कुमाउनी लोक साहित्य का इतिहास
प्रस्तावना
उद्देश्य
कुमाउनी लोकसाहित्यः तात्पर्य एवं परिभाषा
लोक साहित्य से तात्पर्य
लोकसाहित्य एवं लोकवार्ता
लोकसाहित्य एवं परिनिष्ठित साहित्य
कुमाउनी लोकसाहित्य का इतिहास
कुमाउनी लोकसाहित्य तथा कुमाउनी साहित्य
कुमाउनी लोकसाहित्य का वर्गीकरण
प्रस्तावना
कुमाउनी लोकसाहित्य को समझने के लिए यह जरूरी है कि कुमाऊँ में प्रचलित मौखिक परंपरा किस प्रकार परिनिष्ठित साहित्य में परिवर्तित हुई। कुमाऊँ क्षेत्र में आरंभ से चली आ रही मैखिक परंपरा को जानने समझने के लिए कुमाउनी भाषा का ज्ञान जरूरी है। कुमाऊ में आरंभिक काल से चली आ रही मौखिक परंपरा ने ही कुमाउनी लिखित साहित्य को जन्म दिया है। इकाई के पूर्वार्द्ध में आप कुमाउनी लोकसाहित्य और परिनिष्ठित साहित्य को जान सकेगे। इकाई के उत्तरार्द्ध में कुमाउनी लोकसाहित्य के इतिहास पर दृष्टि डाली गई है, साथ ही कुमाउनी लोकसाहित्य के वर्गीकरण को भी आप इस इकाई के अन्तर्गत आसानी से समझ सकेंगे।
उद्देश्य
प्रस्तुत इकाई के अध्ययन के उपरांत आप कुमाउनी लोकसाहित्य के महत्त्व को बता सकेंगे।
यह समझा सकेंगे कि कुमाउनी लोकसाहित्य तथा कुमाउनी साहित्य में क्या अन्तर है?
कुमाउनी लोकसाहित्य की विविध विधाओं का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।
मौखिक परंपरा की मौलिकता को बता सकेंगे।
यह बता सकेंगे कि कुमाउनी साहित्य को आगे बढ़ाने में लोकसाहित्य ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
कुमाउनी लोकसाहित्यः तात्पर्य एवं परिभाषा
लोकजीवन की विविध क्रियाएं व अनुभूति जब अभिव्यक्ति के धरातल पर आती है तब चहलोकसाहित्य कहलाता है। 'लोक' की अनुभूति की अभिव्यक्ति का दूसरा नाम है लोकसाहित्य। कुमाऊं क्षेत्र भौगोलिक रूप से पर्वतीय क्षेत्र कहलाता है। यहाँ की प्राचीन परंपराएँ, गीत, संगीतऔर संस्कृति के मिश्रण से यहाँ के लोकसाहित्य का निर्माण हुआ है। लोकजीवन की भावभूमिपर उगे हुए साहित्य को लोकसाहित्य की संज्ञा दी जाती हैं। आज लोकसाहित्य के प्रति सहदय पाठकों एवं विद्वानों का रुझानअधिक दिखाई पड़ता है।इसका मूल कारण यह हैं कि लोकसाहित्य एक विशाल जनसमुदाय का साहित्य है। लोकसाहित्य में परंपरागत लोकजीवन की धारणाओं, विश्वासों तथा मान्यताओं का पुट होता है। कुमाऊँ क्षेत्र की वाचिक अथवा मौखिक परंपरा का एक दीर्घकालीन इतिहास रहा है। परंपरा से चली आ रही मौखिक अभिव्यक्ति को कुमाउनी लोकसाहित्य कहा जाता है।
लोकसाहित्य से तात्पर्य
लोकसाहित्य शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के "लोकू" (दर्शन) से हुई है "लोक" तथा "साहित्य" शब्द मिलकर लोकसाहित्य शब्द का निर्माण करते हैं। अमरकोश में लोकसाहित्य के लोक नामक अग्रशब्द के विभिन्न पर्यायवाची शब्द मिलते हैं यथा - भुवन, जगती, जगत्रलोकसाहित्य पूरे जनसमुदाय की अभिव्यक्ति का दर्पण होता है। लोकसाहित्य इतिहास की दीर्घकालीन परंपराओं को समाविष्ट करता है। लोक में घटित हुई या घटित होने वाली घटनाओं के बारे में संवेदना मूलक धारणा विकसित करता है। लोक साहित्य के ममर्श डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने लोकसाहित्य के संबंध में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है- लोक हमारे जीवन का महासमुद्र है, उसमें भूत भविष्य, वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है। लोक राष्ट्र का अमर स्वरूप है।लोक कृत्स्न ज्ञान और संपूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसान है। अर्वाचीन मानव के लिए लोक सर्वोच्च प्रजापति है। लोक, लोक की धात्री सर्वभूता माता पृथिवी मानव इसी त्रिलोकी में जीवन का कल्याणतम रूप है। "डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार, "यह एक अर्धसरल स्वाभाविक मानव समाज है, जिसकी भावनाओं, विचारों, परंपराओं एवं मान्यताओं में वास्तविक कल्याण के तत्व विद्यमान रहते हैं।"
प्रोफेसर देव सिहं पोखरिया ने लोकसाहित्य के संबंध में अपना अभिमत व्यक्त करते हुए लिखा है, "लोक" मानव समाज की वह सामूहिक इकाई है, जो अपने नैसर्गिक और स्वभाविक रूप में अभिजात्य बंधनों तथा परंपराओं से रहित पांडित्य, चमत्कार तथा शाखीयता से दूर स्वतंत्र एवं पृथक जीवन का प्रचेता है और इसी का साहित्य लोकसाहित्य है।
आंग्ल भाषा में लोक को Folk (फोक) तथा साहित्य को Literature कहा जाता है।लोकसाहित्य पूर्णतः लोकमानसः की उपज है।लोकसाहित्य को लिपिचद्ध अभिव्यक्ति ही नहीं माना जाता, बल्कि यह वास्तविक रूप में वाचिक अथवा भाषागत अभिव्यक्ति के रूप में समाज के बीच आता है। लोकसाहित्य में प्राचीन काल के विविध आख्यान, जीवन दर्शन के तत्व तथा सभ्यता एवं संस्कृति के कई रूप निहित होते है। मानव व्यवहार के कौशल को मौलिकता के साथ लोकसाहित्य ही प्रकट कर सकता है।
डॉ. रघुवंश के शब्दों में "लोक की अभिव्यक्ति को साहित्य कहते के साथ ही यह मान लिया गया है कि लोकगीत तथा गाथाओं आदि लोक काव्य के रूप हैं। साहित्य जीवन का सृजन पुनः जीने की प्रक्रिया है। लोकाभिव्यक्ति के क्षणों में भी समाज के बीच व्यक्ति अपनी सजगता में प्रमुखतः जीवन का अनुभव करता है।"
डॉ. उर्वादत्त उपाध्याय ने लोकसाहित्य के सांस्कृतिक महत्त्व को प्रकट करते हुए कहा है कि लोक संस्कृति शिष्ट संस्कृति की सहायक होती है। किसी देश के धार्मिक विश्वासों, अनुष्ठानों तथा क्रियाकलापों के पूर्ण परिचय के लिए दोनों संस्कृतियों में परस्पर सहयोग अपेक्षित रहता है।'
डॉ. गणेशदत्त सारस्वत लिखते हैं, 'वाणी के द्वारा प्रकृत रूप में लोकमानस की सरल, निश्छल एवं अकृत्रिम अभिव्यक्ति ही लोकसाहित्य है। इसमें जनजीवन का समग्र उल्लास उच्छवास, हर्ष-विषाद, आशा आकांक्षा, आवेग उद्वेग, सुख दुख तथा हास रुदन का समावेश रहता है।'
इन परिभाषाओं के आलोक में लोकसाहित्य की विशेषताओं को इस प्रकार निर्धारित किया जाता है-
- लोकसाहित्य व्यक्तिगत सत्ता से ऊपर उठकर समष्टिगत सत्ता का प्रतिनिधित्त्व करता है।
- इसमें वाचिक अभिव्यक्ति प्रधान होती है।
- लोकसाहित्य प्रकृतिपरक होता है इसमें लोक जीवन की शीतल छांव महसूस की जा सकती है।
- लोकसाहित्य की कतिपय विधाओं के निर्माता अज्ञात रहते हैं।
- इसमें मौलिकता तथा सजकता होती है।
- यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्वच्छंद रूप से हस्तान्तरित होती रहती है।
- लोक की सत्यानुभूति तथा पैराणिक आख्यान स्पष्ट दिखाई देते हैं।
अतः कहा जा सकता है कि लोकसाहित्य लोक जीवन के विविध पक्षों का उद्घाटन करता है। इसमें अर्थवत्ता के साथ साथ रसज्ञता भी होती है।
लोक साहित्य और लोकवार्ता
लोकवार्ता शब्द अंग्रेजी के फोक (Folk) तथा लोर (Lore) के मेल से बना है। फोकलोर शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम इंग्लैण्ड के पुरातत्त्व विज्ञानी विलयम जॉन टामस ने लोकसाहित्य एवं लोकसंस्कृति के लिए किया। बाद में डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसे हिन्दी में 'लोकवार्ता' नाम से पारिभाषित किया। उन्ही के शब्दों में 'लोकवार्ता एक जीवित शाख है। उतना ही लोकवार्ता का विस्तार है, लोक में बसने वाला जन, जन की भूमि और मौलिक जीवन तथा तीसरे स्थान में उस जन की संस्कृति, इन तीनों क्षेत्रों में लोक के पूरे ज्ञान का अन्तर्भाव होता है और लोकवार्ता का सम्बन्ध इन्ही के साथ है।दरअसल लोकवार्ता समाज के निम्न वर्गों के वैचारिक क्रिया व्यापारों को पारिभाषित करती है। पश्चिमी देशों में निवास कर रही आदिवासी जन समुदायों के भाषा शास्त्रीय अध्ययन तथा लोक मनोवैज्ञानिक अध्ययन के फलस्वरूप फोकलोर की विधा विकसित हुई।हिन्दी में कई विद्वानों द्वारा लोकवार्ता शब्द का प्रयोग किया गया है। लोकसाहित्य के कुशल अध्येता डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार, 'लोकवार्ता लोकमानस एवं लोकतत्व का गहन, मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन है।' सुनीतिकुमार चटर्जी ने लोकवार्ता को 'लोकयान' माना है। हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे 'लोकसंस्कृति' मानते हैं अन्य विद्वानों ने इसे लोकविज्ञान, लोकप्रतिभा, लोकप्रवाह, लोकज्ञान, लोकशाख तथा लोकसंग्रह आदि के रूप में ग्रहण किया है।
लोक साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान प्रोफेसर डी. एस. पोखरिया ने अपना अभिमत प्रस्तुत करते हुए कहा है. 'लोकसाहित्य लोकवार्ता का एक अंग है, किन्तु अंग होते हुए भी वह एक स्वतंत्र और पृथक विद्या है। लोकवार्ता का क्षेत्र वृहत और व्यापक है। लोकवार्ता में लोक परम्पराओं प्रथाओं और लोकविश्वासों लोकसाहित्यों नृतत्व समाजशास्त्र भाषाशास्त्र इतिहास तथा पुरातत्व आदि सबका अध्ययन समाविष्ट है। यह संपूर्ण लोकसंस्कृति का व्यापक अध्ययन करने बाला गतिशील विज्ञान हैं। यहाँ हमें इस बात को मानना पड़ेगा कि लोक में उत्पन्न हुई विधा लोकविधा तो कही जा सकती हैं। अर्थात उसे लोकसाहित्य तो आसानी से कहा जा सकता हैं, किन्तु जो विधा परिमार्जित होकर मनोविज्ञान की गूढ़ संकल्पनाओं का बोध कराती हुई आदिमजातीय तथ्यों से परिचित कराती है। उसे लोकवार्ता कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। विस्तृत क्षेत्र में आप लोकवातकि प्रभाव को देखेंगे तथा उस वार्ता के जरिए साहित्यसम्मत उद्देश्यों के वैज्ञानिक प्रभावों का ज्ञान भी आसानी से प्राप्त कर सकेंगे।
लोकसाहित्य जहाँ केवल अनुभूति की साहित्यिक विधाओं को प्रकट करता है, वहीं लोकवार्ता समष्टिगत ऐतिहासिक तथ्यों, पुरातात्विक मान्यताओं एंव भाषाशास्त्र के लक्षणों को भी रूपायित करती है। इससे हमें इन दोनों को समझने में आसानी हो जाती है।
लोकसाहित्य और परिनिष्ठत साहित्य
आप साहित्य के विषय में पढ़ते आए हैं। यहाँ हम लोकजीवन के साहित्य के विविध रूपों को समझने का प्रयास करेंगे। परिनिष्ठित साहित्य को लिखित साहित्य भी कहा जाता है। जो साहित्य सुदीर्घ साहित्य परंपरा का निर्वहन करता हुआ लोक की भावभूमि से उठकर मानकों, परिष्कार की सीढ़ियाँ चढ़ने लगता है, उसे हम अभिजात या परिनिष्ठित साहित्य के नाम से जानते हैं। अभिजात साहित्य का प्रदुर्भाव लोक साहित्य से हुआ माना जाता है। उदाहरण के लिए कुमाऊँ क्षेत्र की जागर परंपरा को ही ले लें। जागर एक कुमाउनी लोक नृत्य की गायन शैली मिश्रित विधा है। जागर लगाने का क्रम इतिहास काल में प्रारंभ से माना जाता रहा है। अशिक्षित जागर गायक वर्षों से अपने दन्तवेद से इस विधा को संजोए हुए है। कतिपय स्थितियो में हम पाते हैं कि जागर के कुछ नमूने विचित्र भाषा में लिखे गए प्राचीन भोजपत्रों या अन्य पत्रों में मिलते हैं, किन्तु जागर गाने वाला जगरिया इस लिखित पत्रों को देखे बिना सुन्दर लयात्मक अंदाज में जागर लगाता है। इससे स्पष्ट होता है कि वर्षों से चली आ रही मौखिक परंपरा स्वंय में पुष्ट है। उसमे अभिव्यक्ति की ठोस क्षमता है। किन्तु कालान्तर में विकास के साथ साथ जागर जैसी अन्य कई गायन शैलीपूर्ण विधाएँ टेपरिकार्डर आदि के माध्यम से ध्वन्यालेखित होती गई। उसका अभिजात या लिखित साहित्य में परिवर्तन होता गया।
परिनिष्ठत साहित्य के विषय में देव सिहं पोखरिया लिखते हैं, 'लोकसाहित्य परंपरा मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आई। साहित्य लिखित और परिष्कृत रूप "अभिजात" नाम से अभिहित किया जाता रहा। लोक की यह परंपरा ही विकास और परिवर्द्धन के विविध सोपानों को पार करती हुई लोक कवि के कंठ में पीयूषवर्षी वीणा के समान अमृत वर्षा करती रही। वेदों का "श्रुति" नाम भी इस बात का परिचायक है कि वैदिक परंपरा भी अपने प्रारंभिक रूप में मौखिक रूप में प्रचलित थी। इसलिए वैदिक साहित्य को लोक जीवन की आदि सम्पदा कहा जाता सकता है। बाद में लक्षणकारों द्वारा लैकिक साहित्य को शाखीय रूप प्रदान किया गया। निरंतर प्रगतिशील परिवर्तन शील सभ्यता और संस्कृति लोकमानस के परिवर्तन की स्थितियों के साथ ही साहित्य के स्वरूप को भी परिवर्तित करती रही। समय के साथ ही उसमें गति, युगबोध और मूल्यों की नवीनता ने प्रकृष्ट रूप से स्थान प्राप्त किया। इसी कारण लोककवि वैदिक परंपरा से भी आगे बढ़ आया और लोक जीवन के साथ ही उसके अनुभूति और अभिव्यक्ति पक्ष भी परिवर्तित होकर नए आयामों का रेखांकन करने लगे।"
उपर्युक्त अभिमतों तथा परिभाषाओं के आलोक में आप लोकसाहित्य को मौलिक सहज तथा परंपरा से चली आ रही लोक सम्मत विधा मानेंगे तथा लोकसाहित्य का सुव्यवस्थित, अभिजात तथा लिखित स्वरूप को परिनिष्ठित साहित्य के रूप में समझ सकेंगे।
कुमाउनी लोकसाहित्य का इतिहास
कुमाऊँ में आरंभिक काल से प्रचलित मौखिक साहित्य को लोकसाहित्य कहा जाता है। यद्यपि कुमाउनी में हमें दो प्रकार का साहित्य मिलता है, किन्तु मौखिक परंपरित साहित्य के निर्माता रचयिता अज्ञात होने के कारण लोगों के दन्तवेद या टेपरिकार्डर आदि के माध्यम से लोकसाहित्य यत्र तत्र किसी रूप में उपलब्ध हो जाता है। कुमाउनी लोकसाहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालने से हमें पता चलेगा कि जिन रचनाकारों के कालक्रम का हमें पता है या जिनके द्वारा लिखा गया साहित्य हमें उपलब्ध है, हम उसे इतिहास में जोड़ते हुए लिखित या मौखिक का भेद किए बिना अध्ययन की समग्र सामग्री के रूप में स्वीकार करेंगे।
कुमाउनी भाषा में कविता, कहानी, निबंध तथा नाटक तथा अन्य विधाओं की रचनाओं का उल्लेख हुआ है। इतिहास काल में समय समय पर विभिन्न शासनों का प्रभाव यहाँ के साहित्य पर भी पड़ा। इसीलिए संस्कृत, बगंला, उर्दू आदि भाषाओं का प्रभाव भी कुमाउनी लोकसाहित्य में देखा जा सकता है।
प्रो. शेर सिंहबिष्ट के अनुसार, कुमाउनी में लिखित शिष्ट साहित्य की परंपरा अधिक प्राचीन नहीं है। यद्यपि लिखित रूप में कुमाउनी भाषा का प्रयोग ग्यारहवी सदी से उपलब्ध ताम्रपत्रों, सनदों एवं सरकारी अभिलेखों में देखने को मिलता है, परन्तु साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में उसका लिखित रूप गुमानी (1790-1846 ई.) से प्रारंभ होता है। गुमानी ने जिस तरह की परिष्कृत कुमाउनी का प्रयोग अपनी कविताओं में किया है, उससे लगता है कि उससे पूर्व भी कुमाउनी में साहित्य लिखा जाता रहा होगा। लेकिन उसकी कोई प्रामाणिक जानकारी अभी तक सामने नहीं आ पाई है।
कुमाउनी के लिखित साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रेय तत्कालीन स्थानीय अखबारों को जाता है जिसमें 'अल्मोड़ा अखबार', 'कुमाऊँ कुमुद', 'शक्ति', 'अचल' आदि प्रमुख हैं। डॉ. विष्ट ने कुमाउनी के लिखित साहित्य को कालक्रमानुसार तीन चरणों में बाटा है-
- प्रारंभिक काल (1800 ई. से 1900 ई.)
- मध्य काल (1900 ई. से 1950 ई.)
- आधुनिक काल (1950ई. से अब तक)
कुमाउनी साहित्य का प्रारंभिक दौर काफी उतार चढ़ावों से भरा था। सन् 1790ई. में चन्द शासक के पतन के फलस्वरूप कुमाऊँ क्षेत्र गोरखा शासन के अधीन हो गया था। इसके उपरांत सन् 1815 में कुमाऊँ अंग्रेजी शासक के कब्जे में आ गया। प्रत्येक शासन काल में तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक परिदृश्य का असर उस समय की रचनाओं पर पड़ा। गुमानी पन्त ने अंग्रेजी शासन के विरूद्ध कविताओं के माध्यम से आवाज उठाई। गुमानी पतं को लिखित कुमाउनी साहित्य का प्रथम कवि माना जाता है। इनका जन्म सन् 1790 में काशीपुर में हुआ। इन्होंने रामनाम, पंचपंचाशिका, राममहिमा वर्णन, गंगाशतक, रामाष्टक जैसी महान कृतियों की रचना की। इनका अवसान सन् 1848 ई. को हुआ। गुमानी के समकालीन कवि कृष्णापाण्डे (सन् 1800-1850 ई.) का जन्म अल्मोड़ा के पाटिया नामक ग्राम में हुआ था। इनकी रचनाओं में भी सामाजिक यथार्थ का चित्रण मिलता है। इनकी फुटकर रचनाओं में 'मुलुक कुमाऊँ' तथा 'कलयुग वर्णन' प्रमुख हैं। सन् 1848 ई. में फल्दाकोट में जन्मे शिवदत्त सती मध्यकालीन कुमाउनी कवि हैं। ये वैद्यक थे। इन्होंने घस्यारी नाटक मित्र विनोद नामक पुस्तकें लिखी।
गौरीदत्त पाण्डे 'गौर्दा' भी मध्यकालीन कुमाउनी कवियों में अपना अलग स्थान रखते हैं। इनका जन्म 1872 ई. को देहरादून में हुआ तथा मृत्यु 1939 ई. को हुई। इनकी रचनाओं की प्रासंगिता के कारण हम इन्हें वर्तमान पाठ्यक्रम में भी पढ़ते है। इनकी कविताओं का संकलन 'गौरी गुटका' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अलावा इनकी अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्रथम वाटिका तथा छोडों गुलामी खिताब है। अंग्रेजी शासक के अत्याचारों के विरूद्ध इन्होने बड़ा काव्यांदोलन किया था। आधुनिक युग के छायावादी काव्य के आधार स्तंभ सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा जनपद के कौसानी नामक ग्राम में हुआ था। इनकी कुमाउनी में 'बुरुश'नामक कविता प्रकृति का साक्षात निरूपण करती है। पंत जी का हिन्दी साहित्य जगत में भी बहुत बड़ा नाम है।श्यामाचरण पंत (1901 ई. से 1967) का जन्म रानीखेत में हुआ। इनके द्वारा कई फुटकर रचनाएँ लिखी गई। कुमाऊँ के जोड़ एवं भगनौल विधा के ये एक अच्छे ज्ञाता थे। 'दातुलै धार' इनकी विख्यात प्रकाशित पुस्तक है।
अल्मोड़ा में सन् 1910 को जन्में चन्द्रलाल चौधरी ने कुमाऊँकी प्रसिद्ध लोक विधा कहावतों पर आधारित पुस्तक 'प्यास' सन् 1950 में लिखी। इनका निधन वर्ष 1966 में हुआ। इनके अलावा मध्यकालीन कुमाउनी कवियों में जीवनचन्द्र जोशी, तारादत्त पाण्डे, जयन्ती पंत, बचीराम, हीराबल्लभ शर्मा, ताराराम आर्य, कुलानन्दभारतीय तथा पीताम्बर पाण्डे का नाम उल्लेखनीय है।सन् 1950 से लेकर वर्तमान समय तक का रचनाकाल आधुनिक काल कहलाता है। स्वतंत्रता के बाद कुमाउनी रचनाकारों की रचनाओं में आए बदलाव को हम आसानी से देख सकते है। समय के साथ साथ ठेठ कुमाउनी का रूप मानक भाषा की तरफ बढ़ता दिखाई देता है। युगीन प्रभाव के साथ साथ रचनाओं के अर्थग्रहण शैली में परिवर्तन देखा जा सकता है।
आधुनिक युग के कवियों में सर्वप्रथम चारूचंद पाण्डे का नाम उल्लेखनीय है। इनका जन्म सन् 1923 को हुआ। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'अड. वाल' सन् 1986 में प्रकाशित हुआ। इन्होंने पूर्ववर्ती कवि गौर्दा के काव्य दर्शन पर चर्चित पुस्तक लिखी। लोकसाहित्य के मर्मज्ञ ब्रजेन्द्र लाल साह का जन्म 1928 ई. को अल्मोड़ा में हुआ। रंगमंच से जुड़ाव होने के कारण इनकी रचनाओं को पर्याप्त प्रसिद्धि मिली है। इसी क्रम में नंदकुमार उप्रेती जिनका जन्म सन् 1930 को पिथौरागढ़ में हुआ, अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। इनकी भुलिनिजान आपुण देश', तीन कांड प्रकाशित पुस्तकें हैं। आधुनिक कुमाउनी
के लोकप्रिय कवि शेर सिहं विष्ट 'अनपढ़ सन् 1933 में जन्मे थे। गीत एवं नाटक प्रभाग के एक जाने माने हास्य कलाकार के रूप में भी उनका नाम जन जन की जुबान पर आज भी है।
इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं- 'मेरि लटि पटि', जाँठिक घुडु.र', तथा 'फच्चैक (बालम सिहं जनोटी के साथ बंशीधर पाठक 'जिज्ञासु' का जन्म 1934 ई. को अल्मोड़ा में हुआ।
इनकी सुप्रसिद्ध रचना 'सिसौण' है। हिन्दी साहित्य के जाने माने मूर्धन्य साहित्यकार रमेशचन्द्र साह का जन्म स्थान
अल्मोड़ा है। इन्हें 'पद्म श्री' तथा 'व्यास सम्मान' जैसे महानतम अलंकरणों से विभूषित किया जा चुका है। 'उकाव
हुलार' इनकी कुमाउनी में प्रतिष्ठित पुस्तके है। श्रीमती देवकी महरा का जन्म सन् 1937 ई. को अल्मोड़ा में हुआ। इनकी पुस्तकों में वेदना तथा विरहानुभूति दिखाई देती है। 'प्रेमाजंलि', 'स्वाति', 'नवजागृति' तथा उपन्यास 'सपनों की राधा' इनकी प्रकाशित कृतियाँ है।सन् 1939 को बेरीनाग के गढ़तिर नामक ग्राम में जन्मे बहादुर बोरा 'श्रीबंधु की रचनाएँ विविध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं इनकी रचनाओं में राष्ट्रीयता की झलक मिलती है।
मथुरादत्त मठपाल कुमाउनी के एक लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हैं। इनका जन्म सन् 1941 को भिक्यासैण (अल्मोड़ा) में हुआ। ये 'दुदबोलि' कुमाउनी पत्रिका का संपादन वर्षों से करते आ रहे हैं।
इसके अतिरिक्त कुमाउनी साहित्य में अनेक पुरोधा रचनाकारों के नाम उल्लेखनीय हैं- यथा गोपाल दत्त भट्ट, भवानीदत्त पंत, दीपाधार, हीरा सिहं राणा, गिरीश तिवारी 'गिर्दा', महेन्द्र मटियानी, दुर्गेश पंत, राजेन्द्र बोरा (अब त्रिभुवन गिरी), जुगल किशोर पेटशाली, बालम सिहं जनोटी, दामोदर जोशी 'देवांशु डॉ. शेरसिहं विष्ट, डॉ. देवसिहं पोखरिया, जगदीश जोशी, रतन सिहं किरमोलिया, उदय किरौला, दीपक कार्की, हेमन्त विष्ट, श्याम सिहं कुटौला, डॉ. दिवा भट्ट, मोहम्मद अली अजनबी, रमेश पाण्डे राजन, देवकी नंदन काण्डपाल, महेन्द्र सिहं महरा 'मधु' सहित वर्तमान के अन्य लेखक एवं कवि।
कुमाउनी लोकसाहित्य तथा कुमाउनी साहित्य
युग युगों से लोकमानस की स्वच्छंद स्वतंत्र अभिव्यक्ति को लोकसाहित्य की परिधि में रखा जाता है। यहाँ आप 'जो लिखा ना गया हो किन्तु गाया गया' को लोकसाहित्य समझेंगे, लोक की भावभूमि पर मौलिक और स्वाभाविक रूप से जो कुछ उच्चरित होता रहा या वह लोकरंजक गुणों से परिपूर्ण था, जिसे तत्कालीन व अद्यतन समाज ने ज्यों का त्यों ग्रहण किया, को लोकसाहित्य कहना उचित प्रतीत होता है। हालाँकि कालान्तर में यही वाचिक अभिव्यक्ति परिनिष्ठित या लिखित साहित्य के रूप में सर्व समाज के समक्ष आई, किन्तु अपने उद्भव एवं विकास काल से जो कुछ बुजुर्गों के मुख से गाया गया तथा सुना गया उसे लोक का साहित्य या लोकसाहित्य कहा गया।
उदाहरण के लिए फूलदेई के त्योहार में बच्चें घर घर जाकर फूल चढ़ाते हुए कहते हैं।-
"फूल देई छम्मा देई
दैणी द्वार भर भकार
त्वी देली सो नमस्कार।"
घुघुतिया त्यार (मकर संक्रान्ति) पर्व पर कुमाऊँ में कौवे बुलाने का प्रचलन है-
"काले कव्वा काले
पुपुती मावा खा ले तु ल्हि जा बड़ म्यकै दिजा सुनु घड़ा "
इस प्रकार हम देखते हैं कि उपर्युक्त परंपरा आरंभिक काल से चली आ रही है। इसका प्रदुर्भाव कैसे हुआ ? ये किसने रचा? इस संबंध में कोई सटीक उत्तर प्राप्त नहीं होता। जो पढ़ना लिखना कभी नहीं जानते थे। वे लोग भी इसे आसानी से कह जाते है। लिखित साहित्य के अस्तित्व में आते ही समस्त या कुछ कुछ वाचिक परंपराओं का प्रतिफलन लिखित साहित्य में किया जाने लगा। अतः कहा जा सकता है कि वर्तमान दौर में भी कतिपय लोक सम्मत विधाएँ ऐसी है जिन्हें केवल दन्तवेद के द्वारा ही अनुभूत किया जा सकता है। अनुभूति के धरातल पर उर्वर लोकमानस की उपज ही लोकसाहित्य है।
कुमाउनी साहित्य लोकसाहित्य का ही लिखित एवं परिमार्जित रूप है। मध्यकालीन तथा आधुनिक कालीन
कुमाउनी लोकसाहित्य की परंपरा का विशुद्ध लिखित रूप कुमाउनी साहित्य के नाम से जाना जाता है। कुमाऊँ क्षेत्र की विविध भाषा बोलियों में कुमाउनी लोकसाहित्य तथा लिखित साहित्य उपलब्ध होता है। डी० एस० पोखरिया ने लिखा है, परिनिष्ठत या अभिजात साहित्य को लिखित साहित्य के रूप में कुमाउनी साहित्य के नाम से अभिहित किया जाता है। परिनिष्ठित साहित्य में युगीन परंपराओं को मर्मज्ञ अपने दृष्टिकोण से अभिव्यक्त करता है। इस साहित्य में क्रमिक विकासवादी दृष्टिकोण से रचनाकार ठेठ भाषा का परिमार्जन कर विषयवस्तु को ग्राहय बनाता है। कुमाउनी लोकसाहित्य के ध्वन्यालेखन तथा मुद्रण आदि से कुमाउनी साहित्य का अस्तित्व बहुत विकसित हुआ है। कुमाउनी साहित्य के परिनिष्ठित स्वरूप पर शोधकार्य करने वाले अनुसंधाताओं को विषयवस्तु को समझने में आसानी हो जाती है। कुमाउनी लिखित साहित्य के द्वारा नवीन भावबोधों एवं कलापक्ष पर आसानी से विवेचना की जा सकती है। कुमाउनी साहित्य में लोकसाहित्य की तरह गेयता को लिखने या अभिव्यक्त करने में कठिनाई जरूर होती है, फिर भी गेय विधाओं को कुमाउनी साहित्य में आसानी से लिखने के लिए हलन्त तथा अन्य स्वर व्यंजनों को यथास्थान अंकित किया जाता है ताकि पाठकवर्ग या विद्यार्थी उसे आसानी से समझ सकें।
कुमाउनी लोकसाहित्य का वर्गीकरण
कुमाउनी लोकसाहित्य को विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने ढंग से बगीकृत किया है। प्रो. पोखरिया के अनुसार, 'परिनिष्ठित या अभिजात साहित्य की भाँति देखने व सुनने की योग्यता के आधार पर कुमाउनी लोकसाहित्य के भी दो भेद किये जा सकते हैं-
(1) श्रव्य और
(2) दृश्य।
कुमाउनी लोकसाहित्य की कई विधाओं में श्रव्य और दृष्य के गुण एक साथ पाए जाते हैं कुमाउनी के झोड़ा, चाँचरी, छपेली आदि गीत रूप श्रव्य भी हैं और दृश्य भी। 'लोक जीवन की अभिव्यक्ति को प्रायः गेय शैली में देखा सुना जा सकता है।
लयात्मक आधार पर कुमाउनी लोकसाहित्य को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है',
(1) पद्य
(2) गद्य तथा
(3) चम्पू (गद्य पद्यात्मक विधा) पद्य के अन्तर्गत विविध, लोकगीत, गद्य के
अन्तर्गत लोककथा, मुहावरे, कहावतें तथा मंत्र साहित्य तथा चम्पू के अन्तर्गत गद्य, पद्य मिश्रित लोकगाथाएँ आती हैं। प्रो. पोखरिया ने कुमाउनी लोकसाहित्य का वर्गीकरण अधोलिखित बिन्दुओं के आधार पर किया है-
(1) लोकगीत
(2) लोकगाथा
(3) लोककथा
(4) लोकोक्ति या कहावत
(5) मुहावरे
(6) पहेलियाँ
(7) लोकनाट्य तथा
(8) प्रकीर्ण लोक साहित्या
डॉ. कृष्णानंद जोशी ने बटरोही द्वारा पुस्तक 'कुमाउनी संस्कृति में कुमाऊँ का लोकसाहित्य विषयक वर्गीकरण इस प्रकार किया है-
(1) पद्यात्मक (गेय)
- धार्मिक गीत
- संस्कार गीत
- ऋतु गीत
- कृषि गीत
- उत्सव तथा पर्व संबंधी
- मेलों के गीत
- परिसंवादात्मक गीत
- न्योली तथा जोड़
- बालगीत
(2) गद्य पद्यात्मक (चम्पू काव्य)
(अ) प्रेम प्रद्यान काव्यः मालूसाही
(ब) वीरगाथा काव्यः भड़ौ (सकराम कार्की, अजीत बोरा, रणजीत बोरा, सालदेव, जगदेव पंवार आदि)
(स) लोक काव्य- रमोला
(द) ऐतिहासिक गाथाएँ
(3) गद्य
(अ) लोक कथाएँ
(ब) लोकोक्तियाँ
(4) पहेलिया
(स) पहेलियाँ
(द) लोक प्रचलित जादू टोना
इस प्रकार हम देखते हैं कि यहाँ लोकसाहित्य के ज्ञाताओं ने कुमाउनी लोकसाहित्य को लगभग एक समान रूप से वर्गीकृत किया है। आप दोनों वर्गीकरणों की तुलना से पाएँगे कि मुख्य रूप से गद्य पद्य तथा चम्पू काव्य वर्गीकरण का मुख्य आधार हैं। इस के बाद उप शीर्षकों में गेयता के आधार पर वर्गीकरण किया गया है। गद्य पद्य तथा चम्पू काव्य के अन्तर्गत उपबिन्दुओं को समझते हुए हम कुमाउनी लोकसाहित्य का विशद वर्गीकरण कर सकेंगे
बोध प्रश्न
(1) कुमाउनी लोकसाहित्य के वर्गीकरण को संक्षेप में समझाइए
(2) आधुनिक काल के चार कुमाउनी रचनाकारों के नाम तथा उनकी रचनाओं के नाम लिखिए
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