कुमाऊँनी का लिखित पद्य साहित्य(Written Verse Literature of Kumaoni )

 कुमाऊँनी का लिखित पद्य साहित्य

कुमाऊँनी संस्कृति की झलकः लोकगीत(Glimpses of Kumaoni Culture: Folklore )

कुमाउनी भाषा साहित्य (Kumaoni Language Literature)

कुमाउनी साहित्य में वर्णित समाज (Society described in Kumaoni literature)

कुमाउनी क्षेत्र की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ (Dialects and dialects of Kumaoni region)

कुमाउनी लोकगाथाएँ इतिहास स्वरूप एवं साहित्य(Kumaoni Folklore, History, Forms and Literature)

कुमाउनी साहित्य की भाषिक सम्पदाएँ(Linguistic Wealth of Kumaoni Literature)

कुमाउनी लोक साहित्य का इतिहास(History of Kumaoni Folk Literature )

लिखित साहित्य में वर्णित समाज (Society described in written literature)

लोक साहित्य के संरक्षण की समस्या एवं समाधान (Problem and solution of conservation of folk literature)

कुमाऊँनी का लिखित पद्य साहित्य(Written Verse Literature of Kumaoni )

कुमाउनी लोकसाहित्यः अन्य(Kumaoni Folklore: Others )


इकाई की रूपरेखा
प्रस्तावना
उद्देश्य
लिखित पद्य साहित्य की पूर्व पीठिका
कुमाऊँनी का लिखित पद्य साहित्य का सामान्य परिचय
तत्कालीन समाज और कुमाऊँनी का लिखित पद्य साहित्य

इकाई की रूपरेखा

कुमाऊँ शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न धारणाएं प्रमुख हैं (1) कुमू या कुमाऊँ शब्द कुर्मांचल का तद्भव है। अल्मोड़े के दक्षिण पूर्व में चंपावत के निकट कानद्यो नामक पर्वत है, जिसका आकार कूर्म जैसा है, इस पर्वत शिखर की उँचाई सात हजार फिट है। किंवदंती है कि भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार के समय इस पर्वत शिखर पर तीन हजार वर्ष तक तपस्या की थी। इसी कूर्म के नाम से इस पर्वत के आस-पास का भू-भाग कूर्मांचल कहलाया। बाद में सम्पूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र के लिए यह शब्द कूर्माचल या कुमाऊँ के रूप में व्यवहार होने लगा। 

कूर्म से कुमू या कूर्माचल से कुमाऊँ शब्द का विकास निम्न रूप से हुआ। 

  • कूर्माचल-कुम्माअओ-कुमओ-कुमऊ कुमू कुमी/ कुमाऊँ 
  • कूर्म-कुम्म- कुर्मू कुभी/ कुमाऊँ। 
  • इस क्षेत्र के लोग खूब 'कमाऊ' हैं इसलिए इस क्षेत्र का नाम 'कमाऊ' या 'कुमाऊँ' पड़ा। 
  • 'कालू वजीर' के नाम से इस क्षेत्र का नाम कुमाऊँ पड़ा। राजा ज्ञानचंद के दरबार में कालू वजीर का वर्णन आता है। कालू से इस क्षेत्र का नाम 'कालि कुर्मू पड़ा, जो बाद में केवल 'कुमूँ' भी कहा जाने लगा। इसी 'कुमैं' शब्द का विकास कुमाऊँ के रूप में हुआ। 
  • एक कुमाउँनी लोग गाथा के अनुसार, त्रेता युगा में रावण के भाई कुम्भकरण की खोपड़ी राम के वाणों से कटकर इसी क्षेत्र में गिरी थी, जिससे वहीं एक तालाब निर्मित हो गया था। कालान्तर कुम्भकरण के नाम के आधार पर इस क्षेत्र का नाम 'कुर्मू' चल पड़ा। "हजारों हजार साल की उम्र वाले कुमाउँनी साहित्य का नागर रूप दो सौ साल से भी कम पुराना है। 

लोकरत्न गुमानी से प्रारम्भ, कृष्णा पाण्डे (1800-1850), शिवदत्त सती (1848-1910) द्वारा आगे बढ़ी। यह काव्य परम्परा गौर्दा (1872- 1939) के समय अपनी यादगार ऊँचाईयों तक पहुँची। तब से अब तक कुमाउँनी काव्य परम्परा की निरंतरता बनी हुई है।
उद्देश्य

इस इकाई के अध्ययन करने के बाद आप -

कुमाऊँनी के लिखित पा साहित्य और कवियों को हृदयगंम कर सकेंगे।
कुमाऊँनी के विविध कालखण्ड के कवियों की काव्य परम्परा का परिचय प्राप्त कर सकेंगे

लिखित पद्य साहित्य की पूर्व पीठिका

सामान्यतः कुमाऊँ में लोकरत्न गुमानी से पूर्व लोक-साहित्य मौखिक परंपरा में समृद्ध और प्रचुर मात्रा में था, इसके प्रमाण आज भी यहाँ के जनजीवन और कामगार मेहनतकशों, किसानों, ग्वालों एवं घरिसारों व पोषित पति की पतिकाओं के कंठों में गूंज रहा है, जिसकी अनुगूँज से आज भी आम जनमानस श्रम के सौंदर्य को गीतों में रूपायतित करता है। हजारों साल पहले से उत्तराखंड कुमाऊँ में कला, संगीत व साहित्य यहाँ के जन-जीवन का अमूल्य औजार रहा है। कला के क्षेत्र में आदिम भित्ति चित्र गुफा में लखुउडयार इसका उत्कृष्ट नमूना है, तो जागर, संगीत और उसके आदिम रूपों का श्रेष्ठ नमूना इसलिए बिना उत्तराखंड के लाक-साहित्य को समझे हम उत्तराखंड की काव्य परंपरा का मूल्यांकन नहीं कर सकते, क्योंकि कालान्तर में उत्तराखंड के कवियों ने अपने लोक-साहित्य से ही स्थानीय चेतनाओं को ग्रहण करके, उन्हें विराट जनमानस तक लिपिबद्ध कर पहुंचाया। भले ही साहित्य की स्थानीयता कितनी ही सीमित क्यों न हो, लेकिन उसकी चेतना वैश्विक चेतना के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने में सक्षम है इसीलिए कुमाऊँ का जिक्र पुराणों एवं वेदों में तो है ही, लेकिन साथ ही पृथ्वीराज चौहान से लेकर सूफी कवि जायसी तक सभी के साहित्य में कहीं-न-कहीं मिल जाता है। चन्दवरदाई कृत पृथ्वीराज रासो (1225-1249 ई0) में कुमाऊँ शब्द का प्रयोग हुआ है, उदाहरण के रूप में ये पंक्तियाँ उद्धत की जा रही हैं-

"सवलष्प उत्तर सयल, कुमाऊँ गढ़ दूरंग। राजतराज कुमोदमणि हय गय द्रिव्य अभंग ।।

अतः कहा जा सकता है कि कूर्माचल या कूर्म शब्द का प्रयोग इससे भी पूर्व प्रचलन में रहा होगा, जिसका अपभ्रंश रूप 'कुमाऊँ' कवि चंद वरदायी द्वारा प्रयुक्त हुआ है। भक्ति काल के कवियों में मलिक कुहम्मद जायसी कृत 'पद्मावत' (1540 ई0) तथा उसमान कृत 'चित्रावली' (1613 ई0) में कुमाऊँ का उल्लेख मिलता है। रीतिकाल में महाकवि भूषण (1673 ई0) की रचनाओं में भी 'कुमाऊँ' का उल्लेख हुआ है।" अनवरत युद्धों, आपसी टकरावों के बावजूद मौखिक साहित्य तो बना रहा, लेकिन लिखित साहित्य का अभाव खस, कत्यूरी और चंद राजाओं के शासन काल तक विकसित नहीं हो पाया, क्योंकि अभिजात वर्ग की भाषा संस्कृत थी। कुमाउँनी का प्रयोग केवल संपर्क भाषा के रूप में हुआ, बल्कि यह भी कह सकते हैं कि कुमाउँनी कालीपार व काली वार (नेपाल-भारत) के नागरों की आपसी भाषा थी। लेकिन संस्कृत के लिये यहाँ के लोग खासकर एक वर्ग विशेष विद्याध्ययन के लिए काशी, बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद पहुंचे । 

अंग्रेजी शासन काल के दौरान यहाँ के लोगों की जातीय अस्मिताएं व स्व का जागरण हुआ। अंग्रेजों को भी राज-काज चलाने के लिए आम नागरिकों की भाषा कुमाउँनी सीखने की आवश्यकता पड़ी। इस चेतना बोध से लैस कवि ने जब यहाँ के अभाव, प्रकृति, जनजीवन को व्यक्त करने के लिए कलम उठाई तो कुमाउँनी लिखित साहित्य का अंकुरण हुआ । इस तरह से गुमानी पहले प्रारंभिक कवि थे। मूलतः गंगोलीहाट निवासी गुमानी ने अपने इलाके की आत्मीय छवि प्रस्तुत करते हुए लिखा -

"केला, निम्बू, ओखड़, दाडिम, रेखू, नारिंग, आदो, दही।
खासो भात जमोलि को, कलकलो भूना गडरी गवा,
च्यूड़ा सा उत्यलो दूध बाकलो घ्यू गाय को दाड़े दार। 
खानि सुन्दर मोडियों धबडुबा गंगावलि रौणिर्यो ।।

डॉ) देवसिंह पोखरिया के अनुसार, परिनिष्ठित साहित्य परंपरा को चार भागों में विभाजित किया गया है- 

प्रारंभिक युग (सन् 1800-1850 ई0 तक पूर्व 
मध्ययुग (सन् 1850-1900 ई0 तक 
उत्तर मध्ययुग (सन् 1900 से 1950 ई0 तक 
आधुनिक युग (सन् 1950 से आज तक 
उत्तराखण्ड कुमाऊँ के प्रारंभिक युग (सन् 1800-1850 ई0) इस युग में गुमानी और कृष्णानंद पाण्डे प्रमुख कवि हैं। इसके तत्पश्चात पूर्व मध्य युग (सन् 1850-1900) में चिंतामणि जोशी की प्रमुख रचनाएं दुर्गा पाठ सार तथा सत्य नारायण कथा और भगवद्गीता हैं। इसी युग के दूसरे कवि है नैन सुख पाण्डे, जिनका जन्म मृत्यु का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। गौरीदत्त पाण्डे बल्दी गाड़ निवासी कवि भी महत्वपूर्ण हैं। माना जाता है कि यह गुमानी की परंपरा के कवि थे। इस युग के सबसे सशक्त स्वर हैं- शिवदत्त शर्मा, जिनकी आठ रचनाओं का प्रकाशन हुआ, जिनमें भाभर गीत एवं धसियारी नाटक प्रमुख है। इसके अलावा इस युग में दो अन्य कवियों के नाम भी पता चलते हैं, दिवान सिंह और लीलाधर  जोशी।

उत्तर मध्ययुग (सन् 1900-1950 ई0 इस युग जिसके प्रमुख कवि हैं, गौरी दत्त पाण्डे गौर्दा (1872-1939 ई0)। गौर्दा को कुमाऊँनी साहित्य का स्वर्ण शिखर भी कहा जाता है। राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत यह कवि नव जागरण एवं राष्ट्रीय आंदोलन में उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व करता कवि है। इनका संग्रह "गौरी गुटका" नाम से संग्रहित है। इसके बाद पंडित शिरोमणि पाठक (1890-1955) तथा पिथौरागढ़ के मुजीली ग्राम में जन्में श्री लालमणि उप्रेती (1900 - 1963) प्रमुख हैं। इस क्रम में छायावाद के प्रमुख कवि सुमित्रानंदन पंत (1900-19977ई0) ने भी कुर्मोऊनी में रचना की, लेकिन उनकी एक ही कविता कुमाँऊनी में प्राप्त होती है, जिसका नाम है 'बुरूंश'। इसके बाद पंडित श्यामादत्त पंत (1901-1967ई0) प्रमुख हैं, जिनका जन्म रानीखेत में हुआ। इन्होने हिंदी और कुमांऊनी दोनों में रचना लिखी, इनके काव्य संग्रह का नमा है 'दातुलैधार' जो समसामयिक विषयों पर लिखी गई कविताओं का संग्रह है।

 तुकबंदी और मनोरंजन की दृष्टि से भी इन्होने 'क सुवा कथ क' जैसी सामाजिक यथार्थ की कविताएं लिखीं हैं। तत्पश्चात् कविराज रामदत्त पंत (1902-1968ई0) प्रमुख कवि हैं। इनकी प्रमुख रचनाएं 'गीत माला, 'गांधी गीत', 'गीतबाद' और 'क्वीण कैण' है। चंद्र लाल चौधरी इस युग के प्रमुख कवि हैं। इसके अलावा चचीराम, हीराबल्लभ शर्मा, मधुरादत्त पाण्डे डियर, पिताम्बर पाण्डे, चंद्र सिंह तड़ागी, भोलादत्त भोला, पूर्णनंद भट्ट, चिंतामणि पालीवाल तथा जंयति पंत इय युग के प्रमुख कवि हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि कुर्माऊनी की कविता परंपरा स्वयं में भी पूरी सम्पूर्ण कविता परंपरा है, जिसका विकास अनवरत रूप से आज भी कुर्माऊनी जनमानस के अन्तर्विरोधों एवं संघर्षों को स्वर दे रहा है और आगे भी देता रहेगा। आधुनिक युग 1950 से अब तक इस युग के कुर्मोऊनी साहित्य पर इन सबका गहन प्रभाव पड़ा। अनेक साहित्यिक मतवादों ने भी इसे प्रभावित किया। कुर्मोऊनी का परंपरागत कथ्य और षिल्प इस युग में आकर टूट गया। यद्यपि आधुनिक युग के प्रथम दशक तक पूर्ववर्ती साहित्यिक प्रवृत्तियों का ही प्राधान्य रहा।

आधुनिक युग के आरम्भ में कुछ रचानाकार उत्तरमध्य युग से ही रचना करते आ रहे थे। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देवीदत्त पंत हुड़किया' नरसिंह हीत बिष्ट, लक्ष्मीदेवी, मथुरादत्त जोशी, नित्यानंद बिष्ट, नारायण राम आर्य, भवान सिंह मेहता, गंगासिंह बिष्ट, लक्ष्मीदेवी, मधुरादत्त जोशी, नित्यानंद बिष्ट, नारायण राम आर्य, गोविंद शर्मा, आनंद सिंह हरि सिंह, बचीराम आर्य, श्रीकृष्ण पंत (बचौराम), बचेसिंह पटवाल, केशवदत्त पाण्डे, मधुरादत्त बेलवाल, दामोदर उपाध्याय, रामकुँवर रौतेला गुँसाई, बागगिरि, भवानी राम, पालेराम शर्मा, ख्यालीराम शिल्पकार, कुलायंद भारतीय, शिवदत्त शर्मा, गुलाबसिंह, चंदनसिंह, करम सिंह भंडारी, पूरन चंद्र जोशी, नित्यानंद जोशी, कैलाश उप्रेती, ताराराम आर्य, चंद्रशेखर, हरीसिंह, स्व() मोहन सिंह डोलिया, गोपाल बाबू गोस्वामी, बहादुर बोरा 'श्री बंधु' आदि रचनाकारों ने अपनी कृतियों से कुर्माऊनी साहित्य की भी वृद्धि की है।

आधुनिक युग के सशक्त रचनाकारों में चारू चंद्र पांडे, गोपाल दत्त तिवाड़ी, ब्रजेन्द्र साह, पूरनसिंह नेगी, नंदकुमार उप्रेती, शैलेख मटियानी, वंशीधर पाठक 'जिज्ञासु', शेरसिंह बिष्ट अनपढ़, गोपाल दत्त भट्ट, हीरासिंह राणा, गिरीश तिवाड़ी, भवानी दत्त पंत 'दीपाधार', श्रीमती देवकी महरा, सैमुअल माधोसिंह, दुर्गेश पंत, सुरेश पाण्डे, जुगल किशोर पेटशाली, राजेन्द्र बोरा, बालमसिंह जनौटी, मथुरादत्त, महेन्द्र मटियानी, जगदीश जोशी आदि के नाम प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। लेकिन हम यहाँ केवल प्रमुख कुर्मीऊनी कवियों का ही सार संक्षेप वर्णन करते हुए उनकी कविताओं के सामाजिक सरोकारों पर प्रकाश डालेंगे।
तत्कालीन समाज और कुमाऊँनी का लिखित पद्य साहित्य

प्रारंभिक यग (सन् 1800-1850 ई0 तक)

नोक रत्न पंत गुमानी (1790-1846) उस युग के रचानाकार थे, जब पश्चिम में अमेरिका की राज्य क्रांति तथा फ्रांस की सामाजिक क्रांति हो चुकी थी और औद्योगिक क्रान्ति पूरे पश्चिमी यूरोप को नियंत्रित करने जा रही थी। यूरोप की राज्य व्यवस्थाएं साम्राज्यों और उपनिवेशों को अधिकार में कर रही थी और भारत देश छोटी-छोटी क्षेत्रीय ताकतों में विभाजित हो गया था। अभी हिमाल में औपनिवेशिक शासक नहीं पहुंचे थे, प्रदेश में उनका वर्चस्व कायम हो चुका था। यह संयोग रोचक है कि जिस साल गुमानी का जन्म हुआ उसी साल गोरखा शासकों ने कुमाऊँ पर अधिकार किया और यूरोप में नेपोलियन का युग शुरू किया। जब गुमानी ने लिखना शुरू किया होगा तब तक कुमाऊं में गोरखें के स्थान पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का आगमन हो चुका था। गार्डनर, ट्रेल या फिर लसिंग्ट्रन कमिश्नरों का युग चल रहा था। पूर्व शासकों के समय प्रचलित बहुत सी शोषक उत्पीड़क प्रथाएँ जारी थीं। साथ ही गोरखों के मुकाबले कम्पनी शासन को उदार मानने का भ्रम भी मौजूद था। उस युग में गुमानी ने जो भी लिखा उसका जितना भी हिस्सा बचा है, उसके आधार पर उसे नकारना संभव नहीं है।'

गुमानी की कविता में पर्वतीय अभिजन जीवन का स्वाभाविक चित्रांकन हुआ है। विद्वान् मानते है कि गुमानी ने हलवाहा, विधवा एंव सामान्य पहाड़ी जन का सहज और आमीय चित्रण किया है। डॉ० शेखर पाठक सामाजिक चेतना की दृष्टि से गुमानी में कथ्य की शिथिलता पाते हैं। किंतु डॉ० भगत सिंह उन्हें प्रथम राष्ट्रीय कवि मानते हैं। गियर्सन गुमानी को कुर्मोऊनी का प्रथम कवि स्वीकार करते हैं और इधर अधिकांश समीक्षक उन्हें हिंदी खड़ीबोली के प्रथम कवि का दर्जा देते हैं।
राज बड़ा दशरथ की बुआरी, कन्या पनी भूप बड़ा जनक की। 
क्या भंदिहन रावन वस परया की, हा राम हा देवर तात मातः"

गुमानी की कविताओं में जहाँ एक ओर जनमानस की यथास्थिति का वर्णन गोरखा राज की क्रूरताएं देखने को मिलती हैं, वहीं वह सचेत रूप से अंग्रेजों की शासन व्यवस्था और उनके स्वभाव को भी अपनी कविता में चित्रित करते हैं वे बहुत विद्रोही या देशभक्त कवि नहीं कहे जा सकते। बावजूद लिखित कुमाऊँनी पद्य साहित्य के गुमानी प्रथम कवि हैं। हालांकि कई लोगों का मानना है कि गुमानी से पूर्व नाथमत के साधुओं ने कुमाउनी में लेखन किया परन्तु अभी इस तरह के पुख्ता प्रमाण नहीं प्राप्त हुए हैं।

"दूर विलायत जल का रस्ता करा जहाज सवारी है सारे हिन्दुस्तान भरे की धरती वस कर डारि हैं, और बड़े शाहों में सब में धाक बड़ी कुछ भारती हैं, कहें गुमानी धन्य फिरंगी तेरी किस्मत न्यारी है।" 

इस युग के दूसरे प्रमुख कवि कृष्णानंद पाण्डे माने जाते हैं। इनका जन्म 1800 में अल्मोड़ा के पाटिया गाँव में हुआ। गुमानी द्वारा स्थापित कुर्मोऊनी काव्य परंपरा को एक तरह से इन्होंने ही आगे बढ़ाया था। इनकी कविताएं पुस्तकाकार में नहीं मिलती। गंगादत्त उप्रेती ने इनकी रचनाओं का संग्रह और अनुवाद किया। 1910 ई0 में ग्रिर्यसन ने इनकी कविताओं का प्रकाशन 'इंडियन एन्टिक्वैरी' में किया। इनकी कविता में भक्ति, समाज सुधार, व्यंग्य-विनोद पूर्ण कविताएं मिलती हैं। युगीन सामाजिक एवं राजनीतिक विषमताओं पर भी इन्होंने करारी चोट की। इनकी मृत्यु 50 वर्ष की अवस्था में सन् 1850 वर्ष में हुई। उनकी 'मुलुक कुमाऊँ' तथा 'कलयुग वर्णन' कविताएं उन्नीसवीं सदी के आरंभिक कुमाँऊनी समाज का व्यापक साँचा खींचती हैं। देखें-

"मुलुकिया यारो कलयुग देखो।
घर - कुडि बेचि बेर इस्तीफा लेखो ।।
बद्री केदार वड़ भया धाम।
धर्म कर्म की के न्हाती फाम ।।"

पूर्व मध्ययुग (सन् 1850-1900 ई0 तक)

इस युग के प्रमुख कवि चिन्तामणि ज्योतिषी तल्ला दन्या अल्मोड़ा (सन् 1874-1934) हैं। इन्होंने सन् 1897 में दर्गा (चंडी) पाठसार को कुमाँऊनी भाषा में अनुवाद किया। इनके उपलब्ध कुर्माऊनी अनुवाद हैं- सत्यनारायण कथा तथा भगवद्गीता। नैन सुख पाण्डे पिलखवा गांव के निवासी थे। इनकी मृत्यु और जन्म के बारे में विद्वान केवल यह मानते आये हैं कि इनका जन्म 1850 के बाद ही हुआ होगा। इनकी कुछ कुर्मोऊनी स्फुट रचनाएं मिलती हैं। इनकी एक रचना है, जिसमें इन्होंने घरेलू काम धंधों में आने वाले औजारों का वर्णन किया है। गौरी दत्त पाण्डे के जीवन के बारे में भी विद्वानों को बहुत कुछ पता नहीं है, परंतु यह माना जाता है कि ये उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक विद्यमान थे।

शिवदत्त सती शर्मा का कुर्माऊनी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है। इनका जन्म 1848 में फलदाकोट अल्मोड़ा में हुआ । वे बचपन से कृषि कार्य से जुड़े रहे। अन्धविश्वासों से दूर समाज सुधार के प्रबल समर्थक थे। इनकी आठ रचनाओं का उल्लेख विद्वान प्रायः करते हैं। मित्र विनोद, घसियारी नाटक, गोपी गीत, बुद्धि प्रवेश भाग 1, बुद्धि प्रवेश भाग - 2, बुद्धि प्रवेश भाग-3, रुक्मणि विवाह, प्रेम और मोह। घसियारी नाटक में पहाड़ी जन जीवन की कठिनाईयों और अंग्रेजों द्वारा किये जाने मनमाने व्यवहार और उत्पीड़न को नाटकीय शैली में प्रस्तुत किया है। गोपी देवी का गीत में स्त्री जीवन और उसके वैविध्य का कारूणिक चित्रण हुआ है। बांकी संकलनों में बुद्धि प्रवेश एक, दो, तीन जनहित में हिंदी और कुर्मोऊनी गीतों का संकलन है। कई विद्वान इन्हें कुमानी गजल लिखने की परम्परा का प्रथम कवि भी कहते हैं।

"हमार कैबेर धर्ममैकि बात छिपाई निजानी।
सोधि बात झुटि लै यो बताई नि जानी ।।"

उत्तर मध्य युग (सन् 1950 से आज तक)

गौदों का जन्म अगस्त 1872 अक्टूबर में हुआ। गौर्दा का साहित्य कुर्मीऊनी साहित्य का स्वर्णिम शिखर है। उनकी चेतना और साहित्यिक समझ को कुमाऊनी साहित्य में कोई नहीं छू पाया है। गौर्दा एक ऐसे समय की उपज थे, जब एक तरफ भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हो रहा था और दूसरी ओर स्थानीय जन आन्दोलन स्फूरित हो रहे थे। गाँर्दा की चेतना इसी युग में निर्मित हुई। "गौर्दा उन कवियों में हैं, जिन्होंने अपने वर्ग से सीधी मुठभेड़ की। 'गौं कि रानौ या आपु जैसि में करो, या मैं जैसि तुम है जाओ' ऐसी चुनौती अपने तथाकथित बुद्धिजीवी कहलाने वाले पाखंडी अभिजन समाज को जो वैचारिक बांझपन से ग्रस्त था गौर्दा ही दे सकते थे। 

उनके कुमाउनी लेखन को पढ़ते हुए हिंदी के कवि निराला याद आते हैं। गौर्दा की यह घोषणा उस समय की है, जब बारातों और उत्सवों में गरीब आदमी को अपनी जमीन गिरवी रखकर पिठावां या दक्षिणा देनी पड़ती थी। वह अपने इस पाखंडी वर्गों से एक सिपाही की तरह लड़ा। इस दोहरे चरित्र की धज्जियां उड़ाई और बखिया उधेड़ दी। गौर्दा अपने समय की जटिलताओं, आन्दोलनों के सच्चा सिपाही था। वह अपनी तरह से अपनी युगीन समस्याओं से टकराये। चाहे वह शारदा एक्ट हो, कुली उतार हो, स्वराज के आन्दोलन हो या जातिगत मुछ्रदे हो, दलितों व शोषितों के दमन के सवाल हों। हालांकि यहाँ भी उनकी अपनी सीमाएं हैं, वही सीमाएं जो उस समय के एक अभिजातीय व्यक्ति की ईमानदार राष्ट्रवादी में बदलने की थी। इस प्रारंम्भिक राष्ट्रवादी माहौल में अपने देश और क्षेत्र के प्रति व जन के प्रति गौर्दा में वह ईमानदारी दिखाई देती है।

गौर्दा की यह चेतना व्यक्ति और जाति का अतिक्रण करती हुई पहाड़ी नदी की तेज धार में बहती हुई रूढ़ियों और अंधविश्वासों को बहा देती है। इस आधार पर जल, जंगल और जमीनों का यह कवि कुमाँऊनी कविता का ध्रुव तारा है, यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी। यदि कुमाँऊनी कविता में पुनर्जागरण और आधुनिकता की शुरूआत होगी तो गौर्दा इसके पहले कवि होंगे और अने वाले समयों पर उनकी कविता की सदैव आँख रहेगी। इसी आशय में उनकी कविता 'समता धरणी चैछ सबन के' शीर्षक के अन्तर्गत लिखा गया है-

"समता धरणी चैंछ सबन के।
राजा परजा, ग्वार-कालन के।
वी पछिला द्विजजन हरिजन के।"

एक ऐसा कवि जो अपने वर्ग से इतने भयानक रूप से टकराता है शायद हिंदी साहित्य में निराला ही ऐसे दूसरे कवि होंगे, जिनके साहस की तुलना हम 'गौर्दा' से कर सकते हैं। हमारी कविता धारा का यह अप्रतिम कवि हमारे पूरे लोक को जिस एकता अखंडता के साथ अपनी कविता में व्यक्त करता ळे, वह उस विराट और महान दुनिया के प्रति आश्वस्त करती हैं, जिसका स्वप्न आज भी हमारे लोग देख रहे हैं, जिसे एक न एक दिन पूरा होना ही है।

जाति से अभिजन यह ऐसा पहला कवि भी है, जिसने अपने नाम पर 'दा' शब्द लगाया। पहाड़ में 'दा' और दाज्यू (बडे भाई के लिए इस्तोमाल होते हैं) पर दोनों की ही तासीर एकदम भिन्न है और अर्थ में भी दोनों शब्द भिन्न हैं। हालांकि अब यह शब्द सामान्य रूप से प्रचलित है। किसी समय इस 'दा' शब्द कहने के पीछे एक सचेत किस्म की जातीय अभिजातियता रही है। यह 'दा' शब्द आज भी मूल रूप से यहाँ के 'हलियों' (हल जोतने वालों), त्वारों (लोहे का काम करने वालों), ढोलियों (ढोल बजाने वालों), औजियों (कपड़ा सिलने वालों व निचली जातों के उन मेहनतकश लोगों के लिए इन अभिजातीय फिरकों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। इसी 'दा' शब्द को कालांतर में गिर्दा और शेरदा ने भी अपने उपनामों के माध्यम से व्यक्त करते हुए गौर्दा की चेतना को आगे बढ़ाया। 

इससे सहज की पता चलता है कि गौर्दा की चेतना आखिर किस पक्ष की है। गौर्दा की इस परंपरा में कुमाऊनी कविता के लिए आधुनिक युग में जिन दो लोगों ने 'दा' शब्द का इस्तेमाल किया, उनकी कविता भी गिर्दा की काव्य चेतना की अगली कड़ी ही है, जिनमें गिर्दा तो गौर्दा को अपना कविता उस्ताद मानते थे, बल्कि शेरदा अनपढ़ की कविता की बनक भी गौदा की काव्य परंपरा से ही चेतना लेती है।

गौर्दा जिन मुद्दों पर अपनी कलम चलाया करते थे यह मुद्दे आज भी कितने प्रासंगिक और कितने महत्वपूर्ण हैं। स्थानीय चेतना से लेकर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय चेतना को अपनी कविता में समेटने वाला यह कवि वैश्विक ग्लोबल गांव की कल्पना से पूर्व ही अपनी कविता में एक विश्व रचने में माहिर है।

जहाँ गौर्दा ने जातिप्रथा, छूआछूत आदि पर तीखे व्यंग्य किए, वहीं बह तत्कालीन दौर का समर्थ राजनीतिक कवि भी है। 'गोलमेज परिषदों की असफलता को कितने अर्थ भरे शब्दों में गूढ व्यंग्योक्ति के सहारे कवि ने प्रकट किया यह दर्शनीय है-

यस स्वराज्य मिलाणों, जस कुकरा को व्याणों।
देखण में दनमन धिनाली कि हूँछ, काम की नै कुछ जाणों।
सब कुछ तुमरो हात झन लगया- तस ऊ मंत्रि बुलाणों।

(सब कुछ तुम्हारा है, मगर छूना मत, ऐसा वह मंत्री बोला। ऐसा स्वराज्य मिला जैसे कुतिया ब्याई-प्रसस्थ दूध, सब बेकाम)

गौर्दा ने चाय लाला, कतवा, गलहार बंधे मातरम्, बुडज्यू गांधीज्यू, सुन्दर सुकीला मुसा, दे हो स्वराज्य बिहारी, तू खेल गांधी, लगी कपालि विभूत, जन होया हिकमत हार, पति राखिया, लुकुड़ा स्वदेशी बणा दि हाली, धन हो स्वदेशी राई, कब राज ब्याली कब की कड़ालो, यसो स्वराज्य मिलाणों, जै जै बागनाथ, अगस्ति उदय, सुणिये विपति हमारी, हामारा गौ की काथा, अणहोति काला, बणि जनी सिरताज, लागि गोली कसी चोट, देश को संग जनै छोडिया, भोट-भिक्षा, दीनी फसक बड़ी मार, होलि कसिकै खेलनू, अकाल प्रभाति उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। साथ ही उन्होंने छोड़ो गुलामी खिताब जैसी युगीन प्रतिनिधि कविता लिखकर उस दौर में कुमाऊँ का प्रतिनिधित्व किया। उनकी कविता वृक्षन को विलाप प्रकृति के प्रति उनके लगाव का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। गौर्दा की कविताएं और उनकी विषय-वस्तु आने वाले समय में और प्रासंगिक होती जायेगी। स्थान विशेष क्षेत्र एवं देश की सीमाओं से पार अन्तर्राष्ट्रीय चेतना का कवि बना देती है। उनकी कविता मुर्दाक बयान का उदाहरण देखिए -

"जो दिन अपैट बतूंछी, वी में हूँ पेट ही।
जकै में सौरास बतूंछी, वी म्यर मैत ही
मायाक मारगाँठ आज, आफी आफी खुजि पड़ी।
दुनियल तराण लगें दे, फिरि ले हाथ है मुचि पड़ी।
जनूँ के मैल एकबट्या, उनूँक में न्यार करू
जनूँ के भितरे धरौ, उनूँलें में भ्यार धरूँ।
बेई तक आपण, आज निकाऔ निकाऔ हैंगे। 
पराण लै छुटण नि दी, उठाओ उठाऔ हैगे।""

गोपाल दत्त भटूट 1940 में गरूड़ अल्मोड़ा में जन्म हुआ। धरतीक पीड़ 1982 गोपाल दत्त भट्ट का प्रथम संकलन है। इनकी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना, देश भक्ति तथा सामाजिक चेतना दिखाई देती है। अपने पर्वतीय क्षेत्र की कविताएँ भी इन्होनें लिखीं हैं, जिसमें बसंत, ऋतु चौमास की, सौंण आगो, रूपसा राजुलि जैसी, धरती घ्यापणि और अड़कसी दै तू प्रमुख कविताएँ हैं। उनकी उत्कृष्ट कविताओं में उनैन पीड केलेख, पाप छू जून हुण, भुखमारे तारे अमावस्या तक, चंद्रमा को पूरा को पूरा खा जायेगें, कथन भाव, प्रभाव की सृजना करता है।

"अगासक चुलनउगै गो ग्यूक जौ र्वाट, 
जून पुन्योंक पतणीनें-औणीं डापाव मारने - 
लाख-लाख नंग भुक तार यौं अमूश जालें न्येई जाल, 
खै जाल सारि सारि जून के, तवत् कीनें,
पाप छू जून हण पाप छू"

इसके अलावा इस दौर के कवि मथुरादत्त मठपाल भी प्रमुख हैं। भवानी दत्त पंत दीपाधार 1942 ई० प्रमुख कवि गीतकार हैं तथा प्रसिद्ध गायक हीरा सिंह राणा 1942 ई० उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक चेतना के प्रमुख कवि है।, जिनमें उनकी कविता मनखौं पड़याव 1987, फूल टिपो टिपो हरै, बखत और हम, टंकाऔ घानी, बुस्थिल ढुंग, महेणि, हटिये माठू माठ प्रमुख कविताएँ हैं। गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' का जन्म 9 सितम्बर, 1945 को अल्मोड़ा जिले के हवालबाग के ज्योली तलला स्यूनारा हुआ था। उन्होंने हाईस्कूल इण्टर कॉलेज अल्मोड़ा से किया। उनके द्वारा रचित रचनाएँ निम्न हैं:

पहली किताब जंग किसके लिये (हिंदी कविताएं संकलित हैं), दूसरी किताब जर्जेता ए कदिन तो आलो (कुमाऊँनी कविताओं का संग्रह है), इसके अतिरिक्त नगाड़े खामोश हैं, सल्लाम वालेकुम, शिखरों के स्वर (1969) हमारी कविता के ऑखर (1978) रंग डारी दियो अलबेलिन में (1999) के संपादक हैं। 1998 में उत्तराखण्ड काव्य का प्रकाशन हुआ । गिर्दा की कविताओं का रचना संसार 1960-61 से 2009 तक रचा गया है।

जौता एक दिन तो आलो के संबंध में मंगलेश डबराल का कहना है कि "क्रान्तिकारी चेतना और व्यंग्य की पैनी धार से लैस इन कविताओं में देश विदेश के कई जनकवियों की आवाजें भी घुली मिली हैं। लोकों, पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत, एर्नस्तो कार्दनाल, फैज अहमद फैज ऐसे कवित हैं, जिनके सरोकारों की ओर गिर्दा बार-बार लौटते हैं और यह कहने की इच्छा होती है कि गिर्दा पहाड़ के नागार्जुन हैं। गिदा का व्यक्तित्व भी नागार्जुन से बहुत मिलता है। उसी तरह की फकीरी, फक्कड़पन यायावरी और समाज से गहरा लगावा अपने जन की नियति बदलने की निरंतर कोशिश हैं, यथास्थिति के पोषकों के प्रति लगातार कटाक्ष है और मनुष्यता के लिए एक ऐसी आशा है, जो तमाम दुखों- अभावों से पार पा लेती है। गिर्दा और नागार्जुन की अनेक कविताओं में एक जैसे सरोकार ही नहीं हैं, कहीं कहीं उनकी संरचना भी एक जैसी दिखती है।

"बहुत कठिन प्रश्न चयन/जिस पर सहमत सब जन काल के कपाल पर सजे तिलक-चंदन/कंठ-कान-नाक-नयन सब जिसके गिरवी हों/फिर भी हो खुला मिशन मंथन की चिंता आसन सिंहान/बावन, त्रेपन, चौवन"

गिर्दा ने साहित्य जगत में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। यह संस्कृत कर्मी हैं, उन्होंने कुमाउँनी, गढ़वाली में गीत लिखे हैं, जिनमें उत्तराखण्ड आंदोलन, चिपको आंदोलन, झोड़ा, चांचरी, छपेली व जागर आति के माध्यम से समाज को परिवर्तित करने पर बल देते हैं। वे हमेशा समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक को उत्तराखण्ड का जनवादी कवि माना जाता है। उनकी तुलना देश के प्रमुख जनवादी कवियों के साथ और बाम समर्थक लेखकों के साथ की जाती है।

बालम सिंह जनौटी का जन्म 4 दिसम्बर 1949 में हुआ। बालम सिंह जनौटी तीखे संघर्षों एवं आधुनिक भाव-बोध के साथ-साथ उसकी विसंगतियों के अनमोल कवि हैं। आधुनिक सत्ता और शासन के खिलाफ अपने स्वर बुलंद करने वाला कवि बालम सिंह जनौटी आधुनिकीकरण के तत्पश्चात् बाजार की चपेट में आने वाले गावों का कवि है। यह मुखतलिब स्वर पहाड़ की असंगति एवं उसकी विसंगतियों के साथ-साथ उसके सहजपन व सरल जीवन को बचाने की छटपटाहट का कवि है। इनकी प्रमुख कविताएँ कुमाउँनी भाषा लिजी, कुमाउँनी लैंगवेज, भिसौण, तीन बीघा जमीन, नाकसाफ, आत्महत्या, संविधानक पीड़, तस निकरो, आदि हैं। बालम सिंह जनौटी तीखे विद्रोहों का कवि है। संविधानक पीड़ में लिखते हैं कि

"मैं भारतक संविधान हैं।
उमरक ज्वान-जमान हैं।
एक बखत ने
बार बखत,
चिरि, फाडि, सिणि
बख्ये- टैक्यै हाली
म्यर आड
फोडि, खचोरि, आँख कान ।
टोडि- फतोडि टांड पूँ
मैं भारतक संविधान हूँ"

 राजनीतिक रूप से सचेत कवियों में बालम सिंह जनौटी भी गिर्दा की तरह ही जनवादी परंपरा के कवि ठहरते हैं। जहाँ वह एक तरु सत्ता और शासन का विरोध तीखे व्यंग्यों से करते हैं, वहीं अपने जनमानस की कमियों को उजागर करने में भी पीछे नहीं हटते हैं। भाषाई साम्राज्यवाद की खड़ी कविता कुमाउँनी लैंग्वेज में वह लिखते हैं कि "हम कुमाउँनी के आइडेंटीफाई करण में सैक्सेसफुल हैंगी कुमाउँनी कौनफ्रेंस वन बाई वन व्यूटीफुल हैंगीं"

उनकी कविता लोकतंत्र भी आम आदमी के खत्म होते लोकतांत्रिक अधिकारों की कविता है। वे लिखते हैं-
"नेता लोगन लोकतंत्र कैं पटकि पटकि भैर मार दे डॉक्टरॉल पोस्टमाटमै रिपोर्ट में आत्महत्या करार दें"

शेखर पाठक ने जिन रचनाकारों के नाम उद्धृत किए हैं, वे इस तरह से हैं 1969 के बाद कुमाउँनी के अनेक कवि रचनाकारों का उदय हुआ है। शैलेश मटियानी, मनोहर भयाम जोशी या शिवानी सहित हिंदी जगत के अनेक रचनाकारों ने कुमाउँनी भाषा को हिंदी साहित्य में भी प्रस्तुत किया तो कुमाउँनी में जगदीश जोशी, राजेन्द्र बोरा, रतन सिंह किरमोलिया, अनिल कार्की, मथुरादत्त मठपाल, रमेश चंद्र शाह, बालम सिंह जनोटी, देवकी मेहरा, महेन्द्र मटियानी, नवीन जोशी, शेर सिंह बिष्ट, मोहन कुमाउँनी, हेमन्त बिष्ट, नारायण सिंह बिष्ट, ज्ञान पंत जैसे कवि रचनाकार उभर कर आये।

वहीं डॉ० देवसिंह पोखरिया के अनुसार साठोत्तरी कुमाउँनी रचनाकारों की लिस्ट इस तरह से है स्व) चन्द्रपालसिंह नेगी, सुरेश पांडे, नवीन चंद्र जोशी, प्रेम सिंह नेगी, खीमानंद पांडे, हरिशचंद्र जोशी, महेन्द्र मटियानी, जगदीश जोशी, नवीन बिष्ट, केदारसिंह कुंजवाल, बालम सिंह जनौटी, देव सिंह पोखरिया, रमेश चंद्र साह, कुमारिल पंत, हयात रावत, अनिल भोज, दीपक कार्की, कृपाल दत्त भट्ट, दामोदर जोशी, हेमंत बिष्ट, कुबेरसिंह, कड़ाकोटी, लक्ष्मणसिंह नेगी, रतनसिंह किरमोलिया, तारा पांडे, गंगा प्रसाद पांडे, शंकर दत्त पुजारी, बहादुर बोरा श्री बंधु', लेखराज सिंह कुर्याल, आनंद सिंह नेगी, सुधीर साह, काशीराम भट्ट, ईश्वरी सिंह बिष्ट, हीरा सिंह रमोला, श्रीमती लीला खोलिया, दिनेश चन्द्र तिवारी, सैमुअल माधो सिंह, विशनदत्त जोशी शैलज, व मोहम्मद अली अजनबी को कुमाउनी भाषा में उर्दू की गजल विधा के लिए जाना जाता है इनके अलावा टीका राम गयाल, मोहनराम टम्टा, देवकी नन्दन काण्डपाल, डॉ।। दिवा भट्ट , हरीश पाठक, सुरेश पंत, ज्ञान पन्त आदि का नाम उल्लेखनीय है।

अन्य कई उदीयमान रचनाकार शिव राजसिंह भंडारी, चंद्रशेखर पाठक, शांता पांडे, जगदीश्वरी प्रसाद, सुरेन्द्र प्रसाद, भीम बगडवाल, रमेश पांडे 'राजन' सुशीला मठपाल, हेमंती मठपाल, कुसुम भट्ट, पूरन मठपाल, योगेन्द्र प्रसाद जोशी, गणेश तिवारी, सोनी पांडे, रीता जोशी, वीना पांडे, मधु महरा, राधा बाल्मीकि, शशिकला गोस्वामी आदि।

इसके अलावा कुमाउँनी साहित्य के प्रमुख स्वरों में जिन कवियों ने एक अलग पहचान बनाई है उनमें डॉ० मनोज उप्रेती (बागेश्वर, 1 अक्टूबर 1974) तथा दिनेश भट्ट पिथौरागढ़ का नाम उल्लेखनीय है। डॉ) मनोज उप्रेती द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह क्याप-क्याप (2010) और अप्रैण स्वैण कुमाउँनी कविता की नई दिशा की दृष्टि से महत्वपूर्ण संग्रह है। 

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