लिखित साहित्य में वर्णित समाज (Society described in written literature)

लिखित साहित्य में वर्णित समाज

कुमाऊँनी संस्कृति की झलकः लोकगीत(Glimpses of Kumaoni Culture: Folklore )

कुमाउनी भाषा साहित्य (Kumaoni Language Literature)

कुमाउनी साहित्य में वर्णित समाज (Society described in Kumaoni literature)

कुमाउनी क्षेत्र की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ (Dialects and dialects of Kumaoni region)

कुमाउनी लोकगाथाएँ इतिहास स्वरूप एवं साहित्य(Kumaoni Folklore, History, Forms and Literature)

कुमाउनी साहित्य की भाषिक सम्पदाएँ(Linguistic Wealth of Kumaoni Literature)

कुमाउनी लोक साहित्य का इतिहास(History of Kumaoni Folk Literature )

लिखित साहित्य में वर्णित समाज (Society described in written literature)

लोक साहित्य के संरक्षण की समस्या एवं समाधान (Problem and solution of conservation of folk literature)

कुमाऊँनी का लिखित पद्य साहित्य(Written Verse Literature of Kumaoni )

कुमाउनी लोकसाहित्यः अन्य(Kumaoni Folklore: Others )


लिखित साहित्य का आरम्भ विद्वान कुमाउनी में सर्वप्रथम लोक रत्न पंत गुमानी (1790-1846) से आरम्भ मानते हैं गुमानी के लेखन में अंग्रेज राज के प्रति अनुरागी और विद्रोही दोनों भाव दीखते हैं। गुमानी की कविता में पर्वतीय अभिजन जीवन का स्वाभाविक चित्रांकन हुआ है। विद्वान् मानते है कि गुमानी ने हलवाहा, विधवा एंव सामान्य पहाड़ी जन का सहज और आत्मीय चित्रण किया है। गुमानी की कविता में आये सन्दर्भों को आधार बनाकर कुमाउनी हिंदी साहित्य की दलित धारा गुमानी को जाति विशेष का कवि मानती है।

दूसरे प्रमुख कवि कृष्णानंद पाण्डे माने जाते हैं। इनका जन्म 1800 में अल्मोड़ा के पाटिया गाँव में हुआ। गुमानी द्वारा स्थापित कुर्मोऊनी काव्य परंपरा को एक तरह से इन्होंने ही आगे बढ़ाया था। इनकी कविताएं पुस्तकाकार में नहीं मिलती। गंगादत्त उप्रेती ने इनकी रचनाओं का संग्रह और अनुवाद किया। 1910 ई0 में ग्रिर्वसन ने इनकी कविताओं का प्रकाशन 'इंडियन एन्टिक्वैरी' में किया। इनकी कविता में भक्ति, समाज सुधार, व्यंग्य-विनोद पूर्ण कविताएं मिलती हैं। युगीन सामाजिक एवं राजनीतिक विषमताओं पर भी इन्होंने करारी चोट की। इनकी मृत्यु 50 वर्ष की अवस्था में सन् 1850 वर्ष में हुई। उनकी 'मुलुक कुमाऊँ' तथा 'कलयुग वर्णन' कविताएं उन्नीसवीं सदी के आरंभिक कुर्मोऊनी समाज का व्यापक साँचा खींचती हैं। देखें -

'मुलुकिया यारो कलयुग देखो।
घर - कुडि बेचि बेर इस्तीफा लेखो ।।
बद्री केदार बड़ भया धाम।
धर्म कर्म की के न्हाती फाम ।।"

1850-1900 ई0 तक) इस युग के प्रमुख कवि चिन्तामणि ज्योतिषी तल्ला दन्या अल्मोड़ा (सन् 1874-1934) हैं। इन्होंने सन् 1897 में दुर्गा (चंडी) पाठसार को कुर्मोऊनी भाषा में अनुवाद किया। इनके उपलब्ध कुमाऊनी अनुवाद हैं- सत्यनारायण कथा तथा भगवद्गीता। नैन सुख पाण्डे पिलखवा गांव के निवासी थे। इनकी मृत्यु और जन्म के बारे में विद्वान केवल यह मानते आये हैं कि इनका जन्म 1850 के बाद ही हुआ होगा। इनकी कुछ कुर्माऊनी स्फुट रचनाएं मिलती हैं। इनकी एक रचना है, जिसमें इन्होंने घरेलू काम धंधों में आने वाले औजारों का वर्णन किया है। 

शिवदत्त सती शर्मा का कुर्मोऊनी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है। इनका जन्म 1848 में फलवाकोट अल्मोड़ा में हुआ। ये बचपन से कृषि कार्य से जुड़े रहे। अन्धविश्वासों से दूर समाज सुधार के प्रबल समर्थक थे। इनकी आठ रचनाओं का उल्लेख विद्वान प्रायः करते हैं। मित्र विनोद, घसियारी नाटक, गोपी गीत, बुद्धि प्रवेश भाग 1, बुद्धि प्रवेश भाग-2, बुद्धि प्रवेश भाग- 3. रुक्मणि विवाह, प्रेम और मोह। पसियारी नाटक में पहाड़ी जन जीवन की कठिनाईयों और अंग्रेजों द्वारा किये जाने मनमाने व्यवहार और उत्पीड़न को नाटकीय शैली में प्रस्तुत किया है।

 गोपी देवी का गीत में स्त्री जीवन और उसके वैविध्य का कारूणिक चित्रण हुआ है। उत्तर मध्य युग (सन् 1950 से आज तक) गीदों का जन्म अगस्त 1872 अक्टूबर में हुआ। गौर्दा का साहित्य कुमाऊनी साहित्य का स्वर्णिम शिखर है। उनकी चेतना और साहित्यिक समझ को कुर्माऊनी साहित्य में कोई नहीं छू पाया है। गौर्दा एक ऐसे समय की उपज थे, जब एक तरफ भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हो रहा था और दूसरी ओर स्थानीय जन आन्दोलन स्फूरित हो रहे थे। गौंर्दा की चेतना इसी युग में निर्मित हुई।
 "गौर्दा उन कवियों में हैं, जिन्होंने अपने वर्ग से सीधी मुठभेड़ की। 'गीं कि रानी या आपु जैसि में करो, या मैं जैसि तुम है जाओ' ऐसी चुनौती अपने तथाकथित बुद्धिजीवी कहलाने वाले पाखंडी अभिजन समाज को जो वैचारिक बांझपन से ग्रस्त था गौर्दा ही दे सकते थे। उनके कुमाउनी लेखन को पढ़ते हुए हिंदी के कवि निराला याद आते हैं। गाँर्दा की यह घोषणा उस समय की है, जब बारातों और उत्सवों में गरीब आदमी को अपनी जमीन गिरवी रखकर पिठावां या दक्षिणा देनी पड़ती थी। वह अपने इस पाखंडी वर्गों से एक सिपाही की तरह लड़ा। इस दोहरे चरित्र की धज्जियां उड़ाई और बखिया उधेड़ दी। गौर्दा अपने समय की जटिलताओं, आन्दोलनों के सच्चा सिपाही था। वह अपनी तरह से अपनी युगीन समस्याओं से टकराये। चाहे वह शारदा एक्ट हो, कुली उतार हो, स्वराज के आन्दोलन हों या जातिगत मुख्ये हो, दलितों व शोषितों के दमन के सवाल हों। हालांकि यहाँ भी उनकी अपनी सीमाएं हैं, वही सीमाएं जो उस समय के एक अभिजातीय व्यक्ति की ईमानदार राष्ट्रवादी में बदलने की थीं। इसके अलावा गोपाल दत्त भटूट 1940 में गरूड़ अल्मोड़ा में जन्म हुआ।

 चारु पांडे की कविता पुस्तक अंग्वाल भी सामजिक कुरीतियों और सुधार व गांधी मार्ग के साथ चलने का आग्रह करती कविताएँ हैं। धरतीक पीड़ 1982 गोपाल दत्त भट्ट का प्रथम संकलन है। इनकी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना, देश भक्ति तथा सामाजिक चेतना दिखाई देती है। भवानी दत्त पंत दीपाधार 1942 ई० प्रमुख कवि गीतकार हैं तथा प्रसिद्ध गायक हीरा सिंह राणा 1942 ई0 उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक चेतना के प्रमुख कवि ह।, गिरीश तिवारी गिर्दा के रचनाकर्म के हिंदी के ख्यातिलब्ध कवि मंगलेश डबराल ने कहा था 'क्रान्तिकारी चेतना और व्यंग्य की पैनी धार से लैस इन कविताओं में देश- विदेश के कई जनकवियों की आवाजें भी घुली मिली हैं। लोर्का, पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत, एर्नस्तो कार्दनाल, फैज अहमद फैज ऐसे कवित हैं, जिनके सरोकारों की ओर गिर्दा बार-बार लौटते हैं और यह कहने की इच्छा होती है कि गिर्दा पहाड़ के नागार्जुन हैं। गिदा का व्यक्तित्व भी नागार्जुन से बहुत मिलता है। उसी तरह की फकीरी, फक्कड़पन यायावरी और समाज से गहरा लगावा अपने जन की नियति बदलने की निरंतर कोशिश हैं, यथास्थिति के पोषकों के प्रति लगातार कटाक्ष है और मनुष्यता के लिए एक ऐसी आशा है, जो तमाम दुखों- अभावों से पार पा लेती है। गिर्दा और नागार्जुन की अनेक कविताओं में एक जैसे सरोकार ही नहीं हैं, कहीं कहीं उनकी संरचना भी एक जैसी दिखती है' कुमाउनी लिखित साहित्य में शेरदा अनपढ़ के रचनाकर्म अपना स्थान है 
वे कुमाउनी आमजन मानस के कवि थे जो हास्य मव्यंग में बड़ी बड़ी बातें लिखने में माहिर थे विद्वानों ने उन्हें कुमाउनी साहित्य कबीर भी कहा इसके साथ ही बालम सिंह जनौती व जगदीश जोशी तक का मौखिक लेखन अपने समाज के बदलाव और राज्य आन्दोलन के साथ साथ अब तक हुए महत्वपूर्ण सामाजिक अंतसबंधों को देखा जा सकता है। गद्य साहित्य में श्री बन्धु बोरा की कहानियां और जगदीश जोशी की कहानियाँ अपने समाज का ज्वलंत दस्तावेज प्रस्तुत करती है। 

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