उत्तराखण्ड की मृदा और कृषि | Soil and Agriculture of Uttarakhand in Hindi

उत्तराखंड की मृदा (Soil of Uttarakhand)

उत्तराखंड की मृदा: प्रकार, विशेषताएं और कृषि में उपयोगिता

उत्तराखंड की मृदा वह प्राकृतिक पदार्थ है, जो खनिज चट्टानों और कार्बनिक पदार्थों के अपक्षय एवं विगलन से निर्मित होती है। मृदा में खनिज तत्वों के अलावा जल, वायु, जैव पदार्थ, और सूक्ष्म जीव भी पाए जाते हैं, जो इसे कृषि और वनस्पति के लिए उपयुक्त बनाते हैं। राज्य की भौगोलिक विविधता के कारण यहां विभिन्न प्रकार की मिट्टियां पाई जाती हैं, जिनका उपयोग कृषि, वनस्पति और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के विकास में होता है।

उत्तराखंड की मृदा के प्रमुख प्रकार

1. तराई मृदा (Lowland Soil)

उत्तराखंड के दक्षिणी भाग में, देहरादून से ऊधम सिंह नगर तक पाई जाने वाली तराई मृदा महीन कणों से निर्मित होती है। यह मृदा अधिक परिपक्व होती है लेकिन इसमें नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी होती है। तराई मृदा नम और उपजाऊ होती है, जो गन्ना और धान की पैदावार के लिए अनुकूल है।

2. भावर मृदा

भावर मृदा तराई के उत्तर और शिवालिक के दक्षिण में पाई जाती है। यह मृदा कंकड़ों और पत्थरों से बनी होती है, जिससे पानी तेजी से नीचे चला जाता है। इसलिए यह मृदा कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है।

3. चारागाही मृदा (Pasture Soil)

यह मृदा नदियों और जलधाराओं के किनारे पाई जाती है। इसे पांच भागों में विभाजित किया जा सकता है: मटियार दोमट, अत्यधिक चूनेदार दोमट, कम चूनेदार दोमट, गैर चूनेदार दोमट और बलुई दोमट।

4. टर्शियरी मृदा (Tertiary Soil)

शिवालिक की पहाड़ियों और दून घाटियों में पाई जाने वाली यह मृदा हल्की और बलुई होती है, जो कम आर्द्रता धारण करती है। दून घाटी की मृदा में वनस्पति के अंश अधिक होते हैं, जिससे इसकी उपजाऊ क्षमता बेहतर होती है।

5. क्वार्ट्ज मृदा (Quartz Soil)

यह मिट्टी नैनीताल के भीमताल क्षेत्र में पाई जाती है। क्वार्ट्ज और शेल चट्टानों के अपक्षय से निर्मित यह मृदा हल्की और अनुपजाऊ होती है।

6. ज्वालामुखी मृदा (Volcanic Soil)

भीमताल क्षेत्र में पाई जाने वाली इस मृदा का निर्माण आग्नेय चट्टानों के अपक्षय से होता है। यह हल्की और बलुई मृदा कृषि कार्य के लिए उपयुक्त मानी जाती है।

7. दोमट मृदा (Loamy Soil)

शिवालिक पहाड़ियों के निचले ढालों और दून घाटी में पाई जाने वाली यह मृदा हल्के चिकनापन के साथ चूना, लौह अंश और जैव पदार्थों से युक्त होती है।

8. भूरी लाल-पीली मृदा (Brown Reddish-Yellow Soil)

नैनीताल, मंसूरी और चकराता के निकट पाई जाने वाली यह मृदा चूने, बलुआ पत्थर और शेल चट्टानों से निर्मित होती है। इसका रंग भूरा, लाल और पीला होता है। यह मृदा आद्रता धारण करने में सक्षम और उपजाऊ होती है।

9. लाल मृदा (Red Clay)

यह मृदा पहाड़ों की ढालों या पर्वतों के किनारे पाई जाती है। यह असंगठित मृदा होती है, जिसमें नमी की कमी होती है।

10. भस्मी मृदा (Burnt Clay)

कम ढाल वाले पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली यह मृदा उप-उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण क्षेत्रों में पाई जाती है।

11. उच्चतम पर्वतीय छिछली मृदा (Top Mountain Soil)

यह मृदा उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में मिलती है, जहां शुष्कता और वनस्पति की कमी होती है। यह मृदा पतली परत वाली और अपरिपक्व होती है।

12. उच्च मैदानी मृदा (Upland Soil)

यह मृदा 4000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पाई जाती है। यह हल्की क्षारीय होती है और इसमें कार्बनिक पदार्थों की अधिकता होती है।

13. उप-पर्वतीय मृदा (Sub-Mountain Soil)

यह मृदा घास के मैदानों से निचले भागों में पाई जाती है, जहां देवदार और स्प्रूस जैसे पेड़ मिलते हैं। यह मृदा अधिक आद्रता वाली और उपजाऊ होती है।

उत्तराखंड की मृदा का कृषि में उपयोग

उत्तराखंड की मृदा में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जा सकती हैं। तराई और दोमट मिट्टी धान, गन्ना, और गेहूं जैसी फसलों के लिए उपयुक्त है, जबकि पर्वतीय मृदा में अधिकतर वनस्पति और चारागाही भूमि होती है।

उत्तराखंड की विविधतापूर्ण मृदा राज्य के कृषि और पारिस्थितिकीय तंत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अनुकूल उपयोग से कृषि उत्पादकता और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सकता है। 

उत्तराखण्ड की कृषि (Agriculture of Uttarakhand)

उत्तराखण्ड एक कृषि प्रधान राज्य है। यहां की कार्यशील जनसंख्या का लगभग 70% भाग कृषि कार्य पर निर्भर करता है। पहाड़ी राज्य होने के कारण, राज्य का कुल क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किमी में से 46,035 वर्ग किमी पर्वतीय है, जबकि मात्र 7,448 वर्ग किमी मैदानी है। इसमें से केवल 12.90% भाग ही कृषि कार्य में प्रयुक्त होता है, जो कुल 6.90 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल है। राज्य में सर्वाधिक कृषि भूमि ऊधम सिंह नगर और हरिद्वार जनपद में है। इसके अलावा, राज्य को खाद्यान्न उत्पादन में भारत सरकार द्वारा कृषि कर्मा सांत्वना पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है।

पर्वतीय और मैदानी कृषि

राज्य में पर्वतीय कृषि का कुल कृषि क्षेत्रफल में 56% भाग है, जबकि 44% भाग मैदानी कृषि के अन्तर्गत आता है। पर्वतीय कृषि में मात्र 11% भूमि ही वास्तविक रूप से सिंचित है, जबकि मैदानी कृषि में यह आंकड़ा 44% है। हालांकि, मैदानी क्षेत्र मुख्य कृषि उत्पादन क्षेत्र के रूप में कार्य करता है। यहां की 69.77% जनसंख्या गांवों में निवास करती है, जो प्राथमिक क्षेत्र में नियोजित है।

आजीविका के साधन

राज्य की कुल कार्यशील जनसंख्या में से 33.38% लोग कृषि से जुड़े हैं। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, कृषि का राज्य के सकल घरेलू उत्पादन में 10.81% का योगदान था। उत्तराखण्ड में सर्वाधिक शुद्ध बोए गए भूमि क्षेत्रफल वाला जिला ऊधम सिंह नगर है, जबकि सबसे कम शुद्ध बोए गए भूमि क्षेत्रफल वाला जिला चम्पावत है।

कृषि जोतें (Agricultural Holdings in the State)

वर्ष 2015-16 की कृषि गणना के अनुसार, प्रदेश में कुल 8,81,305 जोतें हैं। कुल बाए गए क्षेत्रफल का 31% भाग गेहूं के अन्तर्गत आता है, जिससे यह प्रदेश की मुख्य फसल है। धान 25%, मंडुआ 10% और गन्ना 8% क्षेत्र में बोया जाता है। राज्य में कृषि भूमि नापने हेतु प्रयुक्त पैमाना मुट्ठी/नाली है:

  • 1 नाली = 200 वर्ग मीटर
  • 50 नाली = 10,000 वर्ग मीटर = 1 हेक्टेयर
  • 16 मुट्ठी = 1 नाली
  • 2.5 नाली = 40 मुट्ठी = 1 बीघा

राज्य में गढ़वाल मण्डल की अपेक्षा कुमाऊँ मण्डल में कृषि भूमि अधिक है। मैदानी भागों में कृषि भूमि का विभाजन मिट्टी की प्रकृति के आधार पर और पर्वतीय भागों में सिंचाई सुविधा के अनुसार होता है। राज्य गठन के समय सक्रिय जोतों की संख्या 9.26 लाख थी, जो वर्तमान में 8.91 लाख रह गई है, जिसमें 3.5% की कमी आई है।

भूमि बंदोबस्त

ब्रिटिश काल से पूर्व राज्य में किए गए भूमि बंदोबस्त मनुस्मृति पर आधारित थे। अंग्रेजों से ठीक पूर्व 1812 में गोरखा काल में भूमि-बन्दोबस्त किया गया था। ब्रिटिश काल का 9वां और सबसे महत्वपूर्ण भू-बन्दोबस्त 1863-73 में हुआ, जिसे विकेट बंदोबस्त कहा जाता है। इसमें पहली बार वैज्ञानिक पद्धति को अपनाया गया। इस बंदोबस्त में सिंचाई की उपलब्धता के आधार पर पर्वतीय भूमि को पांच वर्गों में बांटकर खातेदारों को उनकी भूमि का सटीक लेखा-जोखा प्रदान किया गया।

पर्वतीय कृषि भूमि के प्रकार (Types of Hill Farming Land)

राज्य में मैदानी भागों में कृषि भूमि का विभाजन मिट्टी की प्रकृति के आधार पर किया जाता है, जबकि पर्वतीय भागों में यह सिंचाई की सुविधा के अनुसार किया जाता है। इसके अंतर्गत प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं:

  1. तलाऊं (Flat Land)

    • राज्य की अधिकांश छोटी-बड़ी नदियां उर्वर घाटियों का निर्माण करती हैं, जिन्हें मध्यम कृषि उपज वाला क्षेत्र माना जाता है। कोसी नदी घाटी को धान का कटोरा कहा जाता है।
    • तलाऊं भूमि तीन प्रकार की होती है:
      1. सेराअत - उत्तम जलोड़ मिट्टी
      2. फणचर - पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा जल पर निर्भर
      3. सिमार - यहां निरन्तर जल भरा रहता है।
  2. उपराऊं भूमि (Above Land)

    • यह लाल रंग की होती है और इसे उखड़ भूमि कहा जाता है।
  3. उपराऊं अव्वल भूमि (Uppermost Land)

    • यह उपराऊं दोयम से डेढ़ गुना अच्छी होती है।
  4. उपराऊं दोयम भूमि (Secondary Land)

    • यह इजरान भूमि से दो गुना अच्छी होती है।

इजरान भूमि (Ejran Land)

इजरान भूमि उन अपरिपक्व पथरीली भूमि को कहते हैं जो वन के किनारे या बीच में स्थित होती हैं। यह भूमि कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है और इसे कटील, उखेड़ी, और इज्जर भूमि भी कहा जाता है।

स्थानीय भूमि का बंटवारा (Division of Local Land)

  • गाड भूमि (Gad Bhoomi): छोटी नदी की घाटी में स्थित खेतों को गाड़ भूमि कहते हैं।

  • इजर भूमि (Izar Bhoomi): यह कम उपजाऊ भूमि है, जिसमें तीसरे वर्ष खेती होती है।

  • धुरा-डांडा भूमि (Dhura Bhoomi): ऊंचाई वाले क्षेत्रों की भूमि को धुरा या डांडा भूमि कहा जाता है।

  • रौ या रय भूमि (Raw Bhoomi): गहरी घाटी में स्थित क्षेत्र, जिसमें प्राकृतिक बनावट की वजह से पानी एकत्र होकर तालाब का रूप ले लेता है।

  • खिल-कटील भूमि (Blooming Bhoomi): जंगल में बंजर भूमि को खिल-कटील भूमि कहा जाता है।

  • गांवों के समीप की भूमि: घरया

  • गांवों के मध्य की भूमि: बिचल्या

  • वनों से लगी भूमि: बुण्या

  • बगड़ भूमि (Bagad Bhoomi): पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों में नदियों के समीप के तटीय भाग को बगड़ कहते हैं। यह भूमि अधिकतर शिवालिक क्षेत्र में पाई जाती है।

  • तप्पड़ भूमि (Tappad Bhoomi): पहाड़ी ढलानों के बीच में समतल भूमि के टुकड़े, जिन्हें तप्पड़ भूमि कहते हैं।

  • रौखड़ भूमि (Roukhad Bhoomi): कंकड़-पत्थर युक्त भूमि को रौखड़ भूमि कहते हैं।

  • तराई-भावर भूमि (Tarai-Bhawar Bhoomi): पर्वतीय क्षेत्रों के दक्षिण में जहां पहाड़ियां समाप्त होती हैं, वहां से मैदान प्रारंभ होते हैं। इस भू-भाग पर भावर की पट्टियां पाई जाती हैं। तराई-भावर भूमि कृषि के लिए अत्यधिक उपयुक्त होती है और इसे प्रदेश की सर्वोत्तम भूमि माना जाता है।

उत्तराखंड में खेती के प्रकार (Types of Farming in Uttarakhand)

उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य है, जहां की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण विभिन्न प्रकार की खेती की जाती है।

1. समोच्च खेती (Contour Farming)

इसे समोच्च रेखीय या कण्टूर फार्मिक भी कहा जाता है। यह खेती पहाड़ी ढालों के विपरीत कण्टूर रेखा पर की जाती है, जिससे कम वर्षा वाले क्षेत्रों में नमी सुरक्षित रहती है और अधिक वर्षा वाले स्थानों पर मृदा अपरदन कम होता है।

2. सीढ़ीदार खेती (Terraced Farming)

यह खेत छोटे और लंबे होते हैं और ढलान में एक के बाद एक स्थित होते हैं। भूमि अधिक ढालू होने पर इस विधि से खेती की जाती है, जिसमें ढाल को सीढ़ियों के रूप में परिवर्तित किया जाता है।

3. स्थानांतरण या झूमिंग खेती (Shifting Farming)

यह खेती कुछ आदिम जातियों द्वारा की जाती है, जिसमें पहले एक स्थान की झाड़ियों और पेड़ों को साफ कर कृषि की जाती है। जब उर्वरता समाप्त हो जाती है, तो स्थान को बदल दिया जाता है।


भूमि के उपजाऊपन के अनुसार भूमि का वर्गीकरण (Classification of Land according to the Fertility of the Land)

भूमि का उपजाऊपन उसके कृषि उत्पादन को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस आधार पर भूमि को निम्नलिखित चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  1. कटील, उत्खेड़ी, इज्जर/इजरान भूमि: यह भूमि कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है और सामान्यतः अपरिपक्व पथरीली होती है।

  2. उपराऊं भूमि:

    • उपराऊं अव्वल: यह भूमि उच्च गुणवत्ता की होती है और इसकी उपज क्षमता अधिक होती है।
    • उपराऊं दोयम: यह भूमि कम उपजाऊ होती है लेकिन कुछ कृषि के लिए उपयुक्त है।
  3. तलाऊं भूमि:

    • सेरा, फणचर, सिमार: ये विभिन्न प्रकार की तलाऊं भूमि हैं, जो कृषि के लिए बेहतर मानी जाती हैं।
  4. तराई-भावर भूमि: यह भूमि कृषि के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है और इसकी उपज क्षमता बहुत अधिक होती है।


कृषि क्षेत्र के आधार पर वर्गीकरण (Classification on the basis of Agricultural Area)

कृषि क्षेत्र की विकास दर और भूमि का उपयोग भी महत्वपूर्ण है। इस आधार पर भूमि को पांच भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  1. अति उच्च विकसित कृषि क्षेत्र: जहां कृषि उत्पादन अत्यधिक उच्च है और आधुनिक तकनीक का उपयोग किया जाता है।

  2. उच्च विकसित कृषि क्षेत्र: जहां कृषि उत्पादन अच्छा है और अच्छी प्रबंधन तकनीकों का उपयोग किया जाता है।

  3. मध्यम विकसित कृषि क्षेत्र: जहां उत्पादन औसत है और पारंपरिक तकनीकों का उपयोग होता है।

  4. अल्प विकसित कृषि क्षेत्र: जहां कृषि उत्पादन कम है और तकनीकी सुविधाओं की कमी है।

  5. अति अल्प विकसित क्षेत्र: जहां कृषि उत्पादन न्यूनतम है और यहां कृषि के लिए अनुकूल परिस्थितियां नहीं हैं।

उत्तराखंड की मृदा और कृषि पर कुछ रोचक जानकारी

उत्तराखंड की मृदा

  1. भौगोलिक विविधता: उत्तराखंड की मृदा की विशेषता इसकी भौगोलिक विविधता में है। यहां की मृदा विभिन्न प्रकार की है, जैसे कि तराई, भावर, चारागाही, टर्शियरी, और क्वार्ट्ज मृदा, जो कृषि और वनस्पति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

  2. तराई मृदा: यह मृदा सबसे उपजाऊ मानी जाती है और गन्ना तथा धान की खेती के लिए आदर्श है। तराई मृदा की नमी और उर्वरता इसे कृषि के लिए विशेष बनाती है।

  3. भावर मृदा: कंकड़ और पत्थरों से बनी भावर मृदा में पानी तेजी से रिसता है, जिससे यह कृषि के लिए उपयुक्त नहीं होती, लेकिन यह पहाड़ी पारिस्थितिकी के लिए महत्वपूर्ण है।

  4. ज्वालामुखी मृदा: यह मृदा भीमताल क्षेत्र में पाई जाती है और इसकी उपजाऊता कृषि कार्यों के लिए लाभदायक है।

उत्तराखंड की कृषि

  1. कृषि प्रधान राज्य: उत्तराखंड एक कृषि प्रधान राज्य है, जहां की 70% जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। यहां की प्रमुख फसलें गेहूं, धान, और मंडुआ हैं।

  2. पर्वतीय और मैदानी कृषि: पर्वतीय कृषि क्षेत्र का हिस्सा 56% है, जबकि मैदानी कृषि का 44% है। पहाड़ी इलाकों में सिंचाई की सुविधा सीमित है, जिससे कृषि उत्पादन प्रभावित होता है।

  3. अर्थव्यवस्था में योगदान: कृषि राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में 10.81% का योगदान देती है, जिससे यह राज्य की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

  4. भूमि बंदोबस्त का इतिहास: ब्रिटिश काल में भूमि बंदोबस्त के दौरान वैज्ञानिक विधियों का उपयोग किया गया था, जिससे कृषि के क्षेत्र में एक व्यवस्थितता आई।

कृषि में उपयोगिता

  1. फसल विविधता: विभिन्न प्रकार की मिट्टियों की उपस्थिति के कारण उत्तराखंड में विभिन्न फसलें उगाई जाती हैं। उदाहरण के लिए, तराई क्षेत्र में धान और गन्ना उगाना संभव है, जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में जड़ी-बूटियों और फलों की खेती होती है।

  2. पारिस्थितिकी तंत्र: विभिन्न मृदा प्रकारों का एकीकृत उपयोग पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में मदद करता है और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को सुनिश्चित करता है।

रोचक तथ्य

  • गौरवमयी इतिहास: उत्तराखंड की मृदा और कृषि ने भारतीय सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, खासकर पारंपरिक खेती और औषधीय पौधों की उपज के माध्यम से।

  • पर्यावरण के प्रति जागरूकता: राज्य में जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे पर्यावरण संरक्षण और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ रही है।

  • संरक्षण प्रयास: राज्य सरकार द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिससे कृषि उत्पादकता और पारिस्थितिकीय तंत्र को मजबूत बनाया जा सके।


उत्तराखंड की मृदा पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

  1. उत्तराखंड में मृदा के प्रमुख प्रकार कौन-कौन से हैं?

    • उत्तराखंड में मुख्यतः निम्नलिखित मृदा प्रकार पाए जाते हैं:
      • तराई मृदा (Lowland Soil)
      • भावर मृदा
      • चारागाही मृदा (Pasture Soil)
      • टर्शियरी मृदा (Tertiary Soil)
      • क्वार्ट्ज मृदा (Quartz Soil)
      • ज्वालामुखी मृदा (Volcanic Soil)
      • दोमट मृदा (Loamy Soil)
      • भूरी लाल-पीली मृदा (Brown Reddish-Yellow Soil)
      • लाल मृदा (Red Clay)
      • भस्मी मृदा (Burnt Clay)
      • उच्चतम पर्वतीय छिछली मृदा (Top Mountain Soil)
      • उच्च मैदानी मृदा (Upland Soil)
      • उप-पर्वतीय मृदा (Sub-Mountain Soil)
  2. तराई मृदा की विशेषताएं क्या हैं?

    • तराई मृदा, जो देहरादून से ऊधम सिंह नगर तक फैली है, अधिक परिपक्व और उपजाऊ होती है, लेकिन इसमें नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी होती है। यह गन्ना और धान जैसी फसलों के लिए उपयुक्त है।
  3. उत्तराखंड में मृदा का कृषि में उपयोग कैसे किया जाता है?

    • उत्तराखंड की मृदा में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं। तराई और दोमट मिट्टी धान, गन्ना, और गेहूं जैसी फसलों के लिए उपयुक्त है, जबकि पर्वतीय मृदा में वनस्पति और चारागाही भूमि प्रमुख होती है।
  4. भावर मृदा किस प्रकार की होती है?

    • भावर मृदा कंकड़ों और पत्थरों से बनी होती है और जल संचय की क्षमता कम होने के कारण यह कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है। यह तराई के उत्तर और शिवालिक के दक्षिण में पाई जाती है।
  5. कृषि जोतें (Agricultural Holdings) उत्तराखंड में किस प्रकार की हैं?

    • उत्तराखंड में कृषि जोतों की संख्या लगभग 8,81,305 है। मुख्य फसलें गेहूं (31%), धान (25%), मंडुआ (10%), और गन्ना (8%) हैं।
  6. उत्तराखंड की मृदा के संरक्षण के उपाय क्या हैं?

    • मृदा संरक्षण के लिए विभिन्न उपाय किए जा सकते हैं, जैसे जल संचय, कृषि तकनीकों का सुधार, और वृक्षारोपण। इन उपायों से मृदा की उपजाऊ क्षमता को बनाए रखा जा सकता है।
  7. क्या उत्तराखंड में मृदा के प्रकारों का कृषि पर कोई प्रभाव पड़ता है?

    • हां, उत्तराखंड में मृदा के विभिन्न प्रकार कृषि उत्पादन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। प्रत्येक प्रकार की मृदा अपनी विशेषताओं के अनुसार विभिन्न फसलों की उपयुक्तता निर्धारित करती है।
  8. पर्वतीय कृषि का क्या महत्व है?

    • उत्तराखंड में पर्वतीय कृषि का महत्व इसलिए है क्योंकि यह राज्य की 56% कृषि भूमि को कवर करती है। यह कृषि पारिस्थितिकी तंत्र और स्थानीय समुदायों की आजीविका के लिए महत्वपूर्ण है।
  9. क्या उत्तराखंड की मृदा में जैविक पदार्थों की उपस्थिति होती है?

    • हां, उत्तराखंड की मृदा में जैविक पदार्थों की उपस्थिति होती है, जो उसकी उपजाऊ क्षमता को बढ़ाने में मदद करती है।
  10. उत्तराखंड की मृदा का प्रयोग किस प्रकार की फसलों के लिए किया जाता है?

    • उत्तराखंड की मृदा का प्रयोग धान, गेहूं, गन्ना, मंडुआ, और अन्य स्थानीय फसलों के लिए किया जाता है, विशेषकर तराई और दोमट मिट्टी में।

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  1. उत्तराखंड की प्रमुख फसलें | Major Crops of Uttarakhand in Hindi
  2. उत्तराखण्ड में सिंचाई और नहर परियोजनाऐं | Irrigation And Canal Project in Uttarakhand
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