कुमाउनी लोकगाथाएँ इतिहास स्वरूप एवं साहित्य(Kumaoni Folklore, History, Forms and Literature)

 कुमाउनी लोकगाथाएँ इतिहास स्वरूप एवं साहित्य

कुमाऊँनी संस्कृति की झलकः लोकगीत(Glimpses of Kumaoni Culture: Folklore )

कुमाउनी भाषा साहित्य (Kumaoni Language Literature)

कुमाउनी साहित्य में वर्णित समाज (Society described in Kumaoni literature)

कुमाउनी क्षेत्र की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ (Dialects and dialects of Kumaoni region)

कुमाउनी लोकगाथाएँ इतिहास स्वरूप एवं साहित्य(Kumaoni Folklore, History, Forms and Literature)

कुमाउनी साहित्य की भाषिक सम्पदाएँ(Linguistic Wealth of Kumaoni Literature)

कुमाउनी लोक साहित्य का इतिहास(History of Kumaoni Folk Literature )

लिखित साहित्य में वर्णित समाज (Society described in written literature)

लोक साहित्य के संरक्षण की समस्या एवं समाधान (Problem and solution of conservation of folk literature)

कुमाऊँनी का लिखित पद्य साहित्य(Written Verse Literature of Kumaoni )

कुमाउनी लोकसाहित्यः अन्य(Kumaoni Folklore: Others )


प्रस्तावना
उद्देश्य
कुमाउनी लोकगाथाओं का इतिहास एवं स्वरूप
कुमाउनी लोकगाथाएँ : अर्थ एवं स्वरूप
कुमाउनी लोकगाथाएँ ऐतिहासिक स्वरूप 
कुमाउनी लोकगाथाओं की विशेषताएँ
कुमाउनी लोकगाथाओं का भावपक्षीय वैशिष्ट्य
कुमाउनी लोकगाथाओं में प्रकृति चित्रण
कुमाउनी लोकगाथाओं में निहित स्थानीय तत्व
कुमाउनी लोकगाथाओं का वर्गीकरण

प्रस्तावना

किसी भी राष्ट्र की अपनी लोकसंस्कृतिक पहचान होती है। ये पहचान उस राष्ट्र के लोकजीवन में जीवंत लोकसाहित्य के विविध पहलुओं द्वारा चरितार्थ होती है। आप देखेंगे कि सभ्यता और संस्कृति के आधारभूत तथ्य ही एक गौरवशाली अतीत से लोगों को परिचित कराते हैं। कुमाउनी लोकगाथाएँ भी यहाँ के ऐतिहासिक स्वर्णिम अतीत का परिचय प्राप्त कराती हैं।
     आदिकाल से प्रचलित लोककथात्मक आख्यानों की गवेषणा लोकगाथाओं के रूप में हमारे समक्ष आती हैं। इस इकाई के प्रारंभ में कुमाउनी लोकगाथाओं का अर्थ प्रस्तुत करते हुए उसके इतिहास एवं स्वरूप पर चर्चा की जाएगी। कुमाउनी लोकगाथाओं की विशेषताओं का अध्ययन प्रस्तुत करते हुए उनके भावपक्षीय पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। स्थानीय तत्व तथा प्रकृति चित्रण से लोकगाथाएँ कितनी प्रभावशाली सिद्ध हुई हैं। इस पर भी व्यापक दृष्टि डाली गई है। इकाई के उत्तरार्द्ध में कुमाउनी लोकगाथाओं का वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है।
    लोकगाथाओं में निहित सांस्कृतिक तत्वों के समाजबद्ध अध्ययन के फलस्वरूप प्रस्तुत इकाई उपादेय समझी जा सकती है।

उद्देश्य

इस इकाई को पढ़ने के पश्चात् आप -
कुमाउनी लोकगाथाओं के इतिहास एवं स्वरूप को जान सकेंगे।
कुमाउनी लोकगाथाओं में निहित तत्कालीन पात्रों के चरित्रों की प्रासंगिकता को समझ सकेंगे।
लोकगाथाओं के विविध रूपों को वर्गीकरण के आधार पर समझ जाएंगे।
लोकगाथाओं की विशेषता के द्वारा कुमाउनी लोक मानस के अनुभूति पक्ष को जान पाएंगे।
यह निर्धारित कर सकेंगे कि लोकसाहित्य के विकास में कुमाउनी लोकगाथाएं किस प्रकार सहायक सिद्ध हो सकती है?

कुमाउनी लोकगाथाओं का इतिहास एवं स्वरूप

    लोकगाथा प्राचीन आख्यानमूलक गेय रचना है। प्रारंभ से लोकपरंपरा के रूप में प्रचलित लोकगाथाओं के रचयिता सर्वथा अज्ञात हैं। जिस प्रकार वाचिक परंपरा से लोकसाहित्य की कहावतें आदि विधाएँ समृद्ध हुई हैं, ठीक उसी प्रकार लोकगाथाओं में भी प्राचीन काल की घटनाक्रम तथा चरित्रों का सतत उल्लेख होता रहा है। इतिहास काल से प्रचलित इन गाथाओं को किसने रचा? कैसे रचा? इस संबंध में सटीक कुछ नहीं कहा जा सकता। इतना जरूर है कि ये प्राचीन गाथाएं या तो महाभारत रामायण कालीन परिदृश्य को प्रकट करती है, या फिर तत्कालीन परिस्थितियों में लोगों द्वारा दिन रात के अथक चिंतन द्वारा अपनी मनोभावना को प्रकट करने वाली वृत्ति के रूप में परिलक्षित होती हैं।
    प्रो. डी.एस. पोखरिया ने लोकगाथाओं के संबंध में कहा है- लोक की भाषा अथवा बोली में पारंपरिक स्थानीय अथवा पुरा आख्यानमूलक गेय अभिव्यक्ति लोकगाथा है। इन गेय कथा प्रबंधों के लिए अंग्रेजी के फोक एपिक या बैलेड शब्द के पर्याय के रूप में हिन्दी में लोकगाथा शब्द का प्रयोग होता है। लोकगाथा का रचनाकार अज्ञात होता है। इसमें प्रामाणिक मूलपाठ की कमी होती है। संगीत और नृत्य का समावेश होता है। स्थानीयता की सुवास होती है। अलंकृत शैली का अभाव होता है। कथानक बड़ा होता है टेक पदों की आवृत्ति की बहुलता होती है। रचनाकार के व्यक्तित्व तथा उपदेशात्मकता का अभाव होता है। यह मौखिक रूप में कंठानुकंठ परंपरित होती है।
    चूंकि यहां हम देखते है कि लोकगाथाओं के रचनाकार अज्ञात हैं अतः इतिहास काल क्रम को तय करना असंभव सा प्रतीत होता है। इतना अवश्य पाया जा सकता है कि इन लोकगाथाओं में निहित पौराणिक आख्यान अपने अपने समय का उल्लेख करते हैं। कुमाउनी में पौराणिक धार्मिक, वीरतापूर्ण, प्रेम परक तथा ऐतिहासिक लोकगाथाओं की प्रचलित अवस्था के अनुसार ही हम उनके स्वरूप इतिहास का मोटा अनुमान लगा पाते हैं।
    कुमाउनी लोकगाथाओं में "मालूसाई, आहूँ, रितुरैण, ठुलखेत, घणेली, भड़ा" आदि गाथाओं के समान कई गाथाएं प्रचलित हैं। हुड़कीबौल में भी लोकगाथा का गायन किया जाता है। संदर्भ कथा को आत्मसात करने वाली विधा के रूप में लोकगाथाएं एक अप्रतिम गेय आख्यान हैं, जो प्रारंभ से लेकर वर्तमान काल तक समाज को एक सरस भाव से आप्लावित करती रही है। कहीं-कहीं मालूसाही जैसी लोकगाथा प्रेमपरक मर्मभेदी कथा प्रसंग को प्रकट करती हैं, तो कहीं 'जागर' जैसी गाथा सैकड़ों छोटी-छोटी कथात्मक आख्यानों को गायन नृत्य द्वारा अभिव्यक्त करती है।

कुमाउनी लोकगाथाएँ : अर्थ एवं स्वरूप

    कुमाउनी लोकगाथाओं को समझने से पूर्व गाथा शब्द का अर्थ जानना आवश्यक है। कुमाऊं की लोकगाथाओं पर शोधकार्य कर चुके डा. उर्वादत्त उपाध्याय का कहना है'गाथा बड़ा ही प्राचीन शब्द है। ब्राह्मण ग्रंथों में गाथा शब्द का प्रयोग आख्यानों के लिए हुआ है। गाथा को प्राचीन प्राकृत आदि जन भाषाओं में 'गाथा' कहा गया है। जन साहित्य तथा प्राकृत भाषाओं में गाथा विधा इतनी प्रिय हुई है कि प्राचीन, पालि, मागधी तथा जैन प्राकृत भाषाओं में गाथा साहित्य अपनी समृद्धि के साथ विकसित हुआ।'
          डॉ कृष्णदेव उपाध्याय ने हिन्दी साहित्य का बृहत इतिहास (ना.प्र.स.) 16वां भाग की प्रस्तावना में लोकगाथा को पारिभाषित करते हुए लिखा है- 'लोकगाथा वह प्रबंधात्मक गीत है, जिसमें गेयता के साथ ही कथानक की प्रधानता हो।' प्रो. कीट्रीज ने गाथा के संबंध में कहा है कि बैलेड वह गीत है, जो कोई कथा कहता हो।
    न्यू इंगलिश डिक्शनरी के प्रधान संपादक का अभिमत है- 'बैलेड वह स्फूर्तिदायक या उत्तेजनापूर्ण कविता है, जिसमें कोई लोकप्रिय आख्यान सजीव रीति से वर्णित हो।'
    डॉ उर्वादत्त उपाध्याय ने उक्त परिभाषाओं के आलोक में लिखा है- "गाथा गेय तत्व से युक्त किसी लोकप्रिय आख्यान पर आधारित वह लोकप्रबंध काव्य है, जिसमें लोकजीवन की अनुभूतियां और अभिव्यक्तियों का सहज प्रयोग किया जाता है। यहां आप देखेंगे कि कुमाउनी लोकगाथाओं में कुमाऊँ की विषम भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप लोकमानस की अभिव्यक्ति जन-जन के जीवन को रससिक्त करती आई है। लोकगाथा अभिजात साहित्य की धरोहर नहीं है। पहाड़ के जनजीवन में स्वतः प्रस्फुटित आख्यान जब संस्कृति का अभिन्न अंग बनते गए, तब इन गाथाओं को जनजीवन ने उसी मौलिक रूप में अपनाया। इनकी मौखिक परंपरा लोकमानस का कुशल मनोरंजन एवं ज्ञान का प्रतिपादन करती आई है। लोकसाहित्य की समग्र विधाओं के अनुरूप लोकगाथाओं में चिरंतन सत्ता के प्रति एक रहस्य साधना का भाव भी दृष्टिगोचर होता है। समूचे कुमाऊँ प्रदेश में अलग-अलग भाषा बोलियों के क्षेत्र में गाथाएं गाई जाती है, किन्तु भाव प्रायः सब जगह एक सा रहता है।
    डा. कृष्णानंद जोशी ने लोकगाथा को गद्य पद्यात्मक काव्य की कोटि में रखते हुए लिखा है 'कुछ विद्वानों ने इस वर्ग को लोकगाथाएं नाम भी दिया है। इस वर्ग के सभी गीतों में अनेक स्थलों पर गद्य का भी प्रयोग किया गया है। गायक द्वारा यह गद्य स्थल भी विशेष लय से कहे जाते हैं, सामान्य गद्य की भांति नहीं। इन गाथाओं में मालूसाही 'प्रेम काव्य कहा जाता है। 
        वीरगाथा काव्य में जिन्हें कुमाउनी में भड़ौ (भटो-वीरों की गाथाएं) कहा जाता है। बफौल, सकराम कार्की, कुंजीपाल चंद बिखेपाल, दुलासाही, नागी भागीमल, पंचूद्योराल, भागद्यो आदि की गाथाएं भी इसी वर्ग की हैं। ऐतिहासिक घटनाओं से संबंधित गाथाओं तथा कत्यूरी और चंद राजाओं की गाथाओं- धामयो, समणद्यो तथा कत्यूरी और चंद राजाओं की गाथाओं- धामद्यो, समणद्यो, उदैचन्द, रतनचन्द्र भारतीचंद की ऐतिहासिक गाथाएं कहा जा सकता है। इनमें धार्मिक ऐतिहासिक वीरगाथा तथा प्रेमगाथा के तत्वों का समन्वय मिलता है। 'रमोला' में जिसे हम कुमाउनी का लोक महाकाव्य कह सकते हैं, इससे स्पष्ट होता है कि गाथाओं की उत्पत्ति के पीछे लोक ऐतिहासिक घटनाक्रम निहित है। इन चरित्रों एवं घटनाओं के संदर्भ गाथाओं की उत्पत्ति के मूल कहे जा सकते हैं।

कुमाउनी लोकगाथाएँ (कुमाउनी लोकगाथाएं) : ऐतिहासिक स्वरूप 

    कुमाउनी लोकगाथाओं को लोक महाकाव्य के नाम से जाना जाता है। इनकी उत्पत्ति एवं प्रादुर्भाव के संबंध में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। इतिहास के दीर्घकालीन प्रवाह में ये प्राच्य आख्यान कुछ काल्पनिक चीजों तथा कुछ सत्य पटनाओं का समन्वित स्वरूप प्रदर्शित करती हैं। इतिहास काल क्रम के आधार पर निश्चित रूप से इन लोकगाथाओं को बांधना कठिन प्रतीत होता हैं किंतु, इतिहास काल की कथाओं के आख्यान इन विभिन्न प्रकार की गाथाओं में देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि हम नंदा देवी की बैसी को देखें तो वैसी अर्थात बाईस दिन के गायन का निरंतर क्रम हमें प्राप्त हो जाएगा।
    लोकगाथाओं में प्रमुख रूप से परंपरागत, पौराणिक धार्मिक तथा वीरतापूर्ण आख्यान मिलते है। परंपरागत रूप से मालूसाही तथा रमौल की गाथा प्रचलित है। जागर नामक गाथा में पौराणिक कथाओं का सार मिलता हैं। कुमाऊं की जागर गाथाओं तथा कृषि संबंधी गाथा हुड़की बौल में यहां के पौराणिक तत्व सम्मिलित हैं।
    इन गाथाओं में महाभारत तथा रामायण कालीन घटनाओं तथा चरित्रों का महिमामंडन गायन शैली द्वारा प्रकट किया जाता है। इनमें महाभारत, कृष्णजन्म, रामजन्म तथा वनगमन शिव शक्ति, चौबीस अवतारों सहित नागवंशीय परंपरा का समुद्घाटन हुआ है।
    जागर में विभिन्न कालों में घटित हुई विशेष घटनाओं का उल्लेख करते हुए उन चरित्रों को आधार बनाया जाता है, जो आज के समय में भी तत्कालीन परिस्थितियों की स्मृति कराकर अवतार में परिणत हो जाते हैं। कुमाऊँ के विभिन्न लोकदेवता इन गाथाओं में समाविष्ट हैं।
    कुमाऊँ के कत्यूरी चंद वंशीय शासकों का उल्लेख भी जागर में हुआ है। धामदेव, बिरमदेव तथा जियाराणी के जागर कत्यूरी राजाओं से संबंध रखते हैं। धामदेव तथा बिरमदेव को क्रूर एवं अत्याचारी शासकों के रूप में दर्शाया गया है। 'हरू की जागर चंद वंश से संबंधित है। इसके अतिरिक्त इतिहास की वीरतापूर्ण गाथाओं, जिन्हे 'भड़ी' कहा जाता है, में वीरोचित चरित्रों तथा उनके पराक्रम तथा रोमांच का प्रतिनिधित्व करती जनमानस को तत्कालीन शौर्यगाथा से परिचित कराती हैं। हुड़की बौल में राजा विरमा की गाथा को गायक बड़े सुरीले दीर्घ स्वर में गाता है। शेष कार्य करने वाली महिलाएँ उस गायन को सस्वर गाती हैं। जाति संबंधी गाधाओं में झकरूवा रौत, अजीत और कला भड़ारी, पचू द्योराल, रतनुवा फड़त्याल, अजुवा बफौल, माधोसिहं, रिखोला के विस्तृत वृतान्त प्राप्त होते हैं। इनमें कुछ ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं तथा शेष को गाथाकारों ने अपने ढंग से स्वयं गढ़ लिया है।
        रोमांचक गाथाओं में प्रेमाख्यान मिलता है। ये गाथाएँ प्रेमपरक हैं। प्राचीन काल में किसी सुदंरी को प्राप्त करने के लिए लोग आपस में युद्ध करते थे। इस युद्ध में विजयी राजा या व्यक्ति उस वस्तु या सुदंरी को पाने का हकदार हो जाता था। इस श्रेणी के चरित्रों में रणुवारौत, सिसाउ लली, आदि कुवाँरि, दिगौली माना, हरूहीत, सुरजू कुवंर और हंस कुवंर की गाथाओं के नाम प्रमुख हैं। इनका गायन वीररसपूर्ण होता है, जो भड़ी में स्पष्ट दिखाई देता है। अतः आप समझ सकते हैं कि प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक विभिन्न प्रकार की लोकगाथाओं में इतिहासकालीन चरित्रों तथा घटनाओं का उल्लेख एक समान रूप से किया गया है। मूलकथा का भाव समूचे कुमाऊँ क्षेत्र में लगभग एक समान दिखाई देता है।

कुमाउनी लोकगाथाओं की विशेषताएँ

        कुमाउनी लोकगाथाएँ यहाँ की पैराणिक संस्कृति की संवाहक रही हैं। इन लोकगाथाओं के निर्माण के पीछे इतिहासपरक घटनाओं की विशेष भूमिका रही है। लोकमानस की भाव भूमि पर प्रचलित इन गाथाओं में आप प्रचीन काल की घटनाओं तथा चरित्रों का उल्लेख पाएँगे। कुमाऊँ क्षेत्र की विशेष पर्वतीय भौगोलिक संरचना, सभ्यता, संस्कृति तथा लोकजीवन की अनुभूति के लयात्मक संस्पर्श को हम इन गाथाओं के माध्यम से आत्मसात करते हैं। भाषा बोली के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में इन गाथाओं की लय विलग हो सकती है, किन्तु भावात्मक सुन्दरता प्रायः एक सी है। कुमाउनी लोकगाथाएँ स्वयं में आख्यान का वैशिष्ट्य प्रकट करती हैं। आप कुमाउनी लोकगाथाओं की विशेषताओं को निम्नलिखित शीर्षकों के द्वारा समझ सकेंगे-
  1. वाचिक परंपरा के मूल स्त्रोतः कुमाउनी लोकगाथाएँ मौखिक परंपरा के आधारभूत स्रोत हैं। इतिहास की दीर्घ कालीन परंपराओं से ये अनुभवजन्य ज्ञान की संचित राशि के रूप में व्याख्यायित होते रहे हैं। आप देख सकते हैं कि कई अनपढ गाथा गायक जो अपना नाम तक लिखना नहीं जानते, गाथाओं के मौखिक गायन में पारंगत होते हैं। ये गांथाकार कई दिन तथा रातों तक निरंतर बिना किसी बाधा के गाथा का वाचन करते हैं। उसे लयबद्ध ढंग से गाते हैं। वाचिक परंपरा में गाथाकारों की अभिव्यक्ति अनूठी होती है। स्वरों के आरोही अवरोही तथा हाव भाव को गाथाकार बड़ी रोचकता के साथ श्रोताओं के समक्ष रखते हैं। इससे प्रतीत होता है कि मौखिक परंपरा में गाथा एक मौलिक अभिव्यक्ति है, जो बिना किसी उद्देश्य तथा तर्क के अनुभूत ज्ञान की रूपरेखा को हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है।
  2. सुदीर्घ कथानक की प्रधानता:- कुमाउनी लोकगाथाओं के कथानक इतने लम्बे होते हैं कि एक गाथा एक पुस्तक के रूप में लिखी जा सकती है। मौखिक परंपरा में प्रचलित इन गाथाओं के मूल पाठ के लिए कोई निश्चित प्रतिबद्धता नहीं है। जीवन जीने की कला के रूप में बुजुर्गों द्वारा लम्बे कथानक बाली गाथाएँ गायी जाती रही है। राजुला मालूसाही की गाथा एक सुदीर्घ कथानक वाली गाथा है।इसमें गद्य भाग को भी गाया जाता है तथा पद्य भाग को भी। इन गाथाओं में संवादमूलकता बनी रहती है। नाटकीय अंदाज में अलग अलग चरित्रों द्वारा उच्चरित संवादों को शामिल करने के कारण इन गाथाओं की अन्तर्वस्तु सुदीर्घ हो गई है। कथानक का बड़ा या छोटा होना गाथाओं के लिए कोई प्रभावकारी नहीं है। सार्थक संवादों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रसंग भी गाथाओं में अकारण जुड़े प्रतीत होते हैं। मूल एवं प्रामाणिक पाठ के अभाव में ही गाथाओं का कथानक विस्तृत बन पड़ा है। आप समझ सकते हैं कि रमौल, मालूसाही तथा जागर आदि सुदीर्घ गाथाओं के गायन में गाधाकार कितना अधिक समय लेते हैं। इनके गायन में लगे समय के सापेक्ष ध्वन्यालेखन में और अधिक समय खर्च होता है।
  3. रचयिता अथवा सूजनकर्ता का अज्ञात होनाः कुमाउनी लोकसाहित्य की वाचिक परंपरा में परंपरित कई विधाओं के रचनाकारों का कुछ पता नहीं है। इन गाथाओं के मूल जन्मदाता कौन थे? किस व्यक्ति ने इन गाथाओं को सर्वप्रथम गाना शुरू किया ? इस संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता। कुमाउनी मुहावरे तथा कहावतों के संबंध में भी यही बात सामने आती है कि इन सूक्तियों एवं कहावतों के निर्माणकर्ता या रचयिता कौन थे? लोकगाथाओं का जनमानस में प्रादुर्भाव किस प्रकार हुआ? इस संबंध में भी ठीक ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। ये लोकगाथाएँ अपनी मौलिकता के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती आई हैं। डॉ. उर्वादत्त उपाध्याय ने हडसन के मत का संदर्भ ग्रहण करते हुए अलंकृत काव्य तथा संवर्धित काव्य के बारे में बताते हुए लिखा है कि लोकगाथा सवर्धित काव्य का रूप है। मूल में जिसका कोई कवि रहा होगा, किन्तु विकास के साथ साथ अनेक लोक कवि एवं गायकों द्वारा उसकी वस्तु में वृद्धि की गई होगी। इसी कारण उसमें परिवर्तन भी स्वाभाविक रूप में आ गया अतः आप समझ पायेंगे कि रचनाकारों के अज्ञात होने के बावजूद इतिहास काल से अद्यतन इन गाथाओं का स्वरूप जीवन्त है।
  4. नैतिक प्रवचनों एवं उपदेशात्मकता का अभावः कुमाउनी लोकगाथाएँ किसी कथाख्यान का आलंबन लेकर सीधे प्रवाहित होती हैं। इनमें नैतिकता तथा जीवन के लिए जाने वाले उपदेशों का नितान्त अभाव है। इससे प्रतीत होता है कि ये गाथाएँ जब निर्मित हुई होंगी, तब के समाज में कोई ऐसी विभीषिका नहीं होगी, जो गाथाओं को प्रभावित कर सके। गाथाएँ अपने कथाभाव को लय के साथ अभिव्यक्त करती हुई आगे बढ़ती हैं। इसमें जीवन जीने के लिए जाने वाले उपदेशों का सर्वधा अभाव है।
  5. संगीत तथा नृत्य का अप्रतिम साहचर्यः कुमाउनी लोकगाथाओं में संगीत और नृत्य का अनूठा साहचर्य है। जागर गाथा को वाद्य यंत्रों के माध्यम से गाया जाता है, घर में लगने वाली जागर में हुड़का तथा कांस्य की थाली को बजाने का विधान है। जबकि मंदिरों या धूनी की जागर बैसी इत्यादि में डोल दमाऊँ बजाकर देवताओं का आह्वान किया जाता है। कुमाऊँ में कृषि कार्यों को द्रुत गति से सम्पन्न कराने के लिए हुड़कीबौल का प्रचलन है। इसमें भी बौल गायक हुड़के की थाप पर किसी प्राचीन गाथा का गायन करता है। इन गाथाओं में छंद की महत्ता उतनी नहीं समझी जाती। छंद विधान की कट्टरता को दरकिनार करते हुए लय और सुरताल पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
  6. अतिमानवीय तथा अतिप्राकृतिक तत्वों से युक्त कथानक रुढ़ियाँ जीवन के यथार्थमय दृष्टिकोण को प्रतिपादित करने के बाद भी इन गाथाओं में अतिमानवीय प्रकृति का समावेश हुआ है। डा. गोविन्द चातक के अनुसार देव गाथाओं में इसका समावेश एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, किंतु अन्य वर्गों की गाथाओं में उसका उपयोग एक बहुत बड़ी सीमा तक हुआ है। इसका कारण समाज में समय-समय पर प्रचलित अंधविश्वासों, अनुष्ठानों, मनःस्थितियों, कथानक रूढ़ियों तथा लोकमानस की चिन्तन विधियों में निहित है। इस प्रकार अतिमानव तत्व उस आदिम सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों की देन है, जिससे लोकमानस प्रीलौजिकल विवेकपूर्ण होता है। वह अपने चिन्तन में कार्य कारण क्रम का तारतम्य अपने ढंग से स्थापित करता है। दूसरे अर्थ में वह अपने नियम को प्रतिपादित करने के लिए अतिमानवीय तथा अतिप्राकृतिक शक्तियों का आश्रय लेता हैं।
  7. स्थानीय तत्वों का समावेशः कुमाउनी लोकगाथाओं में स्थानीय तत्वों का प्रचुरता से समावेश हुआ है। राजुला मालूसाही की गाथा में भोटांतिक जन समुदाय की स्थानीय विशेषता दिखाई देती है। उत्तरार्ध में बैराठ द्वाराहाट, कत्यूर दानपुर, भोटदेश की झांकी दिखाई देती है। मादोसिंह मलेथा की गाथा में गढ़वाल के मलेथा नामक जगह का उल्लेख हुआ है। इनमें स्थान विशेष की परंपरा का बाहुल्य है। लोक जीवन की कला संस्कृति तथा स्थानीय रीतिरिवाजों, रहन- सहन आदि के साहचर्य से गाधाओं का रूप निखरा है। स्थान विशेष के लोगों के द्वारा किए जाने वाले पूजा, धार्मिक अनुष्ठान, रीतियों का वर्णन कई गाथाओं में देखा जा सकता है। स्थानीय देवी देवताओं का वर्णन जागर गाथा में स्पष्ट रूप से हम पा सकते हैं। प्रेम तथा प्रणय की गाथाओं में भी स्थानीय जनता के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रतिफलन इन गाथाओं में हुआ है।
यहां उपर्युक्त विशेषताओं के आलोक में आप कह सकते हैं कि गाथाएं अपनी जमीन से जुड़ी हरेक प्राच्य आख्यान को समाविष्ट करती हैं समाज को दिशा निर्देश देने के पूर्वाग्रह को आप इन गाथाओं में नहीं पा सकेंगे, ये गाथाएं मानव सभ्यता के उस दौर में प्रस्फुटित हुई है जब लोकजीवन में कुछ रचने एवं गढ़ने का एक स्वच्छंद शौक विद्यमान था। इसीलिए कुमाउनी तथा गढ़वाली लोकगाथाओं में सूक्ष्य चिन्तन दृष्टि को छोड़ स्थूल मनोरंजक प्रवृत्ति स्पष्ट झलकती है। स्थानीय प्रकृति तथा वातावरण के अनुभूत स्वर लहरियों को गाथाकारों ने एक विशद् लयात्मक स्वरूप प्रदान किया, तब से ये गाथाएं अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ अभिव्यक्त होती रही हैं।

कुमाउनी लोकगाथाओं का भावपक्षीय वैशिष्ट्य

कुमाउनी लोक परंपरा के द्वारा ही यहां की विविध लोक साहित्यिक विधाओं का जन्म हुआ है। प्रत्येक लोकजीवन की अपनी कुछ अलग भावपक्षीय विशेषताएं होती हैं। इन विशेषताओं का प्रभाव उस काल खंड में रचे गए लोकसाहित्य पर भी पड़ता है। डॉ. उर्वादत्त उपाध्याय ने लोकगाथाओं के भावपक्ष संबंधी विशेषताओं पर लिखा है- 'यद्यपि ये विशेषताएं एकान्तिक रूप से केवल कुमाउनी साहित्य की विशेषताएं ही नहीं की जा सकती हैं। अर्थात यह आवश्यक नहीं है कि ये विशेषताएं केवल कुमाऊँ के गाथा साहित्य के अतिरिक्त विश्व साहित्य में सुलभ ही न हो।' यहां के गाथाओं की विशेषताओं में भावपक्ष की प्रबलता है, जिन्हें अधोलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत समझा जा सकता है-
(1) कुमाउनी गाथाकार कतिपय स्थानों पर भूतकाल की जगह भविष्यत काल का वर्णन करता है-

"तेरी होली राणी
गाउली सौकेली
सुनपति सौका हो लौ
बड़ो अन्नी धन्नी
सुनपति शौका का
सनतान न होती"

अर्थात् तेरी रानी गॉउली सौकेली होगी। सुनपति भोटिया बड़ा अन्नवान तथा धनवान होगा। सुनपति सौक की कोई संतान नहीं है।

(2) तुकबंदी के लिए प्रथम पंक्ति को निरर्थक रूप में जोड़ने का लक्षण प्रस्तुत है-

"भरती भरली
दैण नौर दाधुली
वो नौर धरली
सांटी में को सूलो
झिट घड़ी जागी जावो
ऊंमी पके लूलो (गंगनाथ गाथा)"

अर्थात भरती भरेगी। दाहिने कंधे की दराती बांये पर रखेगी, सांटी में का सूला तनिक प्रतीक्षा करो, मैं ऊंमी पकाकर लाऊंगी।

(3) साहित्य जगत में कवियों द्वारा नायिका के रूप में सौन्दर्य का वर्णन 'दिने दिने सा ववृधे शुक्ल पक्षे यथा शशी' द्वारा किया जाता है। किन्तु राजुला मालूसाही गाथा में राजुला के शैशवकाल से यौवन तक का वर्णन गावाकार ने अपने निजी ज्ञान के आधार पर किया है-

"द्वियै दिन में हो छोरी चार दिन जसी
नावान बखत छोरी, छे महैणा कसी
म्हणन में हई गैछ बरसन कसी
चैत की कैरूवा कसी वणण बगै छ
भदौ की भंगाल कसी बड़ण बैगे छ
पूस की पालड, कसी ओ छोरी रजुली
राजन की मुई जनमी देवातों की वैरी
ओ छोरी रजुली ऐसी जनमी रै छ (मालूसाही द्वितीय श्रुति)"
(दो ही दिन में वह छोकरी चार दिन के समान हो गई है। नामकरण के समय छः मास की हो गई, महीनों में ही वर्षों के समान वृद्धि पा गई, चैत्र मास के कैरूवा के समान बढ़ने लगी हैं भादौ की भंगाल जैसी उगती गई। पूस मास के पालक जैसी हे रजुली, राजाओं को तू मूल नक्षत्रों के समान खटक रही है। इसका सौन्दर्य राजाओं के लिए चुनौती बन गया है। इसका सामना देवतागण स्वर्गवासी होने के कारण नहीं कर सकते।)
आपने पढ़ा कि किस प्रकार भावपक्षीय सुंदरता को गाथाओं में वर्णित किया जा सकता है। जीवन के मूल भाव को नेपथ्य में रखते हुए गाथाएं अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अनुसार चलती हैं।

कुमाउनी लोकगाथाओं में प्रकृति चित्रण

    साहित्य की लगभग भावात्मक विधाओं में प्रकृति के नाना रूपों का चित्रण हुआ है। प्रकृति एक विराट विषय है। मनुष्य की प्रकृति कहने से भी यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि मानव मन की प्रकृति भी वाह्य प्रकृति की एक अनुकृति है। डॉ. उर्वादत्त उपाध्याय लिखते हैं. जहां तक लोकगाथाओं में प्रकृति चित्रण का संबध है। वहां भी प्रकृति के नानारूपात्मक चित्रणों का अभाव नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि ये गाथाएं घटना प्रधान है, तथा वर्णन प्रधान हैं ये खंडकाव्य, इनकी रचना प्रकृति चित्रण के लक्ष्य से नहीं हुई है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि इन गाथाओं में प्रकृति चित्रण का सर्वथा अभाव है। वायु में मिश्रित सुरभि को सूंघने तथा आंखों के आगे कुसुमित प्राकृतिक सुषमा से कौन मुख मोड़ सकता है कुमाऊँ का प्रदेश तो नियति नटी के विभिन्न वेशभूषाओं तथा अलंकरणों से सुसज्जित है तथा उसके नाना प्रकार के व्यापारों से मुखरित है।'

वैदिक कालीन अभिव्यक्ति से लेकर आज तक जितने भी लोक सम्मत विधाओं का निर्माण हुआ है। उनमें प्रकृति एक सार्थक आलंबन के रूप में वर्णित रही है। यहां हम कुछ लोकगाथाओं के अंशों में प्रकृति चित्रण का अध्ययन करेंगे।

मौलिक आलंबन के रूप में प्रकृति चित्रणः राजुला मालूसाही गाथा में जब गंगा के गर्भ से राजुला का प्रादुर्भाव हुआ, तब तत्कालीन हिमालयी पर्वत प्रदेश की छटा निखर उठी। आप उस छटा की मनोरम झांकी प्रस्तुत अंश में देख सकते है

"हिमाल बादो फाटो री री री. पंचाचूली चांदी जस चमकी रौ
नन्दा देवी की पुडि.टी री री री और तली खिसकण लागी रै
गोरिगंगा पाणी बड़ी री री री उज्यालो चमकीलो है रौ (मालूसाही प्रथम श्रुति)"

अर्थात हिमालय के बादल फट गए हैं और पंचाचूली चांदी के समान चमक रहा है। नंदादेवी के घूंघट को और नीचे खिसका रहा है। गौरी गंगा का पानी बढ़कर साफ और चमकीला हो गया है।
गाथाकार ने एक अन्य स्थान पर गंगा के तट का प्रातःकालीन चित्र उभारते हुए कहा है-
चार पहर रात अब, खतम है गई हो गंगा का सुसाट नरैण आब बड़ि गयो हो करकर ठंडी हवा ऊँलै सरसर जाड़ो लागो हो
(हरू सैम की गाथा)
अर्थ रात्रि के चार पहर बीत चुके हैं। हे नारायण गंगा के पानी की कलकल ध्वनि अब बढ़ गई है। करकर करती हुई हवा आकर ठंडे का आभास करा रही है अर्थात जाड़ा होने लगा है।
एक गाथा में छिपलाकोट जंगल की नैसर्गिक सुषमा के बारे में गाथाकार ने कहा है-
बीस अमिर्त दाख दाड़िम आम पापली चौरा
समुणी बीचा माजी, फल फूल बोट अर्थात सामने के बाग में फल और फूल के पेड़ है।
कत्यूर शिलिंग कुन्जूफूलो और फूली प्योली
अमृत, विष दाख तथा दाड़िम के फल हैं। आम तथा पीपल के पेड़ों में चबूतरे का निर्माण हुआ है। कनेर शिलिंग कुञ्ज तथा प्योली के फूल खिले हैं।
प्रकृति का उद्दीपक रूपः- प्रकृति के उद्दीपक रूपों का वर्णन भी गाथाओं में हुआ हैं। नायक नायिका की मन स्थिति के अनुसार वेदना में उसे प्रकृति असुंदर लगती है तथा हर्षित क्षणों में वही प्रकृति नायक या नायिका के लिए वरदान सी साबित हो जाती है-
"हिमाल की हवा क्या मीठी लगी रे
के धूरा हो राजू तेरि दीठि लागी रे
राजू का शोर या हवा ले मीलि रे
शौक्यूड़ा बगीचा मेरि राजू खिलि रे।"

अर्थात हिमालय की हवा में कितनी मीठी सुवास है। राजुला तेरी दृष्टि किस दिशा में लग रही हैं। क्या तू मेरे आगमन को नहीं देख रही हैं। राजुला के वास में यह घुली है इसी के द्वारा मिठास का अनुभव होता है। भोट प्रदेश में बगीचे में मेरी रजुली खिली है।'

विरहिणी राजुला की विरह व्यथा में स्थानीय पक्षी फाख्ता (घुघुत) का वर्णन आया है। राजुली के विरहाकुल मनोदशा पर उसे घुघुत की बोली भी असहनीय कष्ट दे रही है।

"ए नी बासो घुघुती को रूमझूम
मेरी ईज सुणली को रूमझूम
काटी खांछ भागी गाड़ को सुसाट
छेड़ी खांचे भागी तेरी वाणी
(मालूसाही द्वितीय श्रुति)"

(हे घुघुत! तुम धुर्र घुर्र कर आवाज मत निकालो कही तेरी मर्मस्पशी आवाज मेरी माँ सुन लेगी हे भाग्यवान पक्षी! नदी के बहने की ध्वनि को सुनकर मुझे बहुत कष्ट होता है। तेरी दुःखभरी वाणी मुझे काट खाने को आती है।)
अलंकारों के रूप में प्रकृति चित्रण- कुमाउनी लोकगाथाओं में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत विधान अलंकारों के माध्यम से प्रकट होता है। कहीं उपमाएं दी जाती है तो कही रूपक अतिश्योक्ति के रूप में वस्तुस्थिति का चित्रण किया जाता है। राजुला मालूसाही गाथा में अलंकृत शैली का प्रयोग द्रष्टव्य है-
कांस जसी बूढ़ी गंगा रीरि रीरि कफुवा जसी फूली रै कंठकारी जसी गंगा री री, सब दुःख भूली गै (श्वेत जलधार वाली गंगा कफुवे की जैसी फूली है ऐसा लगता है कि उसके गले से अनेक ग्रंथियां फूटकर दुखों को भुला रहे हैं। इन गाथाओं में गाथाकार ने आशीर्वाद लेने के अर्थ में भी अलंकारों का प्रयोग किया है 
"यथा- दवा जसी जड़ी पाती जसी पीली बांसा जसी घाड़ी जुग जुग रौओ "
(अर्थात दूब की जैसी जड़ पत्तियों जैसी वृद्धि तथा बांस के झुरमुट जैसा सघन विस्तार तुम्हारे जीवन में हो, यही कामना की जाती है)

प्रकृति के उपादानों का वर्णनः- लोकगाथाओं में प्रकृति के नाना रूपों का वर्णन हुआ है। ध्यान से देखा जाए तो समग्र प्रकृति ही गाथाओं के मूल में अवस्थित है। नदी, नाले पशु पक्षी, पेड़ पौधे किसी न किसी उपादान के रूप में इन गाथाओं में वर्णित हैं। राजुला मालूसाही गाथा में जब भोट प्रदेश से राजुली बैराठ की तरफ प्रस्थान करती है, तब मार्ग में पड़ने वाली सदानीरा नदियों से वह संवाद करती हैं। सरयू के पावन संगम बागेश्वर में पहुंचकर वह बागनाथ जी का आशीर्वाद ग्रहण करती है और मार्ग में पड़ने वाली अन्य सहायक नदियों से भी अपने अमर सुहाग का वरदान मांगती है। चूंकि लोकगाथाओं का प्रणयन लोकमानस की भावभूमि पर हुआ है। अतः इन गाथाओं में मनुष्य की प्रकृति पौराणिक सन्दर्भों को रूपायित करती प्रतीत होती है। नागगाथा का उदाहरण दर्शनीय है-

"अधराती हई रैछ, अन्यारी रात छ
अन्यारी जमुना को पाणी, अन्यारी छ ताल"

(अर्थात आधी रात का समय है घुप्प अंधेरा है, यमुना का पानी भी अंधियाला या काला है इसी कारण ताल भी अंधेरे से घिरा है।)
आप देख सकते है कि कुमाऊँ में बुरांश प्योली आदि के पुष्पों को सुंदरता के उपादानों के रूप में गाथाकारों ने प्रस्तुत किया है।

कतिपय गाथाओं में आप पायेंगे कि कफुवा न्यौली, घुघुता शेर आदि वन्य पशु पक्षियों को भी आलंबन के रूप में ग्रहण किया गया है। प्रकृति के रूपों को गाथाकार ने सरस ढंग से प्रस्तुत किया है इससे कुमाऊँ प्रदेश की सुरम्य प्राकृतिक सुदंरता का बोध आसानी से हो जाता है।

कुमाउनी लोकगाथाओं में निहित स्थानीय तत्व

स्थानीय तत्व को अंग्रेजी भाषा में local colour कहा जाता है। स्थान विशेष की विशेषता के कारण लोकसाहित्य की प्रत्येक विधा प्रभावशाली एवं रोचक होती है। किसी भी सर्पक का अपना एक लोक होता है। वह उस निजी लोक का निर्माता भी स्वयं होता है। लोक की प्रत्येक क्रिया अथवा प्रतिक्रिया सर्पक को प्रभावित करती है। इस लोकरंजक सूजन में कवि अपनी अनुभूति को शब्द देते समय स्थान विशेष की वस्तुओं भावनाओं तथा परम्पराओं का बहुत ध्यान रखता है। यदि वह ध्यान न भी रखे तो भी उसकी काव्य में स्वतः समाविष्ट हो जाती है।
        कुमाऊँ की लोकगाथाओं में आप समझ सकेंगे कि स्थान विशेष के लोक पारंपरिक आचार व्यवहार प्रकृतिपरक चीजें तथा प्रतिमानों की समिष्ट बड़ी सुरूचि के साथ गाथाकार ने गढ़ी हैं। डॉ. उर्वादत्त उपाध्याय के शब्दों में-अतः कुमाऊँ प्रदेश के लोकगाथाओं में यहाँ का पूरा लोकजीवन अपनी स्थानीय संस्कृति सहित साकार तथा सजीव हो उठा है। कवि ने अपनी स्थानीय प्रकृति पशु, पक्षी तथा लोकजीवन के दैनिक व्यापारों का पूरा चित्रण किया है। यद्यपि स्थानीय तत्व का यह रंग गाथाओं में सर्वत्र बिखरा है। कोई भी गाथा पढ़ी या सुनी जाए स्वतः ही उसमें यहाँ का स्थानीय रंग अपनी आभा लिए निखरने लगेगा।
        पशु पक्षियों के वर्णन तथा उनकी गाथाओं से संबंधता को देखने से पता चलता है कि कुमाऊँ के धुर जंगलों में कोयल कफु का बोलना, घुघुत (फाख्ते) की पुर्र-पुर्र तथा न्यौली की मीठी सुरीली तान गाथाओं का प्रमुख आधार बने हैं। हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं को भी गाथाकारों ने गाया के माध्यम से वर्णित किया है। नंदा देवी, पंचाचूली, छिपलाकेदार, त्रिशूली तथा अनेक ग्लेशियरों का वर्णन भी यत्र-तत्र दिखाई देता है। प्राकृतिक सदानीरा सरिताओं में प्रमुख काली गंगा, गौरी गंगा, सरयू रामगंगा के माध्यम से कुमाऊँ क्षेत्र की पतित पावनी नायिकाओं के चरित्र की उदात प्रभा का उद्घाटन किया गया हैं कुमाऊँ के प्रसिद्ध शिवमंदिरों जागेश्वर धाम का वर्णन भी गाथा में इस प्रकार हुआ है-
"जागेश्वर धुरा बुरूशि फुली रे
मौलि रैई बांजा फुली रै छ प्योली"

(अर्थात जागेश्वर के जंगलों में बुरांश को पुष्प खिले हैं, बांज के वृक्ष ने श्याम सी छवि धारण की है तथा पीले-पीले प्यूली के फूल खिल रहे है)
कहीं बुरूश नाम प्रसिद्ध पुष्प का वर्णन है, तो कही चैत्र मास में फूलने वाली पीलाभ प्यूली से नायिका के रूप सौन्दर्य को अभिव्यक्त किया जाता है। कहीं स्थानीय ताल पोखरों का वर्णन भी गाथाओं में आया है। कुमाऊँ में ग्रामीण क्षेत्रों में कम पानी वाले क्षेत्रों में तालाब से बनाए जाते हैं। गर्मियों में इन तालों में भैसों को स्नान कराया जाता है। इन पोखरों को
    भैसीखाल या भैंसी पोखर के नाम से भी जाना जाता है। स्थानों के पौराणिक नामों का समावेश भी गाथाओं में हुआ है। भोटांतिक क्षेत्र को भोट बागेश्वर का क्षेत्र दानपुर तथा कत्यूर तथा द्वाराहाट का क्षेत्र बैराठ के रूप में गाथाकार ने वर्णित किया है। इसके अतिरिक्त जौलजीवी मेला, उत्तरायणी मेला, बग्वाल का वर्णन भी मिलता है। स्थानीय वस्त्राभूषण जिनमें बुलांकी गले की जंजीर, कानों के झुमके, पैरों के झांवर, तथा झर हाथों की धागुली, नाक की नथुली दस पाट का घाघरा, मखमली अंगिया, धोती प्रमुख हैं, का भी समावेश लगभग स्थानीय गाथाओं में सभी में हुआ है। इस प्रकार आप समझ जाएंगे कि कुमाऊँ के स्थानीय मेले सांस्कृतिक तथा भौगोलिक पंरपरा के सभी सूत्र गाधाओं के विशाल कथानक के आधार स्तंभ हैं।

कुमाउनी लोकगाथाओं का वर्गीकरण

कुमाऊँ में प्रचलित लोकगाथाओं के अनेक रूप हमें प्राप्त होते हैं। इन गाथाओं में प्राचीन काल के विविध आख्यान निहित है। इन गाथाओं में आधुनिक काल की किसी कथा आख्यान को सम्मिलित नहीं किया गया है। कुछ गाथाओं की कथा बहुत विस्तृत हैं, तो कुछ गाधाएं संक्षिप्त भी है। यहां आप संक्षेप में गाथाओं के वर्गीकरण को समझ सकेंगे।
(1) परंपरागत गाधाएं
(2) पौराणिक गाथाएं
(3) प्रेमपरक गाधाएं
(4) धार्मिक गाथाएं
(5) स्थानीय एवं वैदिक देवी देवताओं से संबंधित गाथाएं
6) बीर गाथाएं

परंपरागत गाथाओं में मालूसाही तथा रमौल की गाथाएं प्रसिद्ध है। मालूसाही की विस्तृत गाथा में राजुला मालूमाही का जातीय प्रेमाख्यान प्रदर्शित होता है। इसमें मध्यकालीन कुमाउनी संस्कृति के दर्शन होते हैं। कुछ विद्वान मालूसाही की गाथा को जातीय महाकाव्य के रूप में भी स्वीकारते हैं। कुमाऊँ के सीमान्त क्षेत्र जोहार से लेकर नैनीताल के चित्रशिला घाट तक का वर्णन इस गाथा में हुआ है।
    दूसरी परंपरागत लोकगाथा रमौल के नाम से जानी जाती है। कुमाऊँ तथा गढ़वाल मंडल में प्रचलित इस गाथा में आप महाभारत कालीन चरित्रों एवं घटनाओं का वर्णन समझ सकते हैं।
        पौराणिक गाथाओं में पुराण कालीन अनेक गाथाओं का सम्मिश्रण मिलता है। महाभारत काल के कृष्ण अर्जुन संवाद, कौरव पाण्डवों के मध्य हुए युद्ध के कारण तथा उनकी तत्कालीन प्रवृत्तियों को इसमें दर्शाया गया है। रामायण काल की रामचन्द्र जी एवं कृष्ण जी के अवतार संबंधी कथा का वर्णन भी प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त शिव पार्वती संवाद, कृष्ण जन्म की घटना, चौबीस अवतार तथा नागवंश की विशेषताओं को पौराणिक गाथाओं के रूप में जाना जाता है।राजुला मालूसाही की गाथा विशुद्ध रूप से प्रेमपरक गाथा है। जातिगत वैभिन्य के बावजूद भी दोनों के मिलन की एक अलौकिक कथा हमारे समक्ष आती है। धार्मिक गाथाओं के अन्तर्गत वे गाथाएं आती हैं, जिनके मूल में विशेष धार्मिक अनुष्ठान, पूजा पाठ की क्रियाएं सम्मिलित हैं। कुमाऊँ में जागर गाथा को धार्मिक गाथा कहा जाता है। यद्यपि कुछ विद्वानों का इसके संबंध में अलग मत हैं। कुछ लोग जागर में महाभारत या रामायण काल की घटना की उपस्थिति के कारण इसे पौराणिक गाया की कोटि में रखते हैं। किन्तु मूलतः पहाड़ की पूजा अनुष्ठान की विशेष छवि जागर गाथा में दिखाई देने के कारण इसे धार्मिक गाथा कहना उचित प्रतीत होता है।स्थानीय देवी देवताओं से संबंधित गाथाओं में नंदा का जागर, नंदा का नैनौल, सिदुवा बिदुवा की कथा, अजुवा बफौल आदि की गाथा सम्मिलित है।वीर गाथाओं में चंद, कत्यूरी वंशजों की गाथाएं गायी जाती हैं। राजा बिरमा की कत्यूरी गाथा भी एक प्रभावशाली वीर गाथा है। चंद राजाओं, उदैचन्द, रतन चंद, विक्रमचंद की गाथाओं में तत्कालीन वीरतापूर्ण आख्यान समाविष्ट हैं।

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