुंणमनं
गांव में कुथाव डाल
च्यला तू लै त जालै
भूड़ भाबर पन
द्वि र्वाट कमै खालै
मकान निसासि रौल
पटांगण कहैं रो ल
उखोव गिच खोलि
सुंणूं बांज खुपावांक बोल
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