कुमाउनी लोकसाहित्यः अन्य प्रवृत्तियाँ
प्रस्तावना
उद्देश्य
कुमाउनी लोकसाहित्य की अन्य प्रवृत्तियाँ
कुमाउनी मुहावरे एवं कहावतें
कुमाउनी पहेलियाँ
अन्य रचनाएँ
कुमाउनी प्रकीर्ण विधाओं की विशेषताएँ तथा महत्त्व
उद्देश्य
कुमाउनी लोकसाहित्य की अन्य प्रवृत्तियाँ
कुमाउनी मुहावरे एवं कहावतें
कुमाउनी पहेलियाँ
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कुमाउनी प्रकीर्ण विधाओं की विशेषताएँ तथा महत्त्व
प्रस्तावना
पुराकाल से मानवीय अभिव्यक्ति के दो रूप हमें प्राप्त होते रहे हैं। एक वाचिक या मौखिक परंपरा के रूप में प्रचलित है तथा दूसरी विधा लिखित अथवा परिनिष्ठित साहित्य के रूप में जानी जाती है। हमने पूर्ववर्ती इकाइयों में इन दोनों रूपों का अध्ययन किया है। कुमाउनी लोकसाहित्य की प्रकीर्ण विधाओं का अध्ययन इस इकाई के अंतर्गत किया जाएगा। कुमाऊँ के समाज में मुहावरे, कहावते तथा पहेलियाँ आदि काल से मौखिक रूप में प्रचलित रही हैं। इनके निर्माताओं के बारे में अद्यतम कुछ नहीं कहा जा सकता। युगों से संचित ज्ञानराशि के रूप में ये प्रकीर्ण कुमाउनी विधाएँ लोकजीवन की रोचक धरोहर के रूप में विख्यात हैं।
प्रस्तुत इकाई के प्रारंभ में कुमाउनी लोकसाहित्य की अन्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालते हुए उनके स्वरूप को अभिव्यक्त किया गया है। कुमाऊँ में प्रचलित लोक कहावतों मुहावरों, पहेलियों आदि को पारिभाषित करते हुए उनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। इकाई के उत्तरार्ध में कुमाउनी प्रकीर्ण विधाओं की विशेषताओं तथा महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। कुल मिलाकर प्रस्तुत इकाई लोकसाहित्य की विविध विधाओं का समाहार करती हुई अपने सामाजिक महत्त्व को प्रदर्शित करती है।
उद्देश्य
प्रस्तुत इकाई के अध्ययन के उपरांत आप
कुमाउनी मुहावरों तथा कहावतों के आशय को स्पष्ट रूप से समझ सकेंगे कुमाउनी कहावतों एवं मुहावरों में निहित लोक जीवन दर्शन का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे कुमाउनी पहेलियों तथा यहाँ के लोगों की बुद्धि चातुर्य पर प्रकाश डाल सकेंगे
प्रकीर्ण विधाओं की विशेषताओं तथा महत्त्व को समझ सकेंगे।
कुमाउनी लोकसाहित्य की अन्य प्रवृत्तियाँ
कुमाऊँ में लोकगीत, लोककथा तथा लोकगाथा के अतिरिक्त अन्य लोक विधाएँ भी प्रचलित हैं। इनमें मुहावरे, कहावतें तथा पहेलियाँ प्रमुख हैं। ये सभी विधाएँ इतिहास काल के दीर्घ प्रवाह में अपना स्थान निर्धारित करती आई हैं। मुहावरे तथा कहावतों एवं पहेलियों की रचना किस व्यक्ति द्वारा की गई? किन परिस्थितियोंमें की गई,? इस सम्बन्ध में आज तक ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। इतना अवश्य है कि ये विविध विधाएं तत्कालीन परिस्थितियों से लेकर आज तक हमारे समाज में पूरी तरह से जीवंत हैं। इन विधाओं को सूत्रकथन के रूप में जाना जाता है। लोकमानस की अभिव्यक्ति प्रायः मौखिक परंपरा द्वारा संचालित रही है।
लोकजीवन से सम्बद्ध कई घटनाएं तथा विचार प्रायः मौखिक रूप में ही अभिव्यक्त होते हैं। कुमाउनी मुहावरें तथा कहावतों को सूत्रकथन के रूप में समाज में बहुत प्रसिद्धि मिली है। मानव की सभ्यता व संस्कृति के अनेक तत्वों पर आधारित इन प्रकीर्ण विधाओं में संक्षिप्तता सारगर्भितता तथा चुटीलापन है। इनकी मूल विशेषता इनकी लोकप्रियता है। इसी कारण ये कहावतें मुहावरें आदि जनमानस की जिह्वा पर जीवित रहते हैं। कहावतों को विश्व नीति साहित्य का एक प्रमुख अंग माना जाता है। संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में कहावतों तथा मुहावरों के व्यापक प्रयोग हुए हैं।
भारतवर्ष ही नहीं, अपितु संसार के कई अन्य देशों में भी इन प्रकीर्ण विधाओं का प्रचलन अपनी अपनी भाषाओं में है। हमारे देश में मुहावरे तथा कहातवें की पंरपरा वैदिक काल से चली आ रही है। कुमाउनी लोकसाहित्य के अन्तर्गत आने वाली लोक कथाएं तथा लोकगाथाएं इन कहावतों तथा पहेलियों से गूढ़ संबंध रखती है।
इन सूत्रात्मक व्यंग्यार्च की प्रतीति कराने वाली विधाओं द्वारा लोकानुभूति की अभिव्यक्ति सहज रूप में जाया करती है। कुमाऊँ में इन कहावतों का प्रयोग लाक्षणिक अर्थ के प्रकटीकरण के लिए किया जाता है। पहेलियां भी कुमाउनी जनमानस की लोकरंजक मनोविज्ञान से संबंधित हैं। इनमें बुद्धितत्व को मापने की अद्भुत कला है। लोकमानस की तमाम जिज्ञासाओं में निहित वातावरण तथा मनोविज्ञान का पुट इन पहेलियों का निथार है। मनुष्य की लाक्षणिक त्वरित बुद्धि के आदान प्रदान तथा जिज्ञासा के समाधान हेतु ये विधा लम्बे समय से प्रचलित रही हैं।
कहा जा सकता है कि जीवन मूल्यों के धरातल पर बुद्धि की परख करने में तमाम प्रकीर्ण विधाएं यहां के लोकसाहित्य को समृद्ध किए हुए है। इनके समाज में निरंतर प्रचलित रहने से लोकसाहित्य की पंरपरा अक्षुण्ण रही है।
कुमाउनी मुहावरे एवं कहावतें
कुमाउनी समाज में आरंभिक काल से मुहावरों तथा लोकोक्तियों की अनूठी परंपरा रही है। वाचिक (मौखिक) परंपरा के रूप में मुहावरे तथा कहावतें अपने लाक्षणिक अर्थ तथा व्यंग्यार्थ की अनुभूति के लिए प्रसिद्ध है। यदि लोकसाहित्य के विवेचन को ध्यान से देखा जाए तो मुहावरे तथा कहावतें किसी भी लोक समाज दर्शन से जुड़ी होती हैं। इनमें संक्षिप्त रूप से गहन भावार्थ छिपा रहता है। व्यंग्यार्थ की प्रतीति कराने वाली इन विधाओं के निर्माताओं के विषय में सटीक तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। इतना अवश्य है कि वे लोक के गूढ़ आख्यान तथा उक्ति चातुर्य के प्रदर्शन में सिद्धहस्त हैं। यहां हम कुमाउनी मुहावरे तथा कहावतों के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कुछ व्यावहारिक मुहावरें तथा कहावतों का अर्थ स्पष्ट करेंगे।
कुमाउनी मुहावरेः- मुहावरा शब्द की व्युत्पत्ति अरबी भाषा से मानी जाती हैं। अरबी भाषा में मुहावरे का अर्थ आपसी बातचीत, वार्ता या अभ्यास होता है। अंग्रेजी में मुहावरे कोईडियम कहा जाता है।देव सिंह पोखरिया के शब्दों में- इस दृष्टि से किसी भाषा के लिखित या मौखिक रूप में प्रचलित वे सभी वाक्यांश मुहावरों के अन्तर्गत आते हैं। जिनके द्वारा किसी साधारण अर्थ का बोध विलक्षण और प्रभावशाली ढंग से लक्षणा और व्यंजना के द्वारा प्रकट होता है।
मुहावरों का प्रयोग दीर्घकाल से समाज में होता रहा है। यह केवल हिन्दी या कुमाउनी या हिन्दी में ही नहीं, अपितु विश्व के सभी साहित्यों में अपने ढंग से व्यवहत है। मुहावरा एक छोटा वाक्यांश होता है। मुहावरे तथा कहावत में मूल अंतर यह है कि कहावत एक पूर्ण कथन या वाक्य होता है। तथा मुहावरा वाक्यांश। कहावत में कथात्मकता होती है। आप जान गए होंगे कि कथा के भाव को आत्मसात करने वाली विधा लोककथा कही जाती है। कहावत कथा के आख्यान को समेटे रखता है, जबकि मुहावरा लाक्षणिक अर्थ का बोध कराकर समाज में अर्थ प्रतीति को बढ़ाता है।
कुमाऊँ क्षेत्र में प्रचलित मुहावरों की संख्या लगभग चार हजार से अधिक होगी। ये संख्या यहां के ग्रामीणों की बोलचाल की भाषा में अधिक प्रभावी है। आपसी वार्तालाप के लिए कुमाउनी में विशिष्ट मुहावरे का प्रचलन है। जैसे- 'क्वीड करण' का अर्थ होता है महिलाओं की गपशप, किन्तु सामान्य गपशप के लिए 'फसक मारणा मुहावरा प्रचलन में है।
कुमाउनी मुहावरे विविध विषयों पर आधारित हैं। संक्षेप में मुहावरों का वर्गीकरण यहां प्रस्तुत किया जाता है-
(1) सामाजिक जीवन पर आधारित मुहावरे
(2) व्यक्तिगत शैली पर आधारित मुहावरे
(3) व्यवसाय संबंधी मुहावरे
(4) जाति विषयक मुहावरे
(5) प्राकृतिक उपादानों पर आधारित मुहावरे
(6) भाग्य तथा जीवनदर्शन संबंधी मुहावरे
(7) तंत्र-मंत्रतथा लोक विश्वास संबंधी मुहावरे
उपर्युक्त के आधार पर हम देखते हैं कि मनुष्य के शरीर के अंगों पर भी अधिकांश मुहावरों का प्रचलन समाज में होता आया है।
कुछ कुमाउनी मुहावरों को उनके हिन्दी अर्थ के साथ यहां प्रस्तुत किया जाता है-
(1) ख्वर कन्यूण- सिर खुजलाना
(2) बाग मारि बगम्बर में भैटण- बाप मारकर बाप की खाल पर बैठना।
(3) कन्यै कन्यै कोढ़ करण- खुजला खुजला कर कोढ़ करना
(4) स्वैणि मैंसोंक दिशाण अलग करण- पति पत्नी का बिस्तर अलग करना।
(5) आंख मारण- आंख मारना (इशारा करना)
(6) लकीरक फकीर हुण- लकीर का फकीर होना।
(7) गाड़ बगूण-नदी में बहा देना।
(8) घुन टुटण- घुटने टूटना
(9) घुन च्यूनि एक लगूण- घुटना तथा मुंह साथ चिपकाना
(10) गल्दारी करण- बिचौलिया पन करना
(11) गोरख्योल हुण- गोरखों की भांति होना
(12) बिख झाणण- विष झाड़ना
(13) कांसक टुपर हुण- कांस की डलिया जैसा होना
(14) पातल मुख पोछण- पत्ते से मुंह पोंछना।
(15) जागर लगूण- जागर लगाना।
कुमाउनी कहावतें -
कहावत का अर्थ- कहावत शब्द की उत्पत्ति 'कह' धातु से हुई है। इसमें 'वत' प्रत्यय लगा है। अंग्रेजी में कहावत को च्तवअमतइ (प्रो-वर्ष) कहा जाता है। संस्कृत साहित्य में कहात के लिए 'आभाणक' शब्द का प्रयोग हुआ है। हिन्दी भाषा विज्ञान के ज्ञाता डॉ. के.डी. रूवाली के अनुसार 'कहावत का संबंध 'कहना' क्रिया से है। हर प्रकार का कथन कहावत की कोटि में नहीं आता। विशेष कथन को ही कहावत कहा जा सकता है। डॉ. सत्येन्द्र का अभिमत है कि कहावत लोकक्षेत्र की अपूर्व वस्तु है।
डॉ. त्रिलोचन पाण्डे ने कहावतों के संबंध में लिखा है, 'कहावतों ने इतिहास के दीर्घकालीन प्रवाह में भी अपना स्वभाव नहीं बदला है। कहावतों में राष्ट्रीय जाति धर्म आदि के समाजबद्ध तत्व पाए जाते हैं। सामाजिक जीवन की विशिष्ट परिस्थितियाँ ही कहावतों को जन्म देती हैं। जब व्यक्ति किसी परिस्थितियों या दृश्य को देखता है तो उसके मन में सहज ही कुछ विचार उत्पन्न होते हैं। ये विचार धरि-धीरे स्थायी भाव के रूप में किसी सत्य की व्यंजना करने वाली उक्तियों के रूप में विकसित हो जाती हैं।' कहावतों के लिए लोकोक्ति शब्द भी प्रचलित है। उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र का अधिकांश भूभाग पर्वतीय है। यहां की भौगोलिक परिस्थितियां बड़ी विषम हैं। कुमाउनी समाज में कहावतों का प्रचलन आरंभिक काल से हो रहा है। इन कहावतो के रचयिता सर्वथा अज्ञात हैं फिर भी जनजन के मुख से इन कहावतों का प्रयोग होता रहा है। किस देश काल परिस्थिति में कौन सी कहावत प्रयुक्त होगी, यह स्वचालित रूप में जनमानस की बुद्धि के अनुरूप प्रवाहित होती रहती है। इन कहावतों में लोक विशेष की प्रक्रिया, इतिहास तथा स्थान विशेष की कथात्मकता निहित होती है।
कुमाउनी कहावतों में हिन्दी तथा अन्य हिन्दीतर भाषाओं की कहावतों के पर्याप्त लक्षण पाए जाते हैं। कहावतों को विश्वनीति साहित्य का अभिन्न अंग माना जाता है। क्योंकि वैश्विक स्तर पर इनमें लोकसत्य के उद्घाटन की विशेष क्षमता होती है, कुमाउनी लोकजीवन के अनुरूप हम देखते है कि लोक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों एवं मनुष्यों के पारस्परिक व्यवहार ने कहावतों को जन्म दिया है। इन लोक कहावतों में आदिम जातीय परिवारों में बोली जाने वाली लोकोक्तियों का मिश्रण है। स्थानीयता तथा सूत्रबद्धता कुमाउनी कहावतों का मूल लक्षण है।
पं. गंगादत्त उप्रेती ने कुमाउनी कहावतों का अंग्रेजी तथा हिन्दी भाषा में अर्थ स्पष्ट किया है। विषय की दृष्टि से कुमाउनी कहावतों के वर्गीकरण को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है-
(1) सामाजिक कहावतें
(2) ऐतिहासिक कहावतें
(3) धार्मिक कहावतें
(4) नीति तथा उपदेशात्मक कहावतें
(5) राजनीति संबंधी कहावतें
(6) स्थान विशेष से संबंधित कहावतें
(7) जाति विषयक कहावतें
(8) हास्य व्यंग्यपूर्ण कहावतें
(9) कृषि-वर्षा संबंधी कहावतें
(10) प्रकीर्ण कहावतें
विविध विषयाधारित कहावतों में कुमाउनी समाज की संस्कृति तथा भाषा के मूल लक्षणों एवं विशेषताओं का पता आसानी से लगाया जा सकता है।
यहां आप कुछ कुमाउनी कहावतों तथा उनके हिन्दी अर्थ को समझ सकेंगे-
(1) मुसकि ऐरै गाउ गाउ बिराउक है री खेल- चूहे की मुसीबत आई है, बिल्ली के लिए खेल जैसा हो रहा है।
(2) जो गौं जाण नै, वीक बाट के पुछष्ण- जिस गांव में जाना नहीं, उसका पता पूछने (रास्ता मालूम करने) से क्या लाभा
(3) भैंसक सींग भैंस के भारि नि हुन- भैंस का सींग भैंस को भारी नहीं लगता अर्थात अपनी संतान को कोई भी व्यक्ति बोझ नहीं समझता।
(4) आपण सुन ख्वट परखणि के दोष दी- अपना सोना खोटा परखने वाले को दोष।
(5) लुवक उजणण आय फाव बढ़ाय, भैंसक उजड़ण आय ग्वाव बड़ाय-लोहे का उजड़ना आया तो फाल बनाया आदमी का उजड़ना आया तो उसे ग्वाला बनाया।
(6) दुसरक खवर पै खवर घोसणल आपण ख्वर चुपड़ नि हुन दूसरे के सिर पर अपना सिर घिसने से सिर चुपड़ा नहीं हो जाता।
(7) डको द्वार, हिटो हरिद्वार- द्वार ढको चलो हरिद्वार
(8) द्याप्त देखण जागस्यर म्यल देखण बागस्थर-देवता देखने हो तो जागेश्वर जाइए, मेला देखना हो तो बागेश्वर जाइए।
(9) जैक नीव नै वीक फौव- जिसकी नली (कली) नहीं उसका फल
(10) मन करूं गाणी माणी करम करूँ निखाणी- मन तो कितने ही सपने बुनता है, पर कर्म उसे बिगाड़ देता है।
(11) जॉ कुकड़ नि हुन वीं के रात नि ब्यानी जहां मुर्गा नहीं बोलता हो, क्या वहां रात्रि व्यतीत नहीं होती।
(12) बागक अनारि बिराउ- बाघ के रूप में बिल्ली
(13) नानतिनाक जाड़ दुग. में- बच्चों का जाड़ा पत्थर में
(14) कॉ राजैकि राणि काँ भगोतियकि काणि- कहां राजा की रानी कहां भगौतिए की कानी स्त्री।
(15) पूरबिक बादोवक न द्यो न पाणि- पूरब के बादल से न वर्षा न पानी।
कुमाऊँनी कहावतें (पहाड़ी कहावतें) Kumaoni proverbs (Pahari proverbs)
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कुमाउनी पहेलियाँ
प्रकीर्ण विधाओं के अन्तर्गत कुमाउनी पहेलिया ने भी लोकसाहित्य में अपना एक अलग स्थान बनाया है। कुमाउनी में मुहावरे तथा कहावतों की भांति पहेलियों का प्रचलन भी काफी लम्बे समय से होता रहा हैं। अधिकांश पहेलियां घरेलू कामकाज की वस्तुओं तथा भोजन में काम आने वाली पदार्थों पर आधारित हैं। मानव तथा नियति सम्मत तत्वों पर भी अनेक पहेलियों का निर्माण हुआ है। कुछ कुमाउनी पहेलियां (कुमाऊँ में जिन्हें आण कहते है) यहां प्रस्तुत हैं-
- थाई में डबल गिण नि सक चपकन सिकड़ टोड नि सक थाली में पैसें गिन न सके मुलायम छड़ तोड़ न सके।
उत्तर- आकाश के तारे व सांप
- सफेद घ्वड़ पाणि पिहूँ जाणौ लाल घ्वड़ पाणि पि बेर ऊणौ-सफेद घोड़ा पानी पीने जा रहा है लाल घोड़ा पानी पीकर आ रहा है
- ठेकि मैं ठेकि बीचम भै गो पिरमू नेगि-बर्तन पर बर्तन बीच में बैठा पिरमू नेगी-
उत्तर - गन्ना
- लाल लाल बटु भितर पितावक डबल- लाल लाल बुटआ भीतर पीतल के सिक्के
उत्तर (लाल मिर्च)
- भल मैंसकि चेली छै कलेजा मजि बाव- अच्छे आदमी की लड़की बताते हहैं कलेजे में है बाल-
उत्तर- आम
- काइ नधुली सुकीली बिन्दी काली नथ सफेद बिन्दी
उत्तर- तवा और रोटी
- तु हिट मी ऊनू - तू चल में आता हूँ
उत्तर सुई तागा
- मोटि मोटि कपड़ा हजार- मोटा मोटा कपड़े हजार
उत्तर प्याज
अन्य रचनाएं
कुमाउनी लोकसाहित्य की प्रवृत्तियों में स्फुट रचनाओं का भी बड़ा महत्त्व है। लोकजीवन में वर्षों से चली आ रही मौखिक परंपरा में इन रचनाओं को जनमानस ने अपनी जिह्वा पर जीवंत किया है। इन रचनाओं में बालपन की हंसी ठिठोली, गीत तथा बालखेल गीत निहित हैं। बच्चों द्वारा झुंड बनाकर खेले जाने वाले खेलों में कुमाउंनी गीतों को स्थान मिला है। ये गीत बच्चों द्वारा ही खेल में गाए जाते हैं तथा पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चों को वे गीत हस्तांतरित होते रहते हैं।
कुमाऊँ में तंत्र-मंत्रका प्रचलन बहुत अधिक हैं। यहां निवास करने वाली आदिवासी जनजातियों में तंत्र-मंत्रका चलन बहुत पुराना है। सभ्य समाज के लोग भी झाड़ फूंक तथा तंत्र-मंत्रमें बहुत आस्था रखते हैं। मनुष्य तथा जानवरों को होने वाली व्याधियों के निवारण के लिए झाड़-फूंक तथा मंत्रों का सहारा लिया जाता है। पीलिया रोग होने पर उसे झाड़ने की परंपरा है।गाय भैंसों को घास से विष लगने पर उन्हें झाड़ फूंक कर इलाज करने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही हैं। इसके अतिरिक्त हास परिहास के लिए या वातावरण को मनोरंजक बनाने के लिए तुकबन्दी करने की परंपरा स्पष्ट दिखाई देती है। ये तुकबन्दियां पारिवारिक सामाजिक नातेदारी की स्थिति का निरूपण बड़े ही हास्य व्यंग्यपूर्ण ढंग से करती है।लोकनाट्य के अन्तर्गत स्वांग करना, प्रहसन करना, रामलीला पांडवलीला, राजा हरिश्चन्द्र का नाटक, रामी बौराणी की कथा पर आधारित नाट्य आदि सम्मिलित हैं। यह लोकमानस की भावभूमि पर स्थानीय परंपरा का उल्लेख करती हैं।
कुमाउनी प्रकीर्ण विधाओं की विशेषताएँ तथा महत्त्व
कुमाउनी प्रकीर्ण विधाएँ लोकमानस के उर्वर भावभूमि के प्रदर्श हैं। आप समझ गए होंगे कि वाचिक परंपरा से ये विधाएं विकसित होकर परिनिष्ठित साहित्य में भी धीरे-धीरे अवतरित होती रही हैं। इन स्फुट विधाओं में कुमाऊँ का लोक साहित्य एवं संस्कृति का निरूपण करने में भी अग्रणी रही हैं। इनकी विशेषताओं एवं महत्त्व को संक्षेप में यहां प्रस्तुत किया जाता
कुमाउनी प्रकीर्ण विधाओं की विशेषताएं
- कुमाउनी मुहावरे तथा कहावतों में लाक्षणिक अर्थ की प्रधानता होती है। ये प्रकीर्ण विधाएं अपने साधारण अर्थ को छोड़कर किसी विशेष अर्थ की प्रतीति कराते हैं।
- कुमाउनी प्रहेलिकाओं, तुकबंदी, मुहावरे तथा लोकोक्तियाँ व्यग्यार्थ का बोध कराती हैं। व्यंग्य के माध्यम से समाज की दशा व दिशा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
- वाक् चातुर्य कहावतों तथा तुकबन्दी का प्रमुख लक्षण है। कथन की गंभीरता के लिए मुहावरे एवं कहावते युग युगों से प्रसिद्ध हैं।
- कुमाउनी मुहावरे, कहावतों, पहेलियों तथा तुकबन्दी एवं बालगीतों में संक्षिप्तता पायी जाती है। साधापणतया कहावते एवं मुहावरों को सूक्ति या सूक्तिपरक संक्षिप्त कथन के रूप में देखा जाता हैं।
- कुमाउनी प्रकीर्ण विधाओं में सजीवता पायी जाती है। लोकसत्यानुभूति इन प्रकीर्ण विधाओं की प्रमुख पहचान है।
- कुमाउनी कहावतों सहित अन्य प्रकीर्ण स्फुट विधाओं के रचयिता सर्वथा अज्ञात हैं। ये स्फुट विधाएँ गद्य एवं पद्म साहित्य के रूप में संचरित रहे है।
महत्त्व - कुमाउनी साहित्य के विविध रूपों में परिनिष्ठित साहित्य द्वारा यहाँ के लोक सम्मत आख्यान तो समय समय पर प्रकट होते रहते हैं, किन्तु एक मौखिक परंपरा के रूप में वर्षों से चली आ रही कहावत, मुहावरा, पहेलियाँ लोकनाट्य आदि विधाओं का कुमाउनी लोकसाहित्य के क्षेत्र में अलग महत्त्व है। वर्तमान में कुमाऊँ क्षेत्र के बुजुर्ग स्त्री पुरुषों के मुख से इन प्रचीन कहावतों लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रचलन होता रहा है। इससे पता चलता है कि वर्तमान में भी साहित्य की मौलिक विधा तथा उसके यथार्थ को कुमाऊँ के जन बहुत महत्त्व प्रदान करते हैं। प्रतिवर्ष नवरात्र में आयोजित होने वाली रामलीलाओं में लोकनाट्य परंपरा का कुशल निर्वहन होता रहा है। इन लोकनाट्य में कृष्ण लीला, पांडव लीला, सत्य हरीशचन्द्र नाटक, रामी बौराणी सहित कई लोक सम्मत गाथाओं को मंचित कर प्राचीन गरिमामय चरित्रों का प्रस्तुतीकरण किया जाता हैं।
जहाँ तक मुहावरे तथा कहावतों का प्रश्न है इनमें अपने लाक्षणिक अर्थ के साथ गागर में सागर भरने की प्रवृति मिलती है। साधारण शब्द देकर विषय गाम्भीर्य का परिचय हमें इनके द्वारा आसानी से प्राप्त होता है। व्यग्यार्थ मूलक स्फुट विधाओं के द्वारा यहाँ की लोक मनोवैज्ञानिक शैली का पता लगाया जा सकता है। आदिम समाज शिक्षित नहीं होते हुए भी कितना विवकेशील था। उसने अपनी प्रतिभा की सहजात वृत्ति से कितनी ही लोक विधाओं को विकसित किया। इन सभी बातों पर सम्यक रूप से विचार करने के उपरांत कहा जा सकता है कि संसार की चाहे कोई भी विधा या संस्कृति क्यों न रही हो, उसका समाज के लिए मानस निर्माण का महत्त्व सदा रहा है। ये स्फुट गद्य विधाएँ भी हमारे कुमाउनी समाज को नैतिकता, मानवता, तथा सद्भाव का पाठ पढ़ाने में समर्थ हैं। एक सामाजिक लोक दर्पण के रूप में इन रचनाओं का महत्त्व सदा बना रहेगा।
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