कुमाउनी भाषा साहित्य
प्रस्तावना
प्रत्येक समाज की अपनी भाषा होती है। कोई भी समाज उसकी भाषा से पहचाना जाता है। यही कारण है कि भाषा और समाज का गहरा संबंध है। कारण यह कि कोई भी भाषा उस समाज की ही उत्पत्ति होती है। स्पष्ट है कि मनुष्य का संबंध उसकी भाषा के माध्यम से ही समाज से जुड़ता है। अतः भाषा और समाज एक दूसरे को बनाते हैं, गतिशील करते हैं। भाषा एक ओर सम्प्रेषण का साधन है तो दूसरी ओर संस्कृति की वाहिका भी है। इसलिए भाषा का अपना संदर्भ भी जुड़ता चलता है। भाषा के अतीत व वर्तमान एक सांस्कृतिक ऐक्य के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। भाषा का इतिहास व उसका विकास क्रम एक सांस्कृतिक बोध भी उत्पन्न करते हैं। भाषा की प्राचीनता यह सिद्ध करती है कि किसी भाषा की लंबी विरासत व संस्कृति किस प्रकार समृद्ध रही है। कुमाउनी भाषा की भी अपनी सुदीर्घ परंपरा रही है। इस अध्याय में हम कुमाउनी भाषा की विकास परंपरा को पढ़ेंगे।
उद्देश्य
कुमाउनी भाषा एवं व्याकरण नांमक प्रश्न पत्र की यह द्वितीय इकाई कुमाउनी भाषा के उद्भव एवं विकास से संबंधित है। इस इकाई के अध्ययन के उपरांत आप-
- कुमाउनी भाषा के उद्भव को समझ सकेंगे।
- कुमाउनी भाषा की विकास प्रक्रिया को जान सकेंगे।
- कुमाउनी भाषा के इतिहास से परिचित हो सकेंगे।
- कुमाउनी के प्रमुख काल विभाजन को जान सकेंगे।
- कुमाउनी भाषा के प्रमुख साहित्यिक ग्रंथों का परिचय जान सकेंगे।
कुमाउनी भाषा का उद्भव
कुमाउनी भाषा का समृद्ध इतिहास रहा है। कुमाउनी भाषा के उद्भव के संदर्भ में दो मत प्रचलित रहे हैं। एक मत के अनुसार कुमाउनी भाषा का उद्भव दरद-खस प्राकृत से हुआ है। दूसरे मत के अनुसार सौरसेनी अपभ्रंश से कुमाउनी भाषा का विकास हुआ है। हम जानते हैं कि हिंदी भाषा की उत्पत्ति भी शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। कुमाउनी हिंदी भाषा की एक समृद्ध भाषा है। डॉ ग्रियर्सन, डॉ सुनीतिकुमार चटर्जी एवं डी डी शर्मा पहले मत के प्रशंसक रहे हैं। इस संबंध में विचार करते हुए ग्रियर्सन ने माना है कि कुमाउनी भाषा पर दरद भाषा के बहुत से अवशेष पाए जाते हैं। अतः प्रियर्सन दरद भाषा से कुमाउनी भाषा का उद्भव मानते हैं। डॉ सुनीतिकुमार चटर्जी ने भी कुमाउनी भाषा का उग्रम पैशाची, दरद व खस प्राकृत को मानते हैं। चटर्जी ने कुमाउनी को राजस्थानी प्राकृत एवं अपभ्रंश से प्रभावित स्वीकार किया है। ग्रियर्सन व सुनीतिकुमार चटर्जी के समान ही डी डी शर्मा भी कुमाउनी का संबंध दरद से मानते हैं। किन्तु डॉ केशवदत्त रूवाली दरद से कुमाउनी की उत्पत्ति की धारणा को अस्वीकार करते हैं।
कुमाउनी भाषा की उत्पत्ति के संदर्भ में शौरसेनी अपभ्रंश का तर्क भी बहुत मजबूत है। बल्कि इस मत को मानने वालों के तर्क ज्यादा मजबूत हैं। डॉ उदयनारायण तिवारी, डॉ केशवदत्त रुवाली व डॉ धीरेंद्र वर्मा कुमाउनी भाषा की उत्पत्ति शौरसेनी से मानने के पक्षधर रहे हैं। डॉ धीरेंद्र वर्मा मध्यकाल में कुमाउनी को राजस्थानी से प्रभावित मानते हैं तथा आधुनिक काल में हिंदी भाषा से। आज बहुत से विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि कुमाउनी में बहुत सी भाषाओं के तत्त्व विद्यमान हैं; किन्तु कुमाउनी हिंदी भाषा में अपने को सर्वाधिक निकट पाती है। डॉ रुवाली कुमाउनी भाषा को दसवीं शताब्दी से शौरसेनी अपभ्रंश से सम्बद्ध मानते हैं। कुमाउनी के शौरसेनी अपभ्रंश से सम्बद्ध होने के मत का समर्थन डॉ गोविंद चातक जी ने भी किया है। डॉ गोविंद चातक ने लिखा है- "मध्यदेशीय भाषा का प्रसार उत्तराखंड तक भी हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय आर्य भाषा के मध्यकालीन विकास में शौरसेनी प्राकृत और अपभ्रंश अनेक सीमाओं में बंध गई थी, पर हिमालय में उसने विकास का जो रूप लिया, वही मध्य पहाड़ी के उद्भव का कारण बन।" डॉ हरदेव बाहरी ने कुमाउनी के स्वरों की संरचना को कश्मीरी आदि दरद भाषाओं की तरह ही जटिल माना है तथा व्यंजन ध्वनियों को राजस्थानी के निकट माना है। एक मत कुमाउनी के संस्कृत संबंध का भी है। इस तर्क के अनुसार हिंदी भाषा की बोलियों की अपेक्षा कुमाउनी में संस्कृत के शब्द ज्यादा हैं। डॉ हरिशंकर जोशी भी इस तर्क से सहमत हैं कि वैदिक व लौकिक संस्कृत की मूल ध्वनियों को कुमाउनी ने सर्वाधिक सुरक्षित रखा है। अनुनासिक ङ जैसे वर्ण को कितना कुमाउनी ने सुरक्षित रखा है, उतना हिंदी की किसी अन्य भाषा ने नहीं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कुमाउनी के मूल स्रोत को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। इस मतभिन्नता का प्रमुख कारण यह है कि इसमें आर्य एवं आर्येतर भाषा के अनेक तत्व पाए जाते हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि वर्तमान में साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक स्थितियों के कारण कुमाउनी भाषा पर हिंदी का प्रभाव बढ़ रहा है।
कुमाउनी भाषा का विकास-एक
कुमाउनी भाषा की विकास यात्रा को समझने के लिए इसके लिखित व मौखिक दोनों प्रकार के स्रोतों की पड़ताल करनी होगी। कुमाउनी भाषा का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। वैसे किसी भी समाज का इतिहास उसकी भाषा के इतिहास से सीधे जुड़ा होता है और आप इसे अलग नहीं कर सकते। लिखित रूप में तो कुमाउनी भाषा के नमूने, उदाहरण अभिलेख, ताम्रपत्र 14 वीं सदी में मिलने लगते हैं। हालांकि कुछ इतिहासकार इस अवधि को 11 वीं सदी तक ले जाने के पक्षधर हैं। डॉ महेश्वर प्रसाद जोशी ने कुमाउनी भाषा में लिखित सर्वाधिक प्राचीन ताम्रपत्र खोजा है, जो सन 1105 ई का है। कत्यूरी शासन काल में कुमाउनी को राजभाषा की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। किन्तु राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने से पूर्व भी कुमाउनी लोक में प्रतिष्ठित रही होगी या लंबे समय से लोक बोली के रूप में प्रचलन में रही होगी, इस बात में कोई संशय नहीं।
कुमाउनी भाषा के विकास में चंद्र शासन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। चंद्र शासनकाल के अनेक ताम्रपत्र में संस्कृत मिश्रित कुमाउनी के नमूने देखे जा सकते हैं। विद्वानों ने लक्षित किया है कि यह कुमाउनी ग्रामीणों द्वारा बोली जाने वाली भाषा से भिन्न रही होगी। ग्रामीण समाज का संपर्क अपेक्षाकृत सीमित रहने के कारण उनकी भाषा में बदलाव की प्रक्रिया पढ़े-लिखे व्यक्ति की अपेक्षा धीमी होती है। इस प्रकार कुमाउनी के परिनिष्ठित रूप से पहले व समानांतर लोक में कुमाउनी का एक रूप और चलता रहा होगा, इस संभावना से हम इंकार नहीं कर सकते।
कुमाउनी भाषा की विकास प्रक्रिया को समझने के लिए उसके काल-विभाजन को देखना उचित होगा। कुमाउनी के काल-विभाजन को मुख्यतः निम्न ढंग से समझा जा सकता है-
- प्रारंभिक काल 1100 ई से 1400 ई तक।
- पूर्व मध्यकाल- 1400 ई से 1700 ई तक।
- उत्तर मध्यकाल- 1700 ई से 1900 ई तक।
- आधुनिक काल- 1900 ई से अब तका
इस काल विभाजन के पश्चात अब हम कुमाउनी भाषा की विकास प्रक्रिया को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे।
- प्रारंभिक काल (1100 ई से 1400 ई तक)
इस कालखंड के कुमाउनी भाषा के विकास को मुख्यतः शिलालेखों, ताम्रपत्रों तथा अन्य अभिलेखों के माध्यम से देखा जा सकता है। इस संदर्भ में सन 1344 ई, 1389 ई. 1404 ई के ताम्रपत्र को देखा जा सकता है। सन 1344 ई के ताम्रपत्र का एक नमूना देखें-
"श्री शाके 1266 मास भाद्रपद राजा त्रिलोकचंद रामचंद्र चम्पाराज चिरजुयतु पछमुल बलदेव चडमुह को
मठराज दीनी।" उपर्युक्त नमूने के आधार पर समझा जा सकता है कि कुमाउनी भाषा अपने बनने की प्रक्रिया में है। संस्कृत का प्रभाव शेष है।
- पूर्व मध्यकाल (1400 ई-1700 ई तक)
इस काल में कुमाउनी भाषा के स्वरूप में बहुत अंतर तो न आया किन्तु उसका परिमार्जन अपेक्षाकृत ज्यादा ही हुआ। इस काल में तद्भव एवं स्थानीय शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा। इस काल के अभिलेखों के कुछ नमूने 1446 ई, 1593 ई. 1664 ई में मिले हैं। सन 1664 ई का एक नमूना देखें-
महाराजाधिराज श्री राजा बज बहादुर चंद्र देव ले तमापत्रक करि कुमाऊं का... को मठ दिनु हंस गिरि ले पायो "
मठ बीच जोगी न दिजि मछयो फिरि रामगिरि भकि दसनाम सन्यासीन दिनु।" ऊपर के नमूने देखने से पता चलता है कि कुमाउनी में लोकप्रचलित शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा था। अभिलेख की भाषा अब लोक भाषा की ओर उन्मुख होने लगी थी।
- उत्तर मध्यकाल (1700 ई-1900 ई तक)
इस कालखंड में ऐतिहासिक घटनाओं में तेजी से परिवर्तन हुए। आधुनिक जीवन जगत की गति ने भाषा में भी परिवर्तन उपस्थित किये। कारण यह कि भाषा का सामाजिक गतिक्रम से घनिष्ठ संबंध है।
इस कालखंड में उत्तराखंड में चंद शासन का अंत हुआ। चंद शासन के उपरांत कुछ समय तक (1790 ई-1815 ई) गोरखा शासन रहा। किन्तु अंग्रेजों से पराजित होकर वे सत्ता से बेदखल कर दिए गए। इसके पश्चात उत्तराखंड पर अंग्रेजों का शासन रहा। इन सब घटनाओं का प्रभाव कुमाउनी भाषा पर भी पड़ा। चंद शासकों के मुगलों से संपर्क के कारण कुमाउनी भाषा में अरबी-फ़ारसी शब्दों का प्रयोग बढ़ा। इसी प्रकार गोरखा शासन व अंग्रेजी शासन के प्रभावस्वरूप नेपाली तथा अंग्रेजी भाषा के शब्द भी कुमाउनी भाषा में आये। इस सबसे कुमाउनी भाषा का विस्तार होता चला गया। जब तक चंद शासकों का राज्य रहा तब तक तो कुमाउनी को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त होता रहा। इसी दौर में गुमानी, कृष्ण पांडे, शिवदत्त सत्ती आदि कुमाउनी के कवि हुए, जिन्होंने कुमाउनी को साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध किया। इस कालखंड की कुमाउनी का एक नमूना देखें। यह नमूना 1892 ई का है। इस नमूने का उपयोग ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वेक्षण में किया था। नमूना देखें-
"एक दिन बामदेव ऋषि राजा थें आयो, और वीले कयो कि जसो व्योलो तू चांछिये तसो च्योली तेरो है गछ। अब ये कणि छयत्रिन जो काम छने करणो चैंछ। और लड़े कर बेर ये कण मुलुक जितण चैनी। राजा ले मुनि की बात मानि ली। दिन बार करि बर, नौं कुमारन दगड़ी वीकणी आपण देश है भैर भेजो"।
- आधुनिक काल (1900 ई से आज तक)
इस कालखंड में राष्ट्रीय आंदोलन व स्वतंत्र भारत की राष्ट्रीय समस्याएं मुख्य रूप से प्रभावी भूमिका ग्रहण करती है। देश की आज़ादी का संघर्ष, कुमाउनी भाषी समाज का उसमें भाग लेना व विभिन्न आंदोलनों में हिस्सेदारी, यह भाषा के स्तर पर भी उसे व्यापक आधार देता है। हिंदी भाषा के ढेर सारे शब्दों के अलावा अंग्रेजी, फ़ारसी के अनेक शब्द कुमाउनी भाषा में घुलते-मिलते चले गए।
कुमांऊँनी बोली का स्वरूप
लिपिबद्ध न हो सकने के कारण आज भी जस की तस आपसी वार्तालाप के माध्यम तक ही सीमित है। मध्य पीढ़ी के लोग कुमांऊँनी और हिन्दी दोनो भाषाओं में संवाद करते हैं। कुमांऊँनी, देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। लिपिबद्ध न हो सकने के कारण कुमांऊँनी भाषा का कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है।
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