कुमाउनी साहित्य में वर्णित समाज
प्रस्तावना
साहित्य और सामज में बहस होना 20 शताब्दी के आरम्भ हुआ। साहित्य के समाजशास्त्र को स्थापित करने में विशेष उल्लेखनीय नाम है मादम द स्ताल 1966 1817। विको एकजर्मन दार्शनिक था जो 1724 तथा हर्डर जर्मन दार्शनिक इससे पूर्व सामज और साहित्य के सबंधों के बारे में चर्चा कर चुके थे। मादम की पुस्तक 'दि ला लितरात्यार' (साहित्य के विषय में) मादम साहित्य के दो मूल तत्व मानती है। स्वातन्त्र्य भावना 2. सदाचार देखें तो पाते हैं कि दोनों तत्व मुख्यतः मध्यवर्ग से ही सम्बद्ध है। इसमें दूसरा नाम है फ्रांससी विद्वान तेन का तेन के पहले एडम स्मिथ, हीगेल, स्पेंसर भी साहित्य और समाज के सन्दर्भों में बात कर चुके थे। साहित्य में समाजशास्त्र की का अध्ययन इस तरह से किया जाता है
- कुछ घटकों की परिकल्पना
- साहित्य और समाज की संरचनाओं में समानता
- संस्था के रूप में साहित्य का अध्ययन' ।
एस्कापरीट साहित्य और समाज को इन तीन मुख्य पटकों से पकड़ता है।.
- लेखक
- कृति
- पाठक।
एस्कापरिट कहता है "लेखक साहित्य का सृष्टा है साहित्य में उसका प्रतिफलन होता है। साहित्य को समझने के लिए लेखक के व्यक्तित्व को रूपायतित करने वाले तत्वों का विश्लेषण करना जरुरी है। वह आगे कहता है "लेखक एक खास वर्ग को संबोधित करता है उसकी सृजनात्मक प्रक्रिया पाठक वर्ग की अभिरुचियों, पर्यावरण और विचारधारा से नियंत्रित होती है। लेखक अपने समय की जनता आकांक्षाओ का पोट्रेट प्रस्तुत करता है। रचना की सफलता पाठकों की स्वीकृति और असफलता पाठकों की अस्वीकृति पर निर्भर करती है।"
हिंदी साहित्य के सन्दर्भ में साहित्य और समाज को लेकर विद्वानों ने अलग अलग विचार रखे यथा बालकृष्ण भट्ट ने साहित्य को 'जन समूह के हृदय का विकास' माना है तो महावीर प्रसाद दिवेदी ने साहित्य को 'ज्ञानराशि का संचित कोश' माना है। मुक्तिबोध ने 'कलाकृति को जीवन की पुनर्रचना' माना है और रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य को 'जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब' माना है। प्रेमचंद ने 'साहित्य को समाज के आगे. आगे चलने वाली मशाल' कहा है। हम यहाँ हिंदी की मध्यपहाड़ी भाषा कुमाउनी के सन्दर्भ में कुमाउनी साहित्य में वर्णित समाज के विषय में बात करेंगे। इस भाषा समूह की जो समाजशास्त्रीय आलोचना और मौखिक इतिहास में मील का काम किया वह काम किया डॉ० रामसिंह ने कुमाउनी साहित्य और समाज और इतिहास के संदर्भ दुर्लभ है। उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक राग-भाग काली कुमाऊं इसका उत्कृष्ट उदाहरण है जो प्रत्येक विद्यार्थियों को अवश्य पढनी चाहिए।
उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् आप समझ सकेंगे-
- विद्यार्थी साहित्य और समाज के अंत सबंधों को समझ सकेंगे
- कुमाउनी साहित्य में वर्णित समाज के विषय में जान सकेंगे
- साहित्य के समाजशास्त्रीय पक्ष की पड़ताल कर सकेंगे
कुमाउनी साहित्य में वर्णित समाज
साहित्य का सीधा सम्बन्ध समाज से है और समाज मात्र संरचना नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे कि हिमालय मात्र एक भौगोलिक संरचना नहीं है। बिलकुल नया बनता हुआ यह हिमालय अपने प्रारंभिक अवस्था से ही रहवासियों का चिर सहयात्री रहा है। इसको और इसके रहवासियों को देखे जाने के तमाम नजरिए है। इस हिमालय ने भारतीय समाज, जन, धर्म, मिथक, संस्कृति को अपनी तरह से प्रभावित किया और उससे प्रभावित भी हुआ। इसी हिमालय की उपत्यका में शामिल है कुमाऊं भूभाग और उसका समाज। साहित्य में वर्णित समाज को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त करते हैं-
मौखिक साहित्य में वर्णित समाज एवं लिखित साहित्य में वर्णित समाज
कुमाउनी मौखिक साहित्य में वर्णित समाज
कुमाउनी मौखिक साहित्य में लोकगाथाओं को छोड़ दें तो आम साहित्य जन और उसमें भी प्रमुख रूप से खीजीवन व दलित कामगार या सांस्कृतिक श्रमिकों का समाज दिखाई देता है उत्तराखण्ड की मौखिक परम्परा में बखान की जो परम्परा है वह गुडौल गीतों, भगनौल- बैर, चांचरी, न्यौली, ठुलखेल, वीर गाथाओं, जागर गीतों में सबसे अधिक देखने को मिलती है। भेड़ चरवाहों के जंगली गुफाओं में किस्सों, कथाओं को कहने का अपना अन्दाज है। रातभर आग के चारों ओर बैठ कर वे बारी-बारी अपने किस्से सुनाते हैं। बरसात और जाड़े के दिनों में घर के बुजुर्ग दादा-दादी के किस्से और कथा कहने की परंपरा किसी समय यहाँ भी थी। इन कथाओं को कहने वाला बीच में झिंगुर से लेकर साँप, पशु, पक्षी, बादल, नदी सबकी आवाजें निकाल कर अपने किस्सों और कथाओं को और ज्यादा विश्वसनीय व रोचक बनाते हैं। वीरों के बखान में घोड़ों की आवाज, तलवार के टकराने के आवाजों को तक शामिल करते हैं। सामुहिक श्रृंगार गीतों के मुख्य गायक को बखड़वा या बखड़न्या कह कर सम्बोधित किया जाता है जिसका अर्थ है बखान करने वाला, जो गीत को जोड़ते हुए आगे को गति देता है। इन सन्दर्भों से जो आशय मैंने बखान का लगाया है वह वर्णन या विषय विस्तार करने से ही लगाया है। जिसमें केवल शब्द ही नहीं ध्वनियों व आंगिक चेष्ठायें भी सम्मिलित हैं। उत्तराखण्ड में लगभग 11 पौराणिक गाथाएं 16 स्थानीय क्षेत्रीय देव गाथाएं, 25 वीर गाथाएं और ।। प्रणय गाथाएं मिलती हैं जिसे कहने वाली या तो महिलाएं हैं या अपेक्षाकृत तथाकथित सवर्णों से नीचे माने जाने वाली जातियाँ हैं। और इन कथाओं में कुमाउनी समाज रहन सहन आचार व्यवहार का व्यापक परिदृश्य देखने को मिलता है।
दैनिक जीवन में पहाड़ों के ऊँचाई में चढ़ते उतरते हुए ये महिलाएं जगलों के बीच अपने होने.. मिटने, बनने के बोल रख आती है। यही बोल घाटीयों और पहाड़ों से टकराकर गीत में बदल जाते है। "तिलै धारू बोला" यानि कि तूने इन पहाड़ों पर अपने बोल रखे, बचन दिए। यहाँ के कुछ गीतों की टेक में "तिलै धारू बोला" इसीलिए कहा जाता है। ये वहीं गीत है जिनमें एक नयी पंक्ति जोड़ने साथ गुनगुनाने साथ में नृत्य करने से पहाड़ी महिलाओं का बेढब जीवन थोड़ा आसान हो जाता है। सामर्थ्य भर बोझ उठाने का उनका अदम्य साहस बना रहता है।
रूढ़िया खेत तुड़क्या पानि रूमाल भिजूलो ऊँच डाणो निसो वे जा में ईजु देखूंलो।
एक पहाड़ी महिला जेठ में सूख चुके टप-टप गिरते पानी के बूंदों में एहसासों के रूमाल भिगाने की कोशिश में है। महिला विशालकाय पहाड़ से कहती है, "अरे ओ पहाड़ थोड़ा झुक जा तुम्हारे दूसरी तरफ जो मेरी माँ रहती है मुझे अपनी माँ की याद आ रही है। मैं उन्हें देखना चाहती हूँ। निष्ठुर पहाड़ कहाँ यह समझ सकने में समर्थ है?
पहाड़ों को लेकर बहुत से फैंटेसी भरे नरेटिव देखने-सुनने-पढ़ने को मिलते हैं दरअसल वह सारे आमजन के पहाड़ से एक भिन्न अभिजातीय पहाड़ है। पहाड़ में लोक संस्कृति का प्रतिनिधित्व तथाकथित सभ्य जातियों द्वारा दलित कही जाने वाली जातियां और खियां ही करती है। इसके मूल गायक भी यही है। यही पहाड़ का सबसे मेहनती तपका भी है। इन गीतों में इनके सुख-दुख और संघर्ष सहज ही देखे जा सकते हैं।
फुला सरसेऊ माया रे पिंगली छै रे केश
आज छोड़ी जांछू ईजू रे मैतुरा को रे देश
के डाना है देखलि ईजु मै मैतुरा को रे देश
के 'धुरा है देखूंली बूबा मै मैतुरा का देश
हेरी ऑल फेरि ऑल मै मैतुरा को देश'
परन्तु यह भी सत्य ही है पहाड़ी अभिजन लोक संग्रहकताओं द्वारा महिमामण्डित कुमाऊँनी और गढ़वाली दोनों ही समाजों में जाति और लिंग की असमानता भले ही सुन्दर रमणीक पहाड़ों बुग्यालों और घाटियों के सौन्दर्य में दिखाई न देती हो पर दूर दराज के पहाड़ आज भी इससे ग्रसित है। इनके सारे अनुभवों भी यहां के लोकगीतों में जुड़ते चले गये हैं। अभिजन नायिकाएं और निचली समझी जाने वाली जातियों में दर्जीयों, ग्वालों के साथ प्रेम प्रसग के लोक गीत गाहे- बगाहे सुनने और आचांचरी जोड़ों में देखने को मिल जाते है।
मुनिया टेलर मुनिया
गोपुली बामणी
या
भागा वे पंत्याण भागा छुम छुमा
उपरोक्त चांचारी (लोक गायन की एक शैली) की टेक में एक टेलर के साथ गोपुली नाम की ब्राह्मण महिला के स्वच्छंद मिलन का जिक्र आता है। इसी तरह 'भागा' नाम की ब्राह्मण कन्या पर भी गीत मिल जाता है। लेकिन गैर ब्राह्मण महिलाओं में अपेक्षाकृत ज्यादा मांसल गीत मिलते है। कई लोगों का मानना है कि लोक संस्कृति एक जड़ व रूढ़ चीज है। परन्तु यह संस्कृति को देखने का एक ही पहलु हो सकता है। "लोक संस्कृति अपनी वाचिक पम्परा में स्थितिशील न होकर गतिशील है। हर पीढ़ी अपनी थाती में अपने समय के अनुभवों को किसी न किसी रूप में जोड़ती चलती । स्थितिशील जड़ता कृत्रिमता और कला चम्तकार को लोक संस्कृति में स्थान नहीं मिलता उसकी सबसे बड़ी कसौटी सामुदायिक सामूहिक जीवन है। जो अनुभूति सामुदायिक जीवन का हिस्सा नहीं बन सकती वह लोक साहित्य में अभिव्यक्ति नहीं पायेगा। पहाड़ पर पैदा हुए छायावाद के स्तंभ कवि गुंसाई पंत सुमित्रानंदन जी की कोमलकान्त पदावली से इतर ये लोक गीत पहाड़ के हाड़-मास का प्रतिनिधित्व करते हैं।
उपरोक्त पंक्तियों विवाह में विदाई का गीत है जिसमें दुल्हन अपने माँ से कह रही है कि मैं आज अपना मैंतुरा देश यानि कि माँ का घर छोड़ के जा रही है। अब किस पहाड़ से किस पहाड़ी के जंगलों से अपने माँ का पर देखूंगी। पिता मुझे एक बार अपना गाँव अच्छे से देख के आने दो और घूम कर आने दो। डॉ० त्रिलोचन पाण्डे जिन्होंने कुमाऊंनी साहित्य कि दस्तावेजीकरण में शुरूआती काम किया वे कहते है कि "कुमाऊँनी साहित्य का बहुलांश स्त्रियों द्वारा ही निर्मीत है। जो पुरूषों के अपेक्षा अधिक सक्रिय रहा है। यहां की ग्रामीण स्त्री अकेले जंगलों में जाकर घास, लकड़ी काटन है। नदियों-नालों से पानी भरती है, कृषि कार्यों में हाथ बंटाती है।
सामूहिक उत्सवों में सक्रिय योग देती है। स्थानीय नृत्यगीतों में वह पुरूषों के साथ मिलकर अपने भावों करे स्वच्छंद अभि व्यक्ति करती है। बरसात में पूरे उत्तरपूर्व में पश्चिम नेपाल में कुमाऊँ के पहाड़ी इलाकों में आँटू यानि गौरा पर्व गायन किया जाता है। गौरा गीत हिमालयी महिलाओं के जीवन वृत का प्रबंधात्मक गीत काव्य है इसके नायक और नायिका मैसर और गौरा है। इस प्रबन्ध गीत की नायिका लौली (गौरा या गमरा) का वर्णन मिलता है।
कह उपजी कहें उपजी लौली रे गमरा
बालु बोट गड ठ्ठ लोली रे उपजि
तिल बोट धाना बोट लोली रे उपजि
पोखर भाड़ी निमुआ भाड़ी लोली रे उपजि
आँटू के इन गीतों के माध्यम से पता चलता है कि यह गौरा-मैसर पूर्ण रूप से मध्य हिमालय के जन-जीवन का अपने द्वारा निर्मित लोकल संस्करण है। इसमें गौरी को बलू के पेड़ से तिल के पेड़ से धान के पेड़ से नीबू के बगीचे में पैदा होते दिखाया गया है। "लोकगीतों के अनेक रूप है जिसमें भ्वैनी, चांचरी, जोड़, हुलैरी (लौरी) न्यौली, होली, विवाह के अवसरों पर बारामासा, चैत में ऋतुरैण आदि अमूमन महिलाओं द्वारा गाये जाते हैं पहाड़ में पुरानी कहावत है, पहाड़ो को महिलाओं ने ही अपने आँचल में पास-पोस कर बड़ा किया है। अमूमन पहाड़ी महिलाओं के पति दूर देश में सेना या अन्य पेशों के लिए काम करते है। घर समाज सभी महिलाएं संभालती है। पर फिर भी उन्हें पैतृक समत्ति के अधिकार नहीं प्राप्त है। एक परम्परागत लोक गीत में पहाड़ की महिला अपने पिता से निवेदन करती है।
छाना बिलौरी जन दिया इजू लागला बिलौरी का पाम
हाथ कि दाधुली हाथै रै जाली लागला बिलौरी का पाम
"पिता मुझे छना और विलौरी गांव में मत ब्याहना वहाँ धूप बहुत तेज है। मैं कुछ काम नहीं कर सकूँगी। मेरी दराती मेरे हाथ में रह जायेगी।" कुमाऊँनी समाज में महिलाओं के शोक गीत भी सुनने को मिलते है। इन ओक गीतों में एक गीत है आत्महत्या का गीत। इन गीतों में पता चलता है कि पहाड़ की महिलाओं का आत्मसंघर्ष और सामाजिक संरचना में उनकी हिस्सेदारी और पहाड़ के संन्दर्भ।
चुट मसुर मसुर बुकि
मेरि रतिका दुखि छै, सुखि ? पैलि को पुआ जलि भसम
मेरि रतिका दुखि छ सुखि रतिका बौज्यू रति बुलैदे
मेरि रतिका दुख छ सुखि
उपरोक्त संदर्भित पंक्तियां एक करुणगीत से ली गई हैं। जिसमें राधिका नाम की लड़की की हत्या उसके ससुराल में हो गई है। माँ-बाबा को इस बात की कोई सूचना नहीं है कि राधिका मर गयी या जिन्दा है। क्रूर सास राधिका के पिता को बार- बार राधिका को लेकर झूठ बोलती है बहाने बनाती है कि वह जंगल गई है, वह भेड़ चराने गयी है। दूसरी तरफ राधिका की माँ अपने पति से राधिका को बुलाने की जिद कर रही है वह पूछ रही है कि राधिका सुखी या दुखी? इसी तरह से एक आत्महत्या का भी गीत भी कुमाऊंनी स्त्री गीतों में देखने को मिलता है।
भिमुवै कि डाई करिये निसाफ आज मैं कणी लैरो निसास फांसी बणी गौ मेरो सौरास भिमुवै कि डाई करिये बिचार ज्योड़ी बांधुन आज त्वे पर नी फाड़ी मैले ब्या कि झगुलि नौ तोड़ा मैंले दातुलि ज्योंड़ी कैले चलायो दान दहेज कैले चलायो चेली बेवूण
भावानुवाद
मेरे लिए फांस बन गया है। भिमुवा की डाली तू सोच जरा में आज तुझ पर रस्सी ओ भीमल भिक्वा के पेड़ में आज उदास हूँ। मेरा ससुरार बांधने जा रही हैं। पर मैं अभी नव विवाहिता ही थी। अभी तो मेरी शादी के झगूला भी नहीं फटा/अभी तो मेरी घास काटने को दी गई थी वह दाराती और रस्सी भी नहीं तोड़ सकी है। भिया की डाली ये बताओ कि ये दान दहेज किसने चलाया होगा / ये लड़की का विवाह करना किसने चलाया होगा।' भीमल की हरी पत्तियां पालतू जानवर बहुत प्यार से खाते है भीमल एक चारे का पेड़ है। इस पेड़ के साथ खीयों के अपने संबंध है यह संबंध बहुत भावुक। इसी भीमल Grewia optivads पेड़ को लेकर दर्जनों गीत और छोटे-छोटे जोड़ घस्यार महिलाओं द्वारा बनाई गई प्रतीत होती है। एक ऐसे हो पेड़ से एक पहाड़ी महिला आत्महत्या करने से पहले एक संवाद कर रही है। जैसा कि लोक कथाओं में और मध्ययुगीन प्रेमाआख्यानों में अक्सर देखने को मिलता है कि खियां अक्सर अपने दुख-सुख पेड़-पौधों, पछियों-जानवरों को कहते दिखती है। तत्कालीन पुरुष समाज में खियों को अपने मन की बात कहने के लिए क्यों प्रकृति की आवश्यकता पड़ी है? यह एक अलग बहस का मुद्दा है। जैसे कि इस आत्महत्या के गीत में यह नई नवेली दुल्हन भीमल के पेड़ से कह रही हैं।
चेलिक धन्दा छू यो खराप स्वामी पिनी इजू रातिब्याव सराप कसी काटनुं दिन कसि काटूं रातं क्वे सुणां इजु मेर दुखै कि बात सौरास में लै मारि खाई भौत आज इजू मैं करनूं मौत गाड़ गधेरि बासनि फ्यूंना जल सोचै इजू चेलि होलि ज्यूना'
भावानुवाद
माँ लड़कियों को ब्याहकर ससुराल भेजने की रीत किसने बनाई मेरे पति सुबह-शाम शराब पीते है कैसे काटू दिन और कैसे रात काटू।। कौन सुनेगा मेरी दुख की बात माँ मैने ससुराल में बहुत मार खाई है। ओ मेरी माँ आज मैं आत्महत्या करने जा रही हूँ। नदी नालों में इस वक्त फ्यूना नाम की चिडियां बोल रही है इस चीडियां की आवाज सुनकर ये मत समझना कि तुम्हारी बेटी जिन्दा होग।
इन गीतों को सुनते हुए पहाड़ में खी जीवन के संघर्ष की कथा को समझा जा सकता है यह भी कि जो वंचित और परिधि में आते है उनका पहाड़ कैसा है? वे किस तरह से यहां जीवन बसर करते हैं? यहाँ विरह के लिए न्यौली गीत है जो पहाड़ों में जानवर चुगाने के लिए गई महिलाओं और घास काटती खेती करती महिलाओं द्वारा गाया जाता है। ये गीत बहुत ही मार्मीक और पहाड़ों के निभ्रत वनों में मार्मीक स्वर में किलकने वाली हिमालयन बारबेट यानि न्यौली चिड़िया के नाम से जाने जाते है इस चिड़ियां को पहाड़ में विरह का प्रतीक माना गया है। घूघूती जंगली फाख्ता की प्रजाति के पक्षी को भी विरह का प्रतीक माना जाता है।
काटना काटना पोलि ऊँछ चौमासी को वन थामी जांछ बग्नया पाणि नै थामिनो मन'
भावानुवाद
(कितना ही काटो फिर से उग आता है बरसात में जंगल। बहता हुआ पानी भी थामा जा सकता है पर नहीं थामा जा सकता मन ।)
इस सबके बीच महिलाएं अपनी सामूहिकता को कभी नहीं छोडती है कुछ सामूहिक गीतों में वह अपने जीवन को पूरा जीते हैं उत्साहित होते हैं। मीलों दूर जश्तों में जाकर रात भर गोल घेरे में नृत्य करती है। रात खुलने वक्त अपने साथीयों से कहती हैं।
हापुरा बजाणी धूरा बाजै कि हवा है आजू का जाईयां बटी कबै कि अवै है।
भावानुवाद
पहाड़ों की चोटीयों पर बाज (Oak) की हवा चलने लगी है अरे ओ साथी आज के गुजर जाने के बाद फिर कब मिलना होगा ? इतना ही अनिश्चित मिलना है और इतनी ही गहरी है उस मिलने के बाद बिछुड़ने की टीस भी। जहां एक तरफ पूरे लोक
गीतों में ममूमन लौरियों में बालक का अर्थ केवल पुरुष बच्चा है कुमाउंनी लोक लौरियों में बालक बालिका के जगह केवल एक ही शब्द प्रचलन में हैं' भी' इसीलिए की इसकी अमूमन गायन कामगार खियों ही करती है।
ओली ले ओली
ले तू मेरी प्वोथि मेरो बावो ईजा
तेरी इजु मालूरी का घासू नै रे
आंग्ली काटि लालि चुची भरी लालि
आरे रे आरे/तू मेरी चिड़ियां सुन तेरी माँ मालू के पत्तों का घास
लेने गई / गल्थी भर घास काटकर लोवेगी/ स्तनों में दूध भर लावेगी।
ऐसे बहुत चित्र मिलते है जिसमें अन्य लोकों की तरह की यहाँ भी महिलाओं के पति बाहर नौकरी करते है। घर के सारे जरूरी काम महिलाओं के ही जिम्मे होता है। पहाड़ी महिलाएं बहुत सुबह ही दारातियां लिए बे पहाड़ों की तरफ बढ़ती है और घास काटकर लौटती है घर में दुधमुहा बच्चा माँ के इन्तजार में है और तब उसे सुलाने के लिए इसकी दादी या उसे यह गीत सुनाती है। लोकगीत साहित्य की अमूल्य और अनुपम निधि हैं। इनमें हमारे समाज की एक-एक रेखा, सामयिक बोध की एक एक अवस्था, सामूहिक विजय पराजय, प्रकृति की गतिविधि, वृक्ष, पशु पक्षी और मानव के पारस्परिक संबंध, बलि, पूजा, टोने-टुटके, आशा-निराशा, मनन और चिन्तन सब का बड़ा ही मनोहारी वर्णन मिलता है।"
जंगल घास काटने गई महिला की जिन्दगी बच्चे और भैंस के गिर्द भागती रहती है। वह इस भागमभाग को भी सामूहिक गीत चाँचरी में बदल देती है। यह चाँचरी पूरे गाँव की महिलाओं की जिन्दगी को व्यक्त कर देती है सब गोल घेरे में गाते हैं
हतोड़िया भैंसी मेरी भैंसी खित्योनी सौनी नै। धुर वनों में घास काटण नानी भी मेरी रौनी नै। झांठी का घुंघुर सुवा, भैसी खित्योनी सौनी नै कैथे कूलो दुःख सुख, भैसी खित्योनी सौनी नै क्वे देलो हुंगर सुवा नानी भी मेरी सौनी नै।'
भावानुवाद
हाथ पुगंराऊ भैंस है मेरी, बुरी है दूध नहीं देती ऊँचे जगंलों वनों में जाकर मैं घास काटती हूँ। घर पर मेरी छोटी बच्ची मेरे बैगेर नहीं रह पाती/ लाठी में जो घुंघरू बांधे है वे बजते है पर मैं तो अपना दुख-सुख किससे बाँटू को हुंगरा देने वाला यानि मेरी कहानी में हूँ हाँ कहते हुए सुनने वाला भी नहीं।
कुमाऊँ मण्डल, गढ़वाल मण्डल से संघन सांस्कृतिक संदर्भों के साथ जुड़ा है और दोनों ही क्षेत्रों में स्त्री वीर नायिकाओं की पुरानी प्रणय गाथाएं और वीर गाथाएं भी प्रचलन में है। बीर गाथाओं में कत्यूर वंश की रानी जिया और वीर बाला तीलू रौतेली के अलावा प्रणय प्रेम गाथाओं में कुसुमा कोलिन फ्यूली रौतेली, सरू कुमैण, मालूसाही, जसी, गजू-मलारी, तिलोगा तड़ियाली भानागंगनाथ, सूजू की सुनारी, अर्जुन-वासुदत्ता आदि गथाएं प्रचलन में। इ गीतों में पहाड़ी खीयों के जीवन और संघर्ष को लोक गायकों और महिला के मुंह जुबानी बखूबी सुना जा सकता। इसे लोक गायक स्त्रीयां बहुत ह भाव और लय में सुनाते है। सामुहिक गीतों में गुडौल गीतों (गुड़ाई के गीत) भी इन कथाओं को गाया जाता है। महिलाओं का रचा यह लोक तरह-तरह की सामजिक झांकियों से युक्त है। भले ही पहाड़ी समाज इन महिलाओं के लिए उदार न रहा हो पर जंगल और पहाड़ों के बीच में उनकी सामूहिक उपस्थिति काफी हद तक खियों आपस दारी और अपने दुख को साझा करने का स्पेस ये सामूहिक ही था। कुमाऊँ में भैलो गीत है जिसे लेकर कुमाऊँ में भैलो गीत अब उन गीतों की श्रेणी में आता है जो लुप्त हो गये हैं। वैसे तो यह गीत सामंती कृषि युग का गीत है जिसमें यहाँ की कुछ जातियाँ अपने ततथाकथित बड़ी जाति के आंगन पर जाकर गाती रहीं थीं परंतु कहीं-कहीं भैलो गीत ग्रामीण बच्चे और बालिकाएँ भी गाती थीं। इसके पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं। यह गीत पशुचारक समाज के अधिक निकट जान पड़ता है।
इसमें प्राकृतिक बिम्बों, जानवरों, फलों के साथ-साथ साक-सब्जियों का जिक्र पाया जाता है। नेपाल में गायक गंधर्व ने इसे बहुत सुरीले स्वर में गाया है कुमाउनी भैलो गीत से किंचित भिन्न लय और ताल में जिसे यू ट्यूब पर भी सुना जा सकता है। इसी के साथ इसका दूसरा वर्जन यह भी है कि यह केवल बड़ी जोतों के किसानों का त्यौहार है। बहुत हद तक यह संभव है। पर गीत में जिस जमींदार समाज का जिक्र है, वह उत्तराखण्ड की तथाकथित बड़ी राजजातियों की तरफ इशारा करती है। हुडकी बौल में भी समाज को एक भिन्न रूप से देखा गया है इसे पूर्ववर्ती अध्येताओं ने केवल कृषि गीत कहकर इतिश्री कर ली है। उददेश्य की पूर्ति में लगा हो, उसे सामूहकिता नहीं कहा जा सकता है। जबकि जमींदारों के खिलाफ कोई लोक गीत सामुहिक नहीं दिखता। क्योंकि दासता से मुक्ती का भाग्यवादी नजरिया हमारे लोकों में हावी रहा। परन्तु नव जागरण के बाद यह भाग्यवादी नजरिया छूट गया क्योंकि यह एक सवर्धा नई चेतना है। इसीलिए हुड़की बौल सबसे पहले खत्म होने वाले लोक गीतों में है। क्योंकि इससे सबसे पहले हुड़किया हटा जो फटे हाल जाति का दंश सहते हुए गाथाओं की गा-गा कर सिरतानियों के रंगों में अपने सामन्त या राजा की वीरता, उदारता के किस्से गाता रहा । सब खैकर खाने का कर देने वाली जातियाँ थीं। उसमें एक खास व्यवस्था के तहत पेशागत जातियाँ थी जी सामन्तों के लिए काम करते थे। ओड़, बारूड़ी, बाजगी, किसान, ल्वार सभी इसी कर के रूप में अनाज अपने सिरतानों को देते थे और कुछ अपने पास रखते थे।
दुनिया के तमाम पुराने समाज में अपने राजाओं और मालिकों के लिए उनके खेतों में काम करते गाये जाने वाले गीत इसी तरह के हैं। इसलिए हुड़की बौल कोई दुर्लभतम उदाहरण नहीं है। ये भी सच है कि बहुत बाद में जाकर जब भूस्वामित्व इन्हीं खैकर जातियों / वर्गों के पास आया तो इनमें भी जो सबसे दबंग जातियाँ और पधान परिवार थे, वे एक तरह से इस सामुहिकता का प्रयोग ठीक उसी तर्ज पर करने लगे। कमजोर वर्गों को जमीनों के विभाजनों में ठग लिया गया। पर इसमें एक नये ही तरह की परिघटना हुई। जो यह थी कि तमाम किसानों ने इसे मिलकर अपने खेतों की आर-सार में बदल दिया। पर हुड़का बजाने वाला अब नए जमींदारों का गुलाम हो गया। कुछ जातियों के लिए केवल मालिक बदले। कुछ दास मालिक बने। इन्हीं मालिक जातियों का बहुत बड़ा हिस्सा अब शहरी मध्यवर्ग में बदल चुका है जो इन अवशेषों से यादवादी ढंग से चिपके रहना चाहता है। स्यूसर लिखता है- "श्रम कार्य संगीत और गीत, अपने विकास की आरंभिक अवस्था में एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे लेकिन इस त्रयी का बुनियादी तत्व श्रम कार्य ही था दूसरे तत्व उसके मताहत थे।" ब्रह्म प्रकाश की 2019 में आई ऑक्सफ़ोर्ड से प्रकाशित पुस्तक Cultural Labour Conceptualizing the 'Folk Performance' in India भारत में सांस्कृतिक श्रम को एक नए नजरिए से देखने की पुस्तक है विद्यार्थी इस सबंध में गहराई से अध्ययन करना चाहे तो इस पुस्तक को पढ़ सकते हैं। जिसमें वह यह स्थापना दर्ज करते हैं. James Scott's statement that, like slavery and serfdom, 'caste subordination represents an institutionalized arrangement for appropriating labour, goods, and services from subordinate popu- lations' इस कथन का सबंध सीधे हुडकी बोळ से मिलता है या रितुरैण से मिलता है। इसके अलावा कई विद्वान इसे कुमाउनी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा भी मानते है। लोकगाथाओं में उच्चकुलीन नायकों या तत्कालीन सामंतों, पहलवानों और राजाओं के स्तुतिगान मिलते हैं। मौखिक साहित्य में वर्णित समाज ज्यादातर स्त्री पीड़ा संघर्ष और आम जन के कार्यव्यापारों का व्यापक फलक खींचता है।
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