लोक साहित्य के संरक्षण की समस्या एवं समाधान (Problem and solution of conservation of folk literature)

लोक साहित्य के संरक्षण की समस्या एवं समाधान

कुमाऊँनी संस्कृति की झलकः लोकगीत(Glimpses of Kumaoni Culture: Folklore )

कुमाउनी भाषा साहित्य (Kumaoni Language Literature)

कुमाउनी साहित्य में वर्णित समाज (Society described in Kumaoni literature)

कुमाउनी क्षेत्र की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ (Dialects and dialects of Kumaoni region)

कुमाउनी लोकगाथाएँ इतिहास स्वरूप एवं साहित्य(Kumaoni Folklore, History, Forms and Literature)

कुमाउनी साहित्य की भाषिक सम्पदाएँ(Linguistic Wealth of Kumaoni Literature)

कुमाउनी लोक साहित्य का इतिहास(History of Kumaoni Folk Literature )

लिखित साहित्य में वर्णित समाज (Society described in written literature)

लोक साहित्य के संरक्षण की समस्या एवं समाधान (Problem and solution of conservation of folk literature)

कुमाऊँनी का लिखित पद्य साहित्य(Written Verse Literature of Kumaoni )

कुमाउनी लोकसाहित्यः अन्य(Kumaoni Folklore: Others )


 प्रस्तावना
उद्देश्य
लोक साहित्य
लोक साहित्य के संग्रहण की आवश्यकता एवं प्रयास
लोक साहित्य के संकलन एवं संग्रहण से जुड़ी समस्याएं
लोक साहित्य के संरक्षण के प्रयास
लोक साहित्य संग्रहकर्ता के उपादान
लोक साहित्य संग्रह की समस्याओं का समाधान

 प्रस्तावना

यह इकाई लोक संस्कृति के अध्ययन एवं संरक्षण की प्रविधियों पर बात करता है। लोक संस्कृति का प्राण-तत्त्व लोक साहित्य है। यदि लोक जीवन न हो तो लोक मानव का जीवन नीरस और निष्क्रिय होकर यंत्रवत् हो जायेगा। उसकी सहज मुस्कुराहट, उत्साह, उल्लास, उमंग समाप्त ही हो जायेंगे। वास्तव में लोक साहित्य से प्रेरणा पाकर ही मानव जीवन सदैव ऊर्जावान बना रहता है इसलिए इस लोक साहित्य को बचाना एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य है। हमने इससे पहले की इकाई में लोक क्या है? समाज और संस्कृति इत्यादि की अवधारणा को समझने की कोशिश की है। इस इकाई में हम लोक संस्कृति और लोक साहित्य क्या है? समझ सकेंगे। लोक संस्कृति और लोक साहित्य में अंतर को समझ सकेंगे। इस अध्याय में हम लोक साहित्य और लोक संस्कृति के संरक्षण की प्राविधि को समझेंगे। इस अध्याय में हम यह भी समझने का यत्न करेंगे की लोक साहित्य और लोक संस्कृति के संरक्षण में क्या चुनौतियाँ हो सकती हैं? इसके संरक्षण के लिए सांस्थानिक और व्यक्तिगत प्रयास कैसे संभव है। सरकार अथवा अन्य संगठन कैसे इसे बचाने और प्रसारित करने के प्रयास कर रहे हैं।

उद्देश्य

इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप
लोक साहित्य के संरक्षण के क्षेत्र में आने वाली समस्याओं से अवगत हो सकेगें।
लोक साहित्य के संरक्षण में आने वाली कठिनाइयों के समाधान की दिशा में भी सोच सकेंगे।
लोक साहित्य के संरक्षण के महत्त्व को जान सकेंगे.
लोक साहित्य क्या है? समझ सकेंगे।
लोक साहित्य के अध्ययन एवं संरक्षण की प्रविधियों को समझ सकेंगे। लोक साहित्य और लोक संस्कृति के अंतर को समझ सकेंगे।
लोक साहित्य के स्वरुप को समझ सकेंगे।
लोक साहित्य के संरक्षण की भारतीय और पाश्चात्य तरीकों को जान सकेंगे।

लोक साहित्य

    मनुष्य स्वभाव से समूह में रहता है। सामूहिकता मनुष्य के स्वाभाव का जैविक और अभिन्न हिस्सा है। मनुष्य अपने उद्विकास में इसी सामूहिकता की वजह से अपने को सबल बनाया है और संरक्षित किया है। उसने अपने जीवन-शैली को विभिन्न रीति के तहत संरक्षित किया है। अपनी मान्यताओं को संरक्षित और संवर्धित करने के लिए उसने उसे लोक रीति, लोक मान्यता, लोक जीवन, लोक साहित्य को संरक्षित करने का प्रयास किया। यही वजह है कि यह सामूहिक, एकल और सांस्थानिक तीनों स्तर पर घटित होता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। जो उसने देखा, महससु किया उसे कविता में विरोया। इसी प्रकार साहित्य का जन्म हुआ। मोटे तौर पर साहित्य के दो प्रकार होते हैं-एक शिष्ट-सुसंस्कृत साहित्य जो शिक्षित लोगों से रचित होता है और लिपिबद्ध होता है उसे शिष्ट साहित्य या परिनिष्ठित साहित्य कहा जाता है। दूसरा साहित्य वह है जो असंस्कृत, अशिक्षित जनसामान्य का साहित्य होता है और मौखिक होता है, उसे लोक साहित्य कहा जाता है। लोक साहित्य की एक लंबी एवं प्राचीन परंपरा मिलती है। लोक साहित्य दो शब्दों से बना है- लोक साहित्य। लोक साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जिसकी रचना लोक करता है। 'लोक' शब्द समस्त जन समुदाय के लिए प्रयुक्त होता है। लोक शब्द का अर्थ है- देखने वाला। वैदिक साहित्य से लेकर वर्तमान समय तक लोक शब्द का प्रयोग जनसामान्य के लिए हुआ है। 
        लोक शब्द से अभिप्राय उस संपूर्ण जन समुदाय से है जो किसी देश में निवास करता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों और गांव में फैली हुई वह समस्त जनता है, जिसके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं है।" कहने का भाव यह है कि जिन का ज्ञान जीवन के अनुभवों पर आधारित है अतः लोक साहित्य जन सामान्य के जीवन अनुभवों की अभिव्यक्ति करने वाले साहित्य का नाम है।लोक साहित्य उतना ही प्राचीन है जितना की मानव क्योंकि इसमें जनजीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ग प्रत्येक समय और प्रकृति सभी कुछ समाहित है। लोक साहित्य एक तरह सेजनता की संपत्ति है। इसे लोक संस्कृति का दर्पण भी कहा जाता है। जन संस्कृति का जैसा सच्चा एवं सजीव चित्रण लोक साहित्य में मिलता है वैसा अन्य कहीं नहीं मिलता। सरलता और स्वभाविकता के कारण यह अपना एक विशेष महत्व रखता है। साधारण जनता का हंसना, रोना खेलना गाना जिन शब्दों में अभिव्यक्त हो सकता है वह सब कुछ लोग साहित्य में आता है।

    धरिंद्र वर्मा के अनुसार, "वास्तव में लोक साहित्य वह मौखिक अभिव्यक्ति है जो भले ही किसी व्यक्ति ने गढ़ी हो पर आज इसे सामान्य लोक समूह अपनी ही मानता है। इसमें लोकमानस प्रतिबिंबित रहता है।"
डॉ त्रिलोचन पांडे के अनुसार, जन-साहित्य या लोक-साहित्य उन समस्त परंपराओं, मौखिक तथा लिखित रचनाओं का समूह है जो किसी एक व्यक्ति या अनेक व्यक्तियों द्वारा निर्मित तो हुआ है परंतु उसे समस्त जन समुदाय अपना मानता है। इस साहित्य में किसी जाति, समाज या एक क्षेत्र में रहने वाले सामान्य लोगों की परंपराएं, आचार-विचार, रीति- रिवाज, हर्ष-विषाद आदि समाहित रहते हैं।"
        उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि लोक साहित्य और लोक जीवन को अभिव्यक्त करने वाला साहित्य है। यह सर्वसाधारण की संपत्ति है लोक साहित्य जीवन का वर समुद्र है जिसमें भूत भविष्य वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है। इस साहित्य में लोग जीवन की सच्ची झलक देखने को मिलती है। यह कैसी कृति है जिस पर समस्त लोग का समान अधिकार है। लोक व्यवहार शिक्षा का आधार कहा जाता है।

लोक साहित्य के संग्रहण की आवश्यकता एवं प्रयास

लोक साहित्य नगर में हो अथवा गांव में वह लोक साहित्य जी और दोनों ही स्थानों पर उसके मूल रूप में क्षय की संभावना बढ़ी है। एक ओर जहां प्रचलित लोक साहित्य को सहेजना कठिन है तो दूसरी ओर लुप्त, बिखरे और फैले हुए 
        लोक साहित्य का संकलन साहित्य कर्ताओं के लिए एक बड़ी चुनौती है। प्रत्येक क्षेत्र और समाज का अपना लोक साहित्य है। उस का संकलन करने से विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृति और जीवन को नया रंग प्राप्त होगा। लोक साहित्य का अध्ययन आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है संपूर्ण विश्व में लोक साहित्य का आपसी समन्वय भी बन रहा है लोक साहित्य के संकलन में प्राप्त सामग्री का संपूर्ण विश्व में अनेक क्षेत्रों में उपयोग किया जा सकता है। लोक साहित्य के सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक शैक्षणिक नैतिक ऐतिहासिक एवं भाषा वैज्ञानिक क्षेत्र में महत्व को देखते हुए आज इसके संकलन की सबसे बड़ी आवश्यकता महसूस होती है। लोक साहित्य के संकलन का कार्य अनेक विधियों द्वारा किया जा रहा है जिन का परिचय इस प्रकार है-
प्राचीन समय में संग्रहण
भारत में लोक साहित्य पर शोध कार्य का प्रारंभ तीन दिशाओं में हुआ-
क. अंग्रेज प्रशासकों के वर्ग द्वारा
ख. ईसाई प्रचारकों द्वारा
ग. भारतीय विद्वानों द्वारा

        इन दोनों का लक्ष्य भारतीय लोक मानस को समझ कर अपने अनुकूल बनाना था। प्रशंसक वर्ग भारतीयों के आचार विचार परंपराओं विश्वासों को समझ कर उन्हें नियंत्रित करना चाहता था तो ईसाई प्रचारक धर्म परिवर्तन के अवसरों की खोज में थे। सर कर्नल टॉड की पुस्तक "एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान अथवा सेंट्रल एंड वेस्टर्न राजपूत स्टेट्स ऑफ इंडिया" ने, सर ग्रियर्सन, विलियम क्रुक, ई. घर्सटन आदि विद्वानों ने दक्षिणी भारत, राजस्थान, पंजाब, बंगाल तथा उत्तर भारत के विभिन्न जनपदों की लोक-संस्कृति के संग्रह, संपादन, अध्ययन तथा प्रकाशन में अत्यधिक भूमिका निभाईी भारतीय लोक साहित्य के संकलन अध्ययन और प्रकाशन का कार्य काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा किया गया। कोमल कोठारी (Monograph on Langas of Folk Musical Cast of Rajasthan' और 'Folk Musical Instruments of Rajasthan Folio'), रामनारायण उपाध्याय ('लोक साहित्य समग्र'), डॉक्टर सत्येंद्र (ब्रज भाषा का लोक साहित्य), रामनरेश त्रिपाठी (कविता कौमुदी), कृष्ण देव उपाध्याय (लोक साहित्य की भूमिका), वासुदेव शरण अग्रवाल, देवेंद्र सत्यार्थी, श्री झवेरचंद मेघाणी (गुजराती लोक साहित्य), राम प्रसाद दाधीच, श्याम परमार (मालवी लोक साहित्य), डॉ. सत्या गुप्ता (खड़ी बोली का लोक साहित्य), डॉ. अर्जुन देव चारण (राजस्थानी ख्याल साहित्य), डॉ. चंद्रशेखर रेड्डी (आंध्र लोक साहित्य), डॉ. त्रिलोचन पांडे (कुमायूं लोक साहित्य), डॉ. गोविंद चातक (गढ़वाली लोक गीतों का सांस्कृतिकअध्ययन), डॉ. उदय नारायण तिवारी (भोजपुरी मुहावरे और पहेलियां) इत्यादि अनेक ऐसी विभूतियां हैं जिन्होंने लोक साहित्य के अध्ययन के क्षेत्र में अपना विशिष्ट योगदान दिया है।

वर्तमान में संग्रहण

वर्तमान में लोक साहित्य के संकलन का कार्य तीन प्रकार से हो रहा है-
    शौकिया संग्रहकर्ताः शौकिया संग्रह करता अपने शौक के लिए लोक साहित्य का संग्रह करता है। एक शौकिया संग्रह करता व्यवसाय या लेखक कुछ भी हो सकता है जो अपनी जिज्ञासा हुई थी या सूची के अनुसार लोक साहित्य की विधाएं संकलित कर उनका पठन-पाठन करता है। लोक साहित्य की यह सामग्री अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इसमें व्यक्तिगत रूचि एवं महत्वपूर्ण तथ्य शामिल होते हैं।
    व्यक्तिगत अनुसंधानकर्ताः व्यक्ति अनुसंधानकर्ताओं का अस्तित्व आरंभ से लेकर आज तक मिलता है। जब कोई व्यक्ति अपने शोध से संबंधित, लेख के लिए, पुस्तक के लिए या आलेख पत्र के लिए लोक साहित्य से संबंधित सामग्री की खोज करता है एवं उन्हें प्रामाणिक तथ्यों के साथ पोस्ट करते हुए प्रस्तुत करता है वह व्यक्तिगत अनुसंधानकर्ता कहलाता है। लोक साहित्य का अध्ययन आरंभ से लेकर आज तक व्यक्तिगत अनुसंधानकर्ताओं द्वारा ही किया जा रहा है। अनुसंधानकर्ता विभिन्न शोध दृष्टियों द्वारा लोक साहित्य का संकलन करता है।
  • संगठित अनुसंधानकर्ताः संगठित अनुसंधानकर्ता दो तरह के होते हैं-
  • विश्वविद्यालयों के संगठन- जिनमें विभिन्न शोधकर्ता या विभाग अपने अपने हिसाब से लोक साहित्य संबंधी आंकड़ों को एकत्रित करते हैं।
  • संस्थाओं के संगठन-विभिन्न संस्थाएं भी अपने स्तर पर लोक साहित्य के संकलन का कार्य कर रही हैं।

 लोक साहित्य के संकलन एवं संग्रहण से जुड़ी समस्याएं

लोक साहित्य का अध्ययन आज सबसे बड़ी आवश्यकता है। शिक्षा में इसे महत्वपूर्ण स्थान मिल चुका है तथा विश्वविद्यालयों में भी इसी विषय के रूप में स्वीकारा जा रहा है। संपूर्ण विषय में लोक साहित्य का आपसी समन्वय भी बन रहा है परंतु लोक साहित्य के संगठन का कार्य अत्यंत कठिन है। यह मानवीय क्षेत्र है। हस्तलिखित ग्रंथों की खोज तो कठिन है ही साथ ही उसके प्रकाशन और प्रचार-प्रसार का कार्य भी उतना ही कठिन है। लोक साहित्य तो मौखिक अभिव्यक्ति है अतः इसका संकलन अत्यंत कठिन कार्य है। लोक साहित्य का संरक्षण एक अत्यंत दुष्कर कार्य है। इसके पग-पग पर अनेक विभिन्न बाधाएँ प्रस्तुत होती रहती हैं। यह काम पर्याप्त समय और धन की अपेक्षा रखता है। इसका मूलरूप सुदूर पिछड़ी जातियों के मौखिक परम्परा में ही शेष है। आज की विकास की दौड़ ने इन ग्राम्य प्रदेशों में नागरिक सभ्यता का प्रभाव पड़ा है और ये लौकिक साहित्य आज अपना मूल रूप खोते जा रहे हैं। इसके संग्रह और संकलन का कार्य बहुत ही परिश्रम साध्य है। इस कार्य के निष्पादन में बहुत सी समस्याओं का सामना करना पडता है।
  1. लोक गायकों का अभाव लोक गायक धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं। पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने लोक गीतों के प्रति लोगों के मन में उपेक्षा का भाव ला दिया है। वृद्ध पीढ़ी इन गीतों को संरक्षित रखे हुए है। अतः इनका संग्रह एक कठिन काम बन गया है।
  2. पर्दे की प्रथा: ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकांश स्त्रियाँ पर्दे का व्यवहार करती हैं। ऐसी स्थिति में इनके कंठ में संरक्षित गीतों का संग्रह करना एक दुष्कर कार्य है।
  3. पुनरावृत्ति में असमर्थता अकसर लोक गायक अपनी मस्ती में लोक गाथाओं का गान करते हैं। सुर, लय ताल से निबद्ध भावावेश में गाये गीतों को कभी-कभी यथावत् संग्रह करना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में किसी छूटी पंक्ति को पुनः गाने में गवैया असमर्थ होता है। इसीप्रकार खियों के मांगलिक अवसरों पर समवेत स्वर में गाये गीतों पर भी पुनः गायन की समस्या रहती है।
  4. विशेष समय पर ही गायन का क्रम लोक गीतों के संग्रह कर्ता के सामने सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि ऋतु  विशेष पर, अवसर विशेष पर या आयोजन विशेष पर ही कुछ गायन संभव हो पाते हैं। इन्हें कभी भी गवैयों से सुनने के अवसर नहीं मिल पातें। संग्रह कर्ता को अनुकूल समय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उदाहरण के लिए रोपनी के गीत, खेतों में धान रोपते समय ही गाये जाते हैं। प्रतिकूल अवसर पर इनकी उपलब्धि संभव नहीं। उत्तराखण्ड के संदर्भ में 'जागर इत्यादि गीत पूजा या आयोजन के समय ही अनुकूल वातावरण की सृष्टि के साथ गाये जाते हैं। इनका संग्रह कहीं भी और कभी भी के आधार पर नहीं किया जा सकता।
  5. संकोची मनोवृत्ति: प्रायः सुदूर ग्रामीणवर्ती क्षेत्र के लोग संकोची प्रवृत्ति के होते हैं। उनसे गीतों को समझकर लिपिबद्ध  कराना अत्यंत कठिन काम है।
  6. दुर्गम प्रदेश: देश के कई अथवा अधिकांश प्रदेश दुर्गम, अतिदुर्गम इलाकों में बसे हैं। वहाँ तक पहुँचना बहुत टेढी खीर है। यातायात के न तो उपयुक्त साधन है न कई क्षेत्रों में विधिवत् सड़कें ही बनी हैं। मीलों दूर पैदल चलकर सुदूर स्थलों पर पहुंचना संग्रह कर्ता के लिए अत्यंत कष्ठकारी है। यही नहीं यहाँ की भौगोलिक स्थिति और मौसम समय-समय पर रंग बदलता है। ऐसी स्थिति में संग्रह कर्ता से पर्याप्त धैर्य, साहस और जीवट की अपेक्षा की जाती है।
  7. श्रम साध्य कार्य: लोक साहित्य का संकलन अत्यंत परिश्रम का कार्य है। धरती पुत्रों द्वारा सहज भाव गाए जाने वाले गीतों, सुनाई जाने वाली कथाएं और खेले जाने वाले नाटकों को लिपिबद्ध करना अत्यंत कठिन होता है। वर्तमान में लोक गायक धीरे-धीरे कम होती जा रहे हैं। पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने लोकगीतों के प्रति लोगों के मन में उपेक्षा का भावना दिया है केवल वृद्ध पीढ़ी इन गीतों को सुरक्षित रखे हुए है। दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकांश गीत या गाथाएं स्त्रियों द्वारा गाए व सुनाई जाती है। मित्रों की अधिकांश खियां पर्दे का व्यवहार करती है तथा ऐसे में पूर्ण जानकारी एकत्रित करना एक दुष्कर कार्य है। कुछ लोकगीत या लोक गाथाएं ऐसी हैं जो विशेष समय पर ही गई व सुनाई जाती है अतः इनका संग्रह उसी समय किया जा सकता है। इस तरह लोक साहित्य का संग्रह कठिन काम बन जाता है
  8. संदिग्ध विश्वसनीयता लोक साहित्य संबंधी आंकड़े मानवीय हृदय के भावों पर निर्भर होते हैं यह आंकड़े प्रत्येक समाज में परिवेश के अनुकूल परिवर्तित होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में लोक साहित्य का संग्रह करने वालों पर विश्वसनीयता संदिग्ध रहती है अर्थात संग्रह कर्ताओं ने सही आंकड़ों का चयन किया है या नहीं इस पर पूर्ण विश्वास करना कई बार कठिन हो जाता है।
  9. प्राचीन परंपराओं पर आधुनिकता का प्रभाव आधुनिक समय में परंपराओं की महत्ता कम होती जा रही है। पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने वाली आधुनिक पीढ़ी प्राचीन संस्कारों में अधिक विश्वास नहीं रखती। आधुनिक युग में रात रात भर अलाव के पास बैठकर कथा कहानियां कहने वाले रिवाज भी समाप्त होते जा रहे हैं। धार्मिक अवसरों पर गाए सुनाए जाने वाले गीत और कथाएं भी नाममात्र ही शेष रह गई है। आधुनिक संचार माध्यमों जैसे रेडियो और टेलीविजन ने सामूहिक ग्रामीण जीवन को छिन्न-भिन्न कर दिया है। ऐसी स्थिति में लोक साहित्य विधाओं का संग्रहण कठिन हो जाता है।
  10. धार्मिक अंधविश्वास धार्मिक अंधविश्वास भी लोक साहित्य को लिपिबद्ध करवाने में बाधक बनते हैं लोक में निजी ज्ञान को गुप्त रखने की प्रवृत्ति सदा से रही है। लोक साहित्य का संबंध पर्व त्यौहार, पूजा-जात्रा, श्रम-विश्राम, मेले, व्रत, अनुष्ठान आदि से रहता है। लोक गायक समय के विरुद्ध इन्हें गाने सुनाने में सदा आनाकानी करते हैं। लोग अपने धार्मिक विश्वासों को बाहरी लोगों के सामने नहीं लाना चाहते तथा पढ़े-लिखे शोधार्थियों को भी वह शंका की दृष्टि से देखते हैं। ऐसी स्थिति में सही आंकड़े प्राप्त करना दुष्कर हो जाता है।
  11. पुनरावृति में असमर्थता अक्सर लोक गायक अपनी मस्ती में लोक गाथाओं या लोकगीतों का गान करते हैं। सूर, ताल से निबद्ध भावावेश में गाए गए गीत कभी-कभी उसी रूप में संग्रह करना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में किसी छूटी पंक्ति को पुनः गाने में गायक असमर्थ होता है। इसी प्रकार खियों के मांगलिक अवसरों पर एक स्वर में गाए गए गीतों का भी उन्हें गायन करना या उन्हें लिपिबद्ध करना समस्या रहती है।
  12. भाषा विषयक ज्ञान की कमी प्रत्येक समाज की भाषा व बोली अलग-अलग होती है। संग्रह करता को समाज के इतिहास वह पूर्व परंपरा के साथ-साथ लोक बोलियों की जानकारी होना आवश्यक होता है। एक संग्रह करता के लिए प्रत्येक समाज की भाषा वह बोली को जानना असंभव है। कई बार लोक गायक परंपरागत शब्दावली भूल जाते हैं तो उसमें अपनी ओर से कुछ ना कुछ ओड़कर उसे आगे बढ़ाते हैं। अतः संग्रहकर्ता के लिए उन छूटे गए अंशों को खोज कर निकाला सरल नहीं होता।
  13. अनुसंधानकर्ताओं का उदार एवं अवसरवादी दृष्टिकोण: विदेशी अनुसंधानकर्ताओं के उदार एवं अवसरवादी दृष्टिकोण के कारण लोक साहित्य से जुड़े कलाकारों को धन पाने की लालसा भी रहती है। एक साधारण शोधकर्ता कई बार धनराशि नहीं दे सकता। अतः लोक कलाकार उसे जानकारी देने में आनाकानी करते हैं। कई पहाड़ी प्रदेशों में लोक गायक प्रायः मदिरापान आदि के अभ्यस्त होते हैं और शोधार्थी के लिए इसकी व्यवस्था करना सहज नहीं होता।
  14. प्रकाशकों की समस्या लोक साहित्य का प्रकाशन एक सबसे बड़ी समस्या है। प्रकाशक वही छापता है जो बिकता है। विभिन्न बोलियों में रचा गया लोक साहित्य पढ़ने वाले बहुत कम रह गए हैं। सरकारी विभागों की ओर से भी प्रायः लोक साहित्य और लोक साहित्यकारों को उपेक्षा ही मिलती आई है जिसके कारण लोक साहित्य के प्रकाशन में बाधा उत्पन्न होती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि लोक साहित्य का संग्रहण एक सबसे बड़ी समस्या और कठिन कार्य है। वर्तमान युग में जटिल एवं भौतिकता प्रधानता बढ़ती जा रही है जिसके कारण सहज और स्वच्छ प्रवृत्तियों से जुड़े साहित्य का सरंक्षण कठिन होता जा रहा है। लोक साहित्य के संकलन एवं सरंक्षण के लिए संग्रहकर्ता को क्षेत्र विशेष की परंपराओं का ज्ञान होना आवश्यक है, साथ ही वहां की भाषा पर भी अच्छा अधिकार हो तभी वह वहां की परंपराओं को पूर्णता लिपिबद्ध कर सकता है। इसके साथ-साथ लोक साहित्य का संग्रह करने वाले व्यक्ति का व्यवहार सामाजिक होना जरूरी है ताकि वह स्थानीय जनता के प्रति सहानुभूति पूर्वक व्यवहार कर उनके विश्वासों, प्रथाओं और अंधविश्वासों के लिए सम्मान प्रदर्शित कर सके। अन्यथा स्थानीय लोग आत्मीयता के भाव के बिना अपनी प्रथाओं और विश्वासों की जानकारी उसे नहीं देंगे। इसके साथ-साथ संकलनकर्ता की दृष्टि निष्पक्ष व वस्तुनिष्ठ होनी चाहिए। अधिकांश में लोक साहित्य मौखिक या श्रुत परंपरा में ही जीवित रहता है। ऐसे में लोक साहित्य को लिपिबद्ध करना कठिन कार्य है। जो उस क्षेत्र की बोली को जानता हो या उसके से विशेष की बोली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन करने में समर्थ हो वही शुद्ध लिप्यंकन कर सकता है। एक संग्रहकर्ता के लिए विषय बोध, जिज्ञासा, दूरदृष्टि, आत्मानुशासन, ईमानदारी, वस्तुनिष्ठता, निर्भीकता, धैर्यशील था, समयनिष्ठा, व्यवहार कुशलता, परिश्रम और संघर्षशीलता तथा आधुनिक तकनीकों का जानकारी आदि गुणों का होना आवश्यक है।

लोक संस्कृति के संरक्षण के प्रयास

लोक संस्कृति के संरक्षण के प्रयास सांस्थानिक, अकादमिक एवं व्यक्तिगत स्तर पर होते रहते हैं। वर्तमान में कई तरह के प्रयास संभव हो रहे हैं। उदहारण के तौर पर
क. क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र,
ख. गुरु शिष्य परंपरा,
ग. ऑक्टेव,
प. राष्ट्रीय सांस्कृतिक विनिमय कार्यक्रम,
ङ. विविध समारोह,
च. स्पीक मैके इत्यादि द्वारा

यह प्रयास स्पष्ट तौर पर दिखता है। भाषा, लोकनृत्य, कला और संस्कृति को संरक्षित करने एवं बढ़ावा देने के लिये सरकारी स्तर पर प्रारंभ की गई योजनाएँ:
        केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने आदिवासियों की भाषा, लोकनृत्य, कला और संस्कृति को संरक्षित करने एवं बढ़ावा देने के लिये कई योजनाएँ शुरू की हैं। भारत सरकार ने पटियाला, नागपुर, उदयपुर, प्रयागराज, कोलकाता, दीमापुर और तंजावुर में क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र (Zonal Cultural Centres- ZCCs) स्थापित किये हैं। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के तहत ये ZCCS लोक/जनजातीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये कई योजनाएँ लागू कर रहे हैं। क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों द्वारा प्रारंभ की गई योजनाएँ:

लोक साहित्य संग्रहकर्ता के उपादान

डा. कृष्ण देव उपाध्याय ने लोक साहित्य संग्रह हेतु दो प्रकार के साधनों की चर्चा की है- 1. आंतरिक साधन 2. बाह्य साधन ।। आंतरिक साधन में उन्होंने लोक साहित्य प्रेमी के लिए कुछ गुणों की चर्चा की है, जिनमें ग्राम्य जनता से तादाम्यीकरण, सहानुभूति, अनुसंधान चातुरी, तथ्यों की भली भाँति परख, स्थानीय शब्दों का प्रयोग, यथा श्रुतम् तथा लिखतम्, संग्रह की प्रमाणिकता, विभिन्न पाठों का संग्रह तथा बाह्य साधनों में नोट बुक, पैन, पेन्सिल, कैमरा रिकॉर्डिंग मशीन, फिल्म निर्माण इत्यादि की चर्चा की है। इन साधनों की विस्तार से चर्चा करने पर ही हम संग्रह की कठिनाइयों और उसकी निराकरण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे।

संकलन कर्त्ता के अपेक्षित गुण अथवा विशेषताएँ

  1. विषय बोध- संग्रह कर्त्ता के मनोमस्तिष्क में विषय प्रवेश का एक स्पष्ट खाका होना चाहिए। उसे क्षेत्र विशेष की आवश्यक जानकारी होनी चाहिए ताकि वह उपयुक्त स्थल विशेष तक पहुँचकर लोक साहित्य को जुटा सके।
  2. जिज्ञासा- अनुसंधित्सु को जिज्ञासु होना अत्यंत आवश्यक है। जिज्ञासा उसे अभीप्सित लोक साहित्य की विविध विधाओं के प्रति आकर्षित करती है और वह पूर्ण मनोयोग से तथ्यों का संकलन करता चलता है।
  3. दूरदृष्टि- संकलन कर्त्ता को अपने काम में निपुण होने के साथ-साथ दूर दृष्टि रखने वाला भी होना चाहिए। यह दृष्टि ही उसे संकलित तथ्यों को विश्लेषित करने में सहायता प्रदान करती है और स्वयं ही अनावश्यक व कम उपयोगी तत्व व छाँट लेता है।
  4. आत्मानुशासन- संकलन कर्त्ता को लोक साहित्य के मौलिक स्वरूप को प्राप्त करने के लिए कई व्यक्तियों, संस्थानों से सम्पर्क करना पड़ता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसे अपना काम करना होता है। ऐसी स्थिति में झुंझलाहट या क्रोध उसके कार्य में बाधा उपस्थित कर सकता है। उसे यथासंभव अनुशासित रहकर मृदु भाषी व्यक्तित्व का परिचय देना ही होता है।
  5. ईमानदारी- संकलन कर्ता को आलस्य या प्रमाद वश स्वयं जानकारी इकड्डी न कर दूसरे पर आधारित रहना घातक होता है। ऐसी स्थिति में उसके अनुसंधान की दिशा और स्तर पर प्रभाव पड़ सकता है। उसे पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ तथ्यों को संकलित और विश्लेषित करना चाहिए।
  6. वस्तु निष्ठता- संकलन कर्ता किसी पूर्वाग्रह से मुक्त होना चाहिए। उसे लोक मानस को समझते हुए उनकी आस्थाओं, विश्वासों और मान्यताओं का सम्मान करना चाहिए और बिना किसी दुराग्रह के उनकी कृतियों को यथा तथ्य स्वीकार कर लेना चाहिए।
  7. निर्भीकता- अनुसंधित्सु को निर्भीक होना चाहिए और किसी भी दुर्गम भौगोलिक अथवा तात्कालिक परिस्थिति में आत्मिक संतुलन का परिचय देना चाहिए।
  8. धैर्यवान एवं भ्रमणशील- अनुसंधित्सुको कई बार ऐसे व्यक्तियों या स्थितियों का सामना करना पड़ता है जो दुराग्रह से ग्रस्त होते हैं। ऐसी स्थिति में उसे धैर्य, विवेक और सहनशीलता का परिचय देना होता है। अन्यथा वह अपने कार्य में सफल नहीं हो पायेगा। उसे अपने अनुसंधान के लिए अनेक स्थलों की खाक छाननी पड़ सकती है। इसलिए उसे भ्रमण प्रिय होना भी जरूरी है।
  9. समयनिष्ठ- अनुसंधान कर्त्ता को समय का पाबंद होना चाहिए। लोक गीत, लोक कथा अथवा लोक गाथा को प्राप्त करने के लिए उन्हें जिस व्यक्ति से मिलना है उसके द्वारा निर्धारित समय पर पहुँचने पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। प्रभावित व्यक्ति उसे पूरी सहायता देने हेतु तत्पर हो सकता है। समयबद्ध होना यदि अनुसंधित्सु के व्यवहार का अंग बन जाये तो वह अपना कार्य निर्धारित समय सीमा पर पूरा कर सकता है।
  10. व्यवहार कुशल- व्यवहार कुशलता अन्यवेषक के लिए अनिवार्य है। विनम्न और वाकपटु व्यक्ति अजनबी स्थान और व्यक्तियों के मध्य भी घुलमिल जाता है और अपने लिए उपादेय सामग्री ले लेता है। उसकी व्यवहार कुशलता ही सामने वाले के मन पर किसी प्रकार की चोट पहुंचाये बिना मन्तव्य को पूरा कर जाती है।
  11. परिश्रमी और संघर्षशील परिश्रमी और संघर्षशील व्यक्ति ही जोखिम उठा सकता है और अध्ययनोपयोगी सामग्री को इकट्ठा कर सकता है। गढ़वाल और कुमाऊँ का अधिकांश भूभाग बीहड़ पहाडियों में है जहाँ आवागमन के साधन तक उपलब्ध नहीं हैं। यहाँ पहुँचना एक टेठी खीर है। केवल संघर्षशील व्यक्ति ही ऐसे स्थानों में जाकर लोक साहित्य की सामग्री उपलब्ध कर सकते हैं।
  12. अध्यवसायी- एक सफल अन्वेषण कर्ता को अध्यवसायी होना चाहिए। यही गुण उसे स्थान विशेष के इतिहास, भूगोल, धर्म, दर्शन, संस्कृति को समझने में सहायक सिद्ध होता है।
  13. आधुनिक तकनीकी का जानकार- आज विज्ञान का युग है। अनेक संचार माध्यमों ने लोक साहित्य की सामग्री सुलभ करने के अनेक साधन उपलब्ध कराये हैं। अनुसंधित्सु को फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी, टंकण और इंटरनेट की जानकारी आवश्यक है। ध्वनियों को यथावत् संरक्षित करने के लिए ऑडियों विजुअल संसाधनों के प्रयोग से बहुत सहायता मिलती है। रिकॉर्ड की गई सामग्री को व्यक्ति बाद में भी बार-बार सुनकर उसे सही-सही लिपिबद्ध कर सकता है।

लोक साहित्य संग्रह की समस्याओं के समाधान

लोक साहित्य संग्रह कर्ता की समस्या के लिए कुछ समाधान निम्नवत् हैं-
  1. क्षेत्र विशेष की परम्पराओं का ज्ञान- इस कार्य को करने वाले के पास लोक क्षेत्र की परम्पराओं का पूर्व ज्ञान आपेक्षित है। यह आवश्यक है कि उसे यहाँ की भाषा पर अच्छा अधिकार हो। उसके अन्दर समाज विशेष से तादात्म्य स्थापित करने की अनूठी क्षमता होनी चाहिए। इसलिए यहाँ की आस्था, विश्वास, खान-पान, रीति-रिवाज का जानना अनुसंधित्सु के लिए अनिवार्य है। यही कारण है कि इस अंचल विशेष का अनिवासी इस कार्य को करने में बेहद कठिनाई महसूस करता है।
  2. क्षेत्रीय भाषा का ज्ञान- अनुसंधित्सु इतिहास, समाज और पूर्व परम्परा का ज्ञान तो होना ही चाहिए, साथ ही साथ उसे बहुभाषाविद् और लोक बोलियों का जानकार भी होना चाहिए।
  3. तादात्म्यीकरण का गुण- अनुसंधित्सु को व्यवहारिक और समाज में घुल-मिल जाने वाला होना चाहिए, क्योंकि इसके अभाव में वह समाज के अलग-अलग वर्गों से लोक गीतों के विविध प्रकार को ग्रहण करने में असमर्थ रहेगा। यह तो सर्वविधित है कि लोक साहित्य सम्बन्धी सामग्री समाज के विभिन्न वर्गों के पास होती है। कुछ गाथाएँ और गीत समाज की अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों के पास हैं तो कुछ घरेलू, अपढ़ महिलाओं के कंठ में सुरक्षित हैं। अनुसंधित्सु के पास वह व्यवहारिक कौशल होना चाहिए ताकि वह इन सभी में असानी से पुल-मिल जाए और लोक साहित्य संग्रह कर सके। डा. कृष्णदेव उपाध्याय के अनुसार "लोक साहित्य के प्रेमी के लिए यह आवश्यक है कि जिस देश या प्रदेश को वह अपने कार्य का क्षेत्र बनाए वहाँ की जनता से निकटतम सम्बन्ध स्थापित करे। अपने का महान् समझना अथवा जिन लोगों के बीच कार्य करना है, उनको सभ्य वा शिक्षित बनाने की भावना घातक सिद्ध होती है। इसलिए यह आवश्यक है कि संग्रही अपने वैभव तथा सुन्दर एवं बहुमूल्य वेश-भूषा का प्रदर्शन उनके सामने न करे। सोफिया बर्न के अनुसार "सुष्ठ तथा सुन्दर व्यवहार, सज्जनतापूर्ण बर्ताव और स्थानीय शिष्टाचार के नियमों का पालन करना अनिवार्य है।'

  •     संग्रहकर्ता को स्थानीय जनता के प्रति सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करना चाहिए। स्थानीय विश्वासों, प्रथाओं तथा अंधपरम्पराओं के लिए सम्मान प्रदर्शित करना भी जरूरी है अन्यथा वे लोग आत्मीयता की भावना नहीं रखेंगे। डा. कृष्ण देव उपाध्याय ने अपना तर्क कुछ इस प्रकार रखा है- "यदि हम उनकी प्रथाओं का आदन न करेंगे तो वे लोग आत्मीयता की भावना नहीं रखेंगे। उदाहरण के लिए देहरादून जिले के जौनसार-भावर क्षेत्र में बहुपति प्रथा आज भी प्रचलित है। यदि किसी कुटुम्ब में पाँच भाई हैं तो उन सब की एक ही पत्नी होगी, जो पाँच को अपना पति समझेगी। शास्त्रों ने बहुपतित्व- प्रथा को गर्हित बतलाया है। यदि संग्रहकर्ता अपने कार्य के उद्देश्य से इस प्रदेश में जाय और वहाँ के लोगों से शास्त्र-विरुद्ध इस प्रथा की निन्दा करे तो उसका मिशन कदापि सफल नहीं हो सकता है। इस बात को गाँठ में बाँध लेना चाहिए कि जंगली तथा असभ्य जातियों के विश्वास और प्रथाएँ हमें कितनी ही अद्भुत तथा निन्दित क्यों न मालूम हो, परंतु स्थानीय निवासियों की दृष्टि में वे तथ्यपूर्ण और तर्कपूर्ण है। अतः आवश्यकता इस बात कि है कि उनके दृष्टिकोण से ही उनकी प्रथाओं को समझने का प्रयास किया जाये।
  • अनुसंधित्सु की दृष्टि निष्पक्ष व वस्तुनिष्ठ होनी चाहिए। कभी-कभी लोक गीतों या लोक कथाओं के अनेक प्रारूप प्राप्त होते हैं। प्राचीन हस्तलिखित पोथियों और ग्रथों में क्षेपक भी होते हैं। इसमें संग्रह कर्ता की वस्तुनिष्ट दृष्टि प्रमाणिकता का अनुमान कर सकती हैं। कहीं-कहीं लोक साहित्य किसी परिवार की अमूल्य धरोहर के रूप में भी संरक्षित हो सकता है। ऐसी स्थिति में अनुसंधित्सु के पास उसकी छायाप्रति प्राप्त करने की सुविधा भी होनी चाहिए।

  • संग्रहकर्ता जिस जगह से सामग्री एकत्र करता है उस क्षेत्र और व्यक्ति विशेष के विषय में भी जानकारी रखना आवश्यक है क्योंकि सामग्री की यथार्थता, भाषिक ज्ञान और ऐतिहासिकता की जाँच-पड़ताल बाद में की जा सकती है।
  • अधिकांश लोक साहित्य मौखिक या श्रुत परम्परा में ही जीवित रहता है। ऐसे लोक साहित्य का लिप्यंकन अत्यंत कठिन कार्य है, क्योंकि जैसे सुनें ठीक वैसा ही लिखे जाने में बेहद कठिनाई है। इसलिए जो उस क्षेत्र की बोली को जानता हो या उस क्षेत्र विशेष की बोली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन करने में समर्थ हो, वही शुद्ध रूप से लिप्यंकन कर सकता है। कभी-कभी व्याकरणिक रूप से शुद्ध करने की प्रवृत्ति उस साहित्य के मूल रूप को भी बाधित करती है। अधिकांशतः क्षेत्रीय बोलियों के शब्द उनका हस्व, दीर्घ और प्लुत उच्चारण विशिष्ट स्थितियों और व्यापारों का बोधक होता है। इसकी जानकारी के अभाव में भी लोक साहित्य का संकलन भ्रामक और त्रुटिपूर्ण हो जाता है। इसलिए यह अवधान योग्य है कि लोक साहित्य को जैसा कहा या जैसा सुना जाता है उसे वैसे ही संकलित करना चाहिए।
  • उच्चारण विशेष के आरोह-अवरोह को टेपरिकॉर्डर की सहायता से यथावत संरक्षित किया जा सकता है तथा हस्तलिखित रूपों को फोटो कॉपी द्वारा संरक्षित किया जा सकता है। संग्रह कर्ता को थोड़ा बहुत फोटोग्राफी का ज्ञान भी होना चाहिए, ताकि वस्तु विशेष को फोटोग्राफी द्वारा समझाया जा सके।
  • लोक गीतों की अपनी विशिष्ट लय और धुन होती है। कोई भी लोक गीत अपने विशिष्ट अवसर पर विशिष्ट धुन और लय के साथ गाया जाता है। इसलिए इनकी स्वर लिपि का निर्माण कर इनके सौदर्य को संरक्षित करना भी लोक साहित्य के संग्रह कर्ता का कर्तव्य बन जाता है।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियाँ पर्दा करती हैं और वे किसी अनजान व्यक्ति के सामने आकर गा नहीं सकतीं या परम्परा से प्राप्त कथाओं को बाँट नहीं पाती। ऐसे गीतों को एकत्रित करना अत्यंत कठिन हो जाता है। साथ ही उत्तराखण्ड में कुछ ऐसे गीत हैं जो विशेष समय में ही गाये जाते हैं इन्हें अतिरिक्त समय में गाना अमंगलकारी माना जाता है। जैसे 'जागर गीत विशेष अवसरों पर ही सुनायी पड़ते हैं। इसीप्रकार मांगल गीत, चौमासे में गाये जाने वाले बाजूबंद विशेष मौको और मौसम में गाये जाते हैं। इन गीतों को संकलन करते समय अनुसंधित्सु को चाहिए की वह प्रत्येक मौसम और अवसर विशेष पर जाकर इनका संग्रह करें।
  • सोफिया बर्न मानती हैं कि लोक साहित्य के लिए विशिष्ट अनुसंधान चार्तुय होना चाहिए। कुछ प्रथाएँ केवल पुरुष पालन करते हैं और कुछ विधि विधान खियों द्वारा सम्पादित होता है। यही नहीं कुछ परम्पराएँ विशिष्ट कुलों की होती हैं। इन्हें उन्हीं से सम्पर्क साथ करके जाना जा सकता है। इस विश्लेषण की क्षमता अनुसंधित्सु में अनिवार्य है। सोफिया का मानना है-"युवती स्त्रियाँ प्रेम-गीत, टोटका, शकुन शास्त्र तथा भूत-दूत के विषय में प्रमाणभूत है। बूढ़ी खियाँ शिशु-गीत, लोक-कथा तथा जन्म, मृत्यु और बीमारी से सम्बन्धित विधि-विधानों की अधिक जानकारी रखती हैं। संग्रही को पशु पक्षियों के विषय में किसी शिकारी से बातचीत करनी चाहिए, लकड़ीहारे से वृक्षों के विषय में और गृहणी से रसोई बनाने और कपड़ों को साफ करने के सम्बन्ध में पूछ-ताछ करनी चाहिए।"
  • तथ्यों को जाँच परख कर ही स्वीकार करना चाहिए। किसी वस्तु विशेष के अभाव में साक्षीभूत प्रमाणों को लिपिबद्ध कर लेना चाहिए। किसी तथ्य को केवल जानकारी के अभाव में अस्वीकृति नहीं देनी चाहिए।
  • भारत के कई प्रदेश बीहड़, दुर्गम स्थानों पर हैं अतः अनुसंधित्सु को पर्याप्त साहस, धैर्य और जीवट का परिचय देना होगा क्योंकि अधिकांश प्रदेशो में यातायात की सुविधा भी नहीं है।
  • यह अत्यंत आवश्यक है कि संग्रह कर्ता को स्थानीय भाषा के शब्दों में ही लोक साहित्य का संग्रह करना चाहिए। लोक गीत और लोक कथाओं के संग्रह में यह अत्यंत वांछनीय है। यही नहीं स्थल विशेष की प्रथाओं और रीति-रिवाजों को लिपिबद्ध करते समय स्थानीय परिभाषिक शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। यह भी संभव है कि उनके पर्यायवाची या समानार्थी शब्द हिन्दी में उपलब्ध ही न हो।
  • यह भी संभव है कि एक ही लोक गीत या लोक गाथा के विभिन्न पाठउपलब्ध हो। संग्रह कर्ता को उनके अलग - अलग रूपों का संग्रह करना वांछनीय है। कोई भी लोक गाथा या गीत राज्यों या प्रातों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ उपलब्ध हो सकती है। उदाहरण के लिए राजूला मालूशाही के कुमाऊँ और गढ़वाल प्रांत में अनेक पाठ उपलब्ध हैं। इसी प्रकार अनेक लोक गाथाएँ कुमाऊँ और गढ़वाल में स्थानीय पुट लेकर थोड़ी बहुत परिवर्तित हुई हैं। इसीप्रकार डा. कृष्ण देव उपाध्याय ने 'आल्हा' की बुन्देलखंडी, कन्नौजी और भोजपुरी अनेक पाठों का उल्लेख किया है। राजा गोपी चंद और भरथरी की लोक गाथा भी समस्त उत्तरी भारत में अनेक पाठों में उपलब्ध है। ढोला मारू की प्रेम कथा भी राजस्थान से लेकर भोजपुरी तक विभिन्न गायकों द्वारा स्थानीय परिवर्तन के साथ गायी जाती है। डा. चाइल्ड ने भी स्कॉटिश लोक गीतों को अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ इंग्लिश एण्ड स्कॉटिश पोपुलर बैलेड्स' में विभिन्न पाठों के साथ उपलब्ध कराया है। पं. रामनरेश त्रिपाठी ने भी अपनी पुस्तक 'ग्राम गीत' में 'भगवती देवी' शीर्षक गीत को तीन चार पाठों में उपलब्ध कराया है।
  • आज आधुनिक पीढ़ी अपनी लोक परम्पराओं, लोक संस्कृति और साहित्य के प्रति उदासीन होती जा रही है। वे लोग इसे पिछड़ेपन का चिन्ह मानने लगे हैं इसलिए इनके प्रति अभिरूचि जगाना और विलुप्त होते लोक साहित्य को बचाना हमारा पहला कर्तव्य बन जाता है।

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