उत्तराखण्ड में उद्यान विकास का इतिहास | History of Horticulture Development in Uttarakhand in Hindi

उत्तराखण्ड में उद्यान विकास का इतिहास (Horticulture Development History in Uttarakhand)

उत्तराखण्ड में उद्यान विकास का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इसका उल्लेख प्राचीन शिलालेखों और साहित्य में मिलता है। तालेश्वर ताम्रपत्र में वटक शब्द का उल्लेख किया गया है, जो इस क्षेत्र में उद्यानों के अस्तित्व का प्रमाण है। यह माना जाता है कि यह शब्द केले के बगीचों का द्योतक है। डॉ. इन्दु मेहता के अनुसार, केले के उद्यान का यहां प्राचीन काल में विकास हुआ था। इसके अलावा, चंद राजाओं के शासनकाल में कपीना (अल्मोड़ा) में एक फलोद्यान का विकास किया गया था, और कत्यूरी रानी मौलादेवी ने रानीबाग में एक बाग का निर्माण कराया था।

यूरोपियों द्वारा उद्यान विकास की शुरुआत

उत्तराखण्ड में उद्यान विकास को एक वैज्ञानिक और व्यवसायिक रूप में लाने का श्रेय यूरोपियों को जाता है। उन्होंने इस क्षेत्र की जलवायु को ध्यान में रखते हुए शीतोष्ण फलों जैसे सेब, नाशपाती, आड़ू इत्यादि की खेती की शुरुआत की। इसमें सबसे महत्वपूर्ण फल सेब था, जिसने यूरोपियों का सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया। उत्तराखण्ड में वाणिज्यिक स्तर पर सेब की खेती की शुरुआत 1869 में चौबटिया में सरकारी उद्यान की स्थापना के बाद हुई।

एटकिन्सन ने अपने हिमालय गजेटियर में कुमाऊँ में उगाए जाने वाले कई फलों जैसे आड़ू, खुमानी, प्लम, सेब, नाशपाती और संतरे के बारे में जानकारी दी है। उन्होंने बताया कि 9000 फीट की ऊँचाई पर लाल प्रजाति के जंगली रूबस बड़ी मात्रा में उगते थे, जो कि यहां की प्राकृतिक संपदा का हिस्सा थे।

उत्तराखंड में आलू की खेती (Potato Farming in Uttarakhand)

फलों के साथ-साथ उत्तराखण्ड में सब्जियों की खेती का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिनमें आलू प्रमुख था। हेनरी रैम्जे ने ब्रिटिश कुमाऊँ में आलू की खेती को प्रसारित किया। माना जाता है कि आलू की खेती को भारत में गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिग्स ने प्रोत्साहित किया था। उत्तराखण्ड में आलू की पहली खेती 1823 ई. में देहरादून में मेजर यंग द्वारा की गई थी।

श्रीमती हैरी बर्जर ने 1864 में नैनीताल और उसके आसपास के क्षेत्रों में विदेशी आलू की खेती शुरू की। इसके बाद, आलू के उन्नत बीजों और उत्पादन के लिए ज्योलीकोट में कुमाऊँ गवर्नमेण्ट गार्डन की स्थापना 1909 में की गई, और इसका कार्यभार नार्मन गिल को सौंपा गया।

नैनीताल आलू जल्द ही एक प्रमुख ट्रेडमार्क बन गया और इसे देशभर में "पहाड़ी आलू" के नाम से जाना जाने लगा। आलू की सबसे लोकप्रिय प्रजाति लॉग कीपर को कुमाऊँ में लाने का श्रेय नार्मन गिल को दिया जाता है।

आलू की कृषि को वैज्ञानिक तरीके से प्रोत्साहित करने के लिए 1943 में भवाली में एक इम्पीरियल पोटेटो रिसर्च स्टेशन की स्थापना की गई, जो इम्पीरियल कृषि अनुसंधान केन्द्र दिल्ली के अंतर्गत आता था।

उत्तराखंड में सेब की खेती(Apple Farming in Uttarakhand)

उत्तराखंड में सेब की खेती का आरंभ 1864 में हर्षिल से हुआ, जब फ्रेडरिक विल्सन नामक अंग्रेज ने यहां बागवानी फसलों की शुरुआत की। इस दौरान सेब की एक प्रजाति "विलसन" के नाम से प्रसिद्ध हुई। चौबटिया उद्यान की स्थापना 1869 में की गई, जिसका उद्देश्य बागवानी का विकास करना था। यहां पर प्रो स्टोक द्वारा सेब की प्रसिद्ध रेड डेलीसियस प्रजाति उगाई गई, जो आज भी लोकप्रिय है।

सन् 1932 में चौबटिया उद्यान में "हिल फ्रूट रिसर्च स्टेशन" की स्थापना हुई और 1936 में अल्मोड़ा में "विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान" का स्थानांतरण हुआ, जो पर्वतीय फसलों के शोध को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण कदम था।

  1. 1864 में फ्रेडरिक विल्सन नामक अंग्रेज द्वारा हर्षिल में बागवानी फसलों की कृषि आरम्भ की।
  2. आज भी यहां सेब की एक प्रजाति विलसन के नाम से प्रसिद्ध है।
  3. चौबटिया उद्यान की स्थापना 1869 में वन विभाग द्वारा डब्लू क्रा की देखरेख में की गई।
  4. डब्लू क्रा इस उद्यान के प्रथम सुपरिन्टेंडेंट थे।
  5. प्रो स्टोक जो एक जाने माने उद्यान विशेषज्ञ थे उन्होंने सेब की रेड डेलीसियस नामक प्रजाति को यहां पर उगाया।
  6. 1906 में लवग्रोव जो कि उस समय वन संरक्षक के पद में थे इस उद्यान में आए व उन्होंने इस उद्यान के प्रबंधन हेतु सरकार के लिए एक रिपोर्ट तैयार की।
  7. सन् 1914 में राजकीय उद्यान चौबटिया वन विभाग द्वारा कुमाऊँ कमिश्नर के अधीन कर दिया गया और इसका प्रबन्धन नार्गन गिल को सौंपा गया।
  8. गिल ने यहां जैम व मुरब्बा बनाने, फल प्रसंस्करण एवं वितरण हेतु कारखाने की स्थापना की।
  9. उन्होंने यहां पर औषध पादपों की खेती भी प्रारम्भ की।
  10. गिल ने पहाड़ी जिलों का भ्रमण किया तथा उन्होंने कई महत्वपूर्ण जंगली पौधों के बारे में जानकारियां एकत्र की तथा उन्होंने फ्लोरा ऑफ कुमाऊँ शीर्षक से एक हर्बेरियम भी बनाया था।
  11. गिल के सहयोगी राम लाल शाह थे।
  12. गिल का काल कुमाऊँ के बागवानी विकास का स्वर्णयुग था।
  13. सन् 1932 में राजकीय उद्यान चौबटिया में एक हिल फ्रूट रिसर्च स्टेशन की स्थापना की गई थी।
  14. पर्वतीय सब्जियों में शोध को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सन् 1936 में अल्मोड़ा में विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की स्थापना प्रसिद्ध वैज्ञानिक बोसी सेन द्वारा की गई।
नोट:- विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की स्थापना 1924 में कोलकाता में की गई व 1936 में इसे अल्मोड़ा स्थानांतरित किया गया।

उत्तराखण्ड में बैलाडोना की खेती(Belladonna Cultivation in Uttarakhand)

1910 से गिल द्वारा उत्तराखंड में बैलाडोना की खेती शुरू की गई थी। बैलाडोना के बीज विदेशों से मंगाए गए और नैनीताल व चौबटिया में बोए गए। यह जड़ी-बूटी औषधीय महत्व रखती है और इसके फूलों से दवाएं बनाई जाती हैं।

  1. गिल ने इसकी खेती 1910/1903 से ही शुरू कर दी थी।
  2. गिल ने कुमाऊँ में बोन हेतु जैटोपा बैलाडोना का बीज विदेशों से मंगा कर नैनीताल तथा चाबटिया में बोया।
  3. सन् 1944 में रानीखेत में पायरेथ्रम के फूलों की खेती शुरू की गई। इसके फूलों से मलेरिया के मच्छर मारने को दवा बनती थी।
  4. सन् 1924 में गिल की मृत्यु के बाद चौबटिया उद्यान संकटों से घिर गया। कुछ साल बाद सरकार ने उद्यान को मुमताज हुसैन को पट्टे पर दे दिया था।

उत्तराखण्ड में चाय की खेती(Tea Cultivation in Uttarakhand)

उत्तराखंड में चाय की खेती की शुरुआत 1834 में हुई, जब ब्रिटिश सरकार ने चीन से चाय के बीज मंगवाए। सन् 1835 में अल्मोड़ा के लक्ष्मेश्वर में डॉ. फॉल्कनर ने पहला चाय का बगीचा स्थापित किया। धीरे-धीरे कौसानी, भीमताल, और अन्य क्षेत्रों में चाय के बागान विकसित हुए। उत्तराखंड की जलवायु और मिट्टी चाय की खेती के लिए आदर्श मानी जाती है।

सन् 1924 में "चाय विकास परियोजना" की शुरुआत की गई, और राज्य के कई पर्वतीय क्षेत्रों में चाय की खेती को बढ़ावा मिला। 2004 में "चाय विकास बोर्ड" की स्थापना की गई और चाय के कई प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना हुई। कौसानी, भीमताल और चौकोड़ी जैसे क्षेत्रों की चाय अब विश्वभर में प्रसिद्ध है।

उत्तराखंड में चाय की खेती ने न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती दी है, बल्कि इसे वैश्विक स्तर पर भी पहचान दिलाई है।

  1. राज्य में मध्य हिमालय और शिवालिक पहाड़ियों के मध्य स्थित पर्वतीय ढालों पर चाय पैदा की जाती है। भारतीय चाय बोर्ड का कार्यालय अल्मोड़ा में है।
  2. चाय की खेती के लिए अर्द्ध एवं उष्ण जलवायु और 200-250 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है।
  3. राज्य में चाय, के बाग अल्मोड़ा, पौढ़ी गढ़वाल, नैनीताल, चमोली, पिथौरागढ़, देहरादून आदि सात पर्वतीय जिलों के 18 ब्लॉकों में एक हजार हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में फैले हैं।
  4. सन् 1824 में ब्रिटिश लेखक बिशप हेबर ने कुमाऊँ में चाय की संभावना व्यक्त करते हुए कहा है कि कुमाऊँ की धरती पर चाय के पौधे जंगली रूप में उगते हैं परन्तु कार्य में नहीं लाए जाते हैं।
  5. हेबर ने अपनी पत्रिका में लिखा था कि कुमाऊँ की मिट्टी का तापमान तथा अन्य मौसमी दशाएं चीन के प्रचलित
  6. चाय के बगानों से काफी मेल रखती हैं।
  7. बैंटिक ने सन् 1834 में कॉल्हने के नेतृत्व में एक एक चाय कमेटी का गठन किया जिसका मुख्य कार्य चाय के पौधे प्राप्त करना व बागान लगाने हेतु योग्य भूमि ढूंढना था।
  8. अंग्रेजों ने 1834 में यहां चाय के बागान के विकास हेतु चीन से चाय का बीज मंगवाया।
  9. सन् 1834 में झरीपानी (देहरादून) को चाय प्रशिक्षण हेतु सबसे उपयुक्त पाया गया।
  10. सन् 1835 में कलकत्ता से दो हजार पौधों की पहली खेप कुमाऊँ पहुंची जिसमें अल्मोड़ा के पास लक्ष्मेश्वर व भीमताल के पास भरतपुर में चाय की पौधशालाएं स्थापित की गई।
  11. अल्मोड़ा के लक्ष्मेश्वर में सबसे पहले डॉ० फाल्कनर ने 1835 बगीचा बनाया।
  12. नोट- उत्तराखंड में व्यावसायिक स्तर पर चाय की खेती 1835 में डा रायले ने शुरू की।
  13. सन् 1835 में कोठ (टिहरी गढ़वाल) में भी चाय की खेती प्रारम्भ की गई।
  14. यहां की चाय की समानता चीन से आयातित की जाने वाली उलांग चाय से की गई।
  15. सन् 1838 में फॉरच्यून नामक अंग्रेज अधिकारी को चाय के बारे में ज्ञान प्राप्त करने के लिए चीन भेजा गया।
  16. सन् 1841 में हवालबाग में मेजर कॉर्बेट ने बगीचा बनाया जिसको लाला अमरनाथ साह ने खरीदा।
  17. सन् 1843 में कैप्टन हडलस्टन ने पौड़ी व गडोलिया में चाय बागानों की स्थापना की।
  18. सन् 1844 में देहरादून के पास कौलागीर में सरकारी बागान की शुरूआत डॉ० जेमिसन के निर्देशन में हुई।
  19. सन् 1850 में राम जी साहिब ने कत्यूर में बगीचा बनाया जिसे श्री नार्मन टूप ने खरीदा।
  20. सन् 1850 में ईस्ट इण्डिया कंपनी के आमंत्रण पर एसाई वांग नामक एक चीनी चाय विशेषज्ञ भी गढ़वाल आए थे।
  21. आगे चलकर अंग्रेजों द्वारा यहां के अनेक क्षेत्रों जैसे वज्यूला, डूमलोट, ग्वालदम, बेड़ीनाग, चौकड़ी आदि में चाय
  22. बगीचे लगाए गए। इन बगीचों में कौसानी, बेड़ीनाग व लोध से चाय का खूब व्यापार हुआ।
  23. पौड़ी नगर के निकट गडोली में चौफिन नामक एक चीनी काश्तकार द्वारा सरकारी चाय फैक्ट्री की स्थापना (1972 में की गई।

नोट- यह उत्तराखंड में स्थापित पहली सरकारी चाय फैक्टरी थी।

  1. 1918 में चौकड़ी व बेड़ीनाग के बगीचे को देव सिंह बिष्ट द्वारा जिम कॉर्बेट के मामा राबर्ट बिलेयर से खरीद लिया गया।
  2. 1928 में नैनीताल में यूरोपियनों द्वारा पांच चाय के बगान लगाए गए। जो कि भीमताल में मि जोन्स द्वारा, भवाली (न्यूटन का बगान), भवाली (मुलियन का बगान), व्हीलर द्वारा घोड़ाखाल में डेरियाज द्वारा रामगढ़ में उद्यान लगाए गए।

नोट- भीमताल में चाय का बगान 1928 में मि. जोन्स द्वारा स्थापित किया गया था।

  1. सन् 1930 में अल्मोड़ा जिले का सबसे बड़ा चाय उद्यान मल्ला कत्यूर में था तथा दूसरा कौसानी चाय उद्यान था।
  2. इसके अलावा अलकनंदा नदी बेसिन में भी चाय की खेती होती थी यहां सबसे बड़ा चाय उद्यान ग्वालदम में स्थित था।

नोट- सर्वप्रथम बीजों के कृषिकरण की लिखित जानकारी मूरक्राफ्ट के यात्रा वृतांत से प्राप्त होती है।
नोट:- उत्तराखंड राज्य गठन के पश्चात यहां उत्पादित होने वाली चाय का ब्रांड नाम कैच उत्तराखंड रखा गया है।
चाय प्रसंस्करण इकाई की स्थापना नैनीताल के घोड़ाखाल में की गई है।
झलतोला टी स्टेट बेरीनाग, पिथौरागढ़ की चाय का विश्व प्रसिद्ध घोषित किया गया है।
चाय विकास परियोजना का प्रारंभ 1993-94 में किया गया था।
1994 में चाय उत्पादन का दायित्व कुमाऊँ मण्डल विकास निगम को दिया गया।
राज्य के कौसानी, भीमताल, भवाली, चौकोड़ी तथा कोटाबाग आदि के टी स्टेट चाय बागान ब्रिटिश काल से ही विख्यात रहे हैं।
राज्य में चाय विकास बोर्ड का गठन 11 फरवरी 2004 को किया गया है, जो चौघाणपाटा (अल्मोड़ा) में स्थित चाय विकास बोर्ड द्वारा 2012-15 तक 3 नई चाय फैक्ट्रियां चम्पावत, नौटी व हरीनगरी की स्थापना कर उच्च गुणवत्ता वाली चाय आर्थीडिक्स चाय उत्पादित की जा रही है।

चाय के इतिहास के संबंधित कुछ प्रमुख तिथियां (Some Important Dates Related to the History of Tea)

  1. 1824 -विशप हेबर की कुमाऊँ यात्रा और चाय की खेती की संभावना व्यक्त की थी।
  2. 1834 - विलियम बैंटिक द्वारा कॉल्हने के नेतृत्व में चाय कमेटी का गठन।
  3. 1834-ब्रिशिश सरकार द्वारा चाय की खेती हेतु चीन से चाय का बीज मंगवाया गया।
  4. 1834 -देहरादून स्थित झरीपानी को चाय प्रशिक्षण हेतु उपयुक्त पाया गया।
  5. 1835 -कलकत्ता से सर्वप्रथम 2 हजार चाय के पौधे कुमाऊँ पहुंचे।
  6. 1835 -अल्मोड़ा के लक्ष्मेश्वर में सबसे पहले डॉ फॉल्कनर ने चाय बगीचा लगाया।
  7. 1835 - टिहरी गढ़वाल के कोठ में चाय की खेती प्रारंभ की।
  8. 1835 - कौसानी में चाय उत्पादन का कार्य शुरू ।
  9. 1838/48 - में फॉर्चून नामक अंग्रेजी अधिकारी को चाय की खेती सीखने के लिए चीन भेजा गया था।
  10. 1841 - हवालबाग में मेजर कॉर्बेट द्वारा चाय बगीचा लगाया गया।
  11. 1842 - पौढ़ी में 1842 में मिस्टर ब्लैकवर्थ के अधीन चाय का उत्पादन शुरू। इसे पौचोंग नाम दिया गया।
  12. 1843 - कैप्टन हडलस्टन द्वारा पौढ़ी व गडोलिया में चाय बागानों की स्थापना की गई।
  13. 1844 - डॉ जेमिसन द्वारा देहरादून के पास कौलागिरी/कोवलाघीर में सरकारी बागान की शुरूआत की गई।
  14. 1850 - कत्यूरी स्थित चाय बागान की स्थापना राम जी साहिब द्वारा की गई, जिसे नॉर्मन ट्रूप ने खरीदा।
  15. 1850 - एसआई वांग नामक चीनी चाय विशेषज्ञ गढ़वाल आए।
  16. 1856 -गंगोली व कत्यूर में रैम्जे द्वारा चाय बागानों की शुरूआत की गई।
  17. 1907 -चौफिन नामक चीनी काश्तकार द्वारा पौढ़ी के गडोली में सरकारी चाय फैक्ट्री की स्थापना की गई।
  18. 1918 -चौकोड़ी व बेरीनाग के चाय बागान देव सिंह बिष्ट द्वारा रॉबर्ट विलेयर से खरीदे गए।
  19. 1928 -मिस्टर जोन्स द्वारा भीमताल, भवाली में न्यूटन और मुलियन का बागान, घोड़ाखाल में व्हीलर का बागान, रामगढ़ में मिस्टर डेरियाज द्वारा चाय बागानों की स्थापना की गई।
  20. 1930 -अल्मोड़ा जिले का सबसे बड़ा चाय बागान मल्ला कत्यूर तथा दूसरा कौसानी चाय उद्यान था।
  21. 1993-94 – चाय विकास परियोजना प्रारंभ ।
  22. 1994 -चाय उत्पादन का दायित्य कुमाऊँ मण्डल विकास निगम को दिया गया।
  23. 2001 -कौसानी में चाय फैक्ट्री की शुरूआत की गई।
  24. 2002 - कौसानी में उत्तरांचल चाय का उत्पादन शुरू किया गया।
  25. 11 फरवरी, 2004 चाय विकास बोर्ड का गठन किया गया ।

कुमाऊँ गवर्नमेंट गार्डन चौबटिया, रानीखेत

सन् 1827 में डॉ० रायल ने तत्कालीन गवर्नर जनरल सर एमहर्स्ट को यह सुझाव दिया कि कुमाऊँ गढ़वाल की प्राकृतिक रचना एवं जलवायु चाय की खेती के लिए उपयुक्त है। अतः यहां पर ब्रिटेन के सम्पन्न परिवारों को चाय बागान लगाने हेतु बसाया जाए।क्षजब यह खबर ब्रिटेन पहुंची तो 1830 से 1856 के बीच अंग्रेज परिवार कुमाऊँ के भीमताल, घोड़ाखाल, रामगढ़ आदि स्थानों पर आकर बसे थे।
कंपनी सरकार ने इन परिवारों को चाय बगान लगाने हेतु बड़ी मात्रा में भूमि आंवटित की। जो फ्री सैंपल इस्टेट कहलाती थी।
इन्हीं परिवारों में से एक टूप का परिवार भी था। जिसके अनेक सदस्य पलटन में उच्च पदों पर थे। इस परिवार ने चौबटिया से रानीखेत धोबीघाट के बीच चाय बगान स्थापित किया। स्थानीय लोगों ने इनका नाम 'चहाबगिच' कर दिया था।
रामलाल शाह जो चौबटिया में कार्यरत थे ने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद फ्लोरा रानीखेतयेन्सीज के नाम से लिपिबद्ध किया था।

Uttarakhand Geography,

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